पानी के लिए संघर्ष कितना कारगर

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भारतीय परिप्रेक्ष्य में न सिर्फ पानी की बात की जाए बल्कि पानी के लिए उठ रहे कोलाहल को अभी समय रहते सुन लिया जाए तो अच्छा है। सरकारें या पर्यावरणविद् जल संकट पर अपनी चिंता तो कर सकते हैं लेकिन जल बचाने की जिम्मेदारी वास्तव में हमें ही लेनी होगी। यह जिम्मेदारी सामुदायिक जिम्मेदारी है। सामुदायिक जिम्मेदारी से जल संरक्षण होगा। संयुक्त राष्ट्र ने इस वर्ष का मुख्य लक्ष्य रखा है—‘स्वस्थ संसार के लिए स्वच्छ जल’ इस पहल को हम साकार कर सकते हैं और यह तभी संभव है जब हम सामुदायिक रूप से संयुक्त राष्ट्र के साथ कदम मिलाकर चलना शुरू करेंगे। स्थायी व टिकाऊ जल संरक्षण के लिए अपनी ऑटोनॉमी में रहने वाले लोग कैसे जल संरक्षण करते थे, उससे आज हमें सबक लेने की जरूरत है।भारत सरकार के जल संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने ई-मैसेज में लिखा है- भारत में प्राकृतिक संसाधनों का प्रचुर और विविधपूर्ण भंडार है और जल भी उसमें से एक है। इसका विकास और प्रबंधन कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गरीबी में कमी, पर्यावरणीय और निरंतर आर्थिक विकास के लिए जल प्रबंधन महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय जल नीति (2002) देश के जल संसाधनों को एकीकृत तरीके से विकसित और प्रबंधित किए जाने की योजना है।

यह भारत सरकार की एक तरह से प्रथम प्रतिज्ञा व उसकी प्रतिबद्धता का प्रतिबिम्ब है। जिस पर सरकार शायद चलकर पूरे भारत के जल संकट को समाप्त करना चाहती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246, 262, सातवीं अनुसूची की सूची प्रथम की प्रविष्टि-56 और सातवीं अनुसूची की सूची-द्वितीय में प्रविष्टि-17 में इसी जल बचाव के प्रति प्रतिबद्धता स्पष्ट उद्धृत है। उधर राधा भट्ट, अनुपम मिश्र, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर, सुन्दरलाल बहुगुणा, प्रो. ज़्या द्रेज़, वंदना शिवा, जैसे जल संरक्षण के लिए सोच-विचार रखने वाले लोगों का कहना है कि पानी बचाने के लिए हमें एकजुट होना होगा।

धरती से जल के दोहन के बदले कितना वापस धरती में जाना चाहिए, दीप जोशी ने इसके बारे में दुनिया भर के वैज्ञानिकों में आम राय स्थापित की है और वे इस संबंध में कहते हैं कि 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर जाना चाहिए। वैज्ञानिकों का मानना है कि 13 प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर पहुंच पा रहा है। जिसका परिणाम है कि हम ऐसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। लोग नदियों के करीब आकर बस रहे हैं। पृथ्वी पर केवल 3 प्रतिशत जल पीने के लिए इस्तेमाल हो सकता है बाकी 97 प्रतिशत में 75 प्रतिशत समुद्र में है।

दीपांकर चक्रवर्ती का संकेत है कि गंगा, मेघालय व ब्रह्मपुत्र में आर्सेनिक संक्रमण बढ़ रहा है। यूरेनियम फ्लोराइड और नाइट्रेट आदि भी उतने ही जल को दूषित करने वाले कारक हैं। वैश्विक जल संकट विशेषज्ञ एवं कौंसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउधी बारलो ने अपनी पुस्तक ‘ब्लू कविनन्ट—नीला प्रतिज्ञापत्र’ में लिखा है- “21वीं शताब्दी में वैश्विक जनसंख्या तीन गुनी हो गई लेकिन पानी का उपयोग सात गुना बढ़ गया। सन् 2050 में हमारी जनसंख्या में तीन अरब और लोग जुड़ चुके होंगे। मनुष्यों की जलापूर्ति में 80 प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी। कोई नहीं जानता यह पानी कहां से आएगा।’’

धरती से जल के दोहन के बदले कितना वापस धरती में जाना चाहिए, दीप जोशी ने इसके बारे में दुनिया भर के वैज्ञानिकों में आम राय स्थापित की है और वे इस संबंध में कहते हैं कि 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर जाना चाहिए। वैज्ञानिकों का मानना है कि 13 प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर पहुंच पा रहा है। जिसका परिणाम है कि हम ऐसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। इज़राइल, फिलिस्तीन, जार्डन, सीरिया भयानक जल विवाद में घिर चुके हैं। एक ई-जल पोर्टल पर यह आलेख अंश इस बात के लिए चिंता प्रकट करता है कि पानी हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है। सुनीता नारायण ने बहुत कहा था कि हमारा पानी जो इस्तेमाल होता है तथा उसके ही तहत जो सीवेज पैदा होते हैं, हम उसे बिना ट्रीट किए बहा देते हैं उसके लिए हमारे पास व्यवस्थाएं पर्याप्त हैं क्या? उनका ध्यान दिल्ली की उन तंग बस्तियों व भारत के शहरी बेचैनी से उपजते जल संकट की तरफ था।

22 मार्च, 2010 को विश्व जल दिवस पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून संपूर्ण राष्ट्रों से अपने संबोधन में यही कहना चाह रहे थे कि, ‘जल ही जीवन है और इस ग्रह के सभी प्राणियों को आपस में जोड़ने वाला साधन भी यही है। संयुक्त राष्ट्र के हमारे सभी लक्ष्यों से यह सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है—जच्चा-बच्चा का बेहतर स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा, महिला सशक्तिकरण, खाद्य सुरक्षा, टिकाऊ विकास और जलवायु परिवर्तन का अनुकूलन एवं शासन। इन कड़ियों की मान्यता के फलस्वरूप 2005-2015 को कार्यवाही का अंतरराष्ट्रीय दशक ‘पानी जीवन है’ के रूप में घोषित किया गया।

हमारे अपरिहार्य जल साधन बहुत उदार रहे हैं लेकिन अब वे काफी सुभेद्य बन गए हैं और उन पर पर्याप्त खतरा भी मंडराने लगा है। खाद्य पदार्थों, कच्चे माल तथा ऊर्जा के लिए हमारी बढ़ती आबादी की पानी की जरुरत बढ़ गई है और जल के लिए प्रकृति की भी अपनी जरूरतें हैं जिससे इन दोनों में प्रतिस्पर्धा हो रही है। पारितंत्र (इको-सिस्टम) पहले से ही ख़तरे में है तथा इसकी रक्षा के लिए जल अत्यधिक अनिवार्य है क्योंकि इको-सिस्टम की सेवाओं पर ही हम निर्भर हैं। हर दिन हम लाखों टन गैर-उपचारिक मल-जल तथा औद्योगिक एवं कृषि जन्य कचरा जल संसाधनों में डालते हैं। स्वच्छ जल दुर्लभ होता जा रहा है तथा जलवायु परिवर्तन के कारण इसकी उपलब्धता और भी कम पड़ सकती है। गरीब लोग पहले तो प्रदूषण से परेशान हैं और फिर पानी की कमी उन्हें खाए जा रही है और उस पर से साफ-सफाई की स्थिति ठीक नहीं रहती।

हम देखेंगे कि बान की मून की भी चिंता ठीक वही है जो हमारे देश के सातत्य विकासवादी, पर्यावरण के हिमायती और जीवन रक्षा के चिंतक कर रहे हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में न सिर्फ पानी की बात की जाए बल्कि पानी के लिए उठ रहे कोलाहल को अभी समय रहते सुन लिया जाए तो अच्छा है। सरकारें या पर्यावरणविद् जल संकट पर अपनी चिंता तो कर सकते हैं लेकिन जल बचाने की जिम्मेदारी वास्तव में हमें ही लेनी होगी। बान की मून या भारत के पर्यावरण और जल संसाधन मामले के मंत्रालय अपनी चिंता व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन जल बचाने की जिम्मेदारी वास्तव में हमें लेनी होगी। यह जिम्मेदारी सामुदायिक जिम्मेदारी है।

सामुदायिक जिम्मेदारी से जल संरक्षण होगा, इसका उल्लेख भारत में गहरे कुएं और उनकी प्रचुरता पर विश्व बैंक की रिपोर्ट में भी आया था जिसमें कहा गया था कि, ‘भू-जल संरक्षण का पहला अधिकार समुदाय का है जिसमें उसके प्रबंधन का भी अधिकार समुदाय को दिया गया है। उस रिपोर्ट में कानूनी प्रावधान, आर्थिक उपाय, भू-जल के कारोबार का अधिकार, भू-जल का सामुदायिक प्रबंधन, राज्य भू-जल संस्थानों की भूमिका तय करना और क्षमता बढ़ाना, कृषि में संयोजी उपयोग को बढ़ावा देना, शहरों में पानी की आपूर्ति के लिए एकीकृत भू-जल व्यवस्था, कृषि उपयोग के लिए बिजली का मूल्य तय करने के लिए राजनीतिक और तकनीकी उपायों का जिक्र है लेकिन इसमें सामुदायिक विकास से जल संरक्षण पर विशेष बल दिया गया है। इस प्रकार इंटरनेशनल महत्व की एजेंसियों और दुनिया के जल संरक्षकों के बीच जद्दोजहद और जो उपाय सुझाए जा रहे हैं, उसे समझने की जरूरत है। वैसे पानी के लिए बहस या कोलाहल पूरी दुनिया में छिड़ चुकी है लेकिन हम ‘पानी के लिए युद्ध’ से बच कैसे सकते हैं, इस पर विचार गंभीरता से होने चाहिए जिसमें मुझे कहीं न कहीं कमी दिख रही है।

मल्टीनेशनल कंपनियों और बाजारवाद के समर्थकों के लिए यह सबसे ज्यादा अच्छा अवसर है। वह यह चाहते हैं कि हमारा पानी पर कब्जा हो और पूरी दुनिया को हमसे ही पानी खरीद कर जीवन बचाना पड़े। इसलिए वंदना शिवा और अनुपम मिश्र ने पानी के निजीकरण पर सवाल उठाया है। पानी के लिए यह सवालात पूरी मनुष्यता बचाने की मुहिम है। हमें उन मनुष्य हितैषियों के संदर्भ में सोचना होगा वरना आपको बान की मून और पुस्तक ‘ब्लू कविनन्ट’ में दी गयी चेतावनी को अपनी जिंदगी में एक दिन झेलना पड़ेगा।

भारत की आबादी आज एक अरब दस करोड़ से भी अधिक हो गई है और भू-जल स्तर उतने ही रफ्तार से कम हुआ है। माउधी बारलो द्वारा की गई भविष्यवाणी इस स्थिति में सत्य साबित होगी। सन् 2006 में ही हमारे देश के प्रधानमंत्री ने कहा था, “हमें पानी के उपयोग में यथासंभव कमी लानी होगी और ऐसी प्रौद्योगिकी और विज्ञान में निवेश होगा जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि हम ऐसी फसलें भी ले सकते हैं जिनमें पानी की कम खपत होती है। दूसरे शब्दों में बूंद-दर-बूंद फसल की कीमत आंकने के तरीके ढ़ूंढने होंगे।’’

संयुक्त राष्ट्र ने इस वर्ष का मुख्य लक्ष्य रखा है- ‘स्वस्थ संसार के लिए स्वच्छ जल’। इस पहल को हम साकार कर सकते हैं और यह तभी संभव है जब हम सामुदायिक रूप से संयुक्त राष्ट्र के साथ कदम मिलाकर चलना शुरू करेंगे। हमारे संकल्प, प्रतिबद्धता व संभावनाओं को प्राप्त करने हेतु एक हो जाएं। स्थायी व टिकाऊ जल संरक्षण के लिए अपनी ऑटोनॉमी में रहने वाले लोग कैसे जल संरक्षण करते थे, उससे आज हमें सबक लेने की जरूरत है। आखिर जो तथाकथित जाहिल व गंवार, भारत सरकार की भाषा में कहे तो आदिवासी समाज—ट्रॉयबल थे वह कैसे अपने जल को सुरक्षित करते थे, उससे सीखने की जरूरत है। दुनिया के 300 मिलियन आदिवासी समाज ने इसका नायाब उदाहरण प्रस्तुत किया है।

जल संग्रह के कुछ उपाय इसलिए आवश्यक हो जाते हैं। बारिश में मेड़बंदी एवं भू-समतलीकरण, ढाल के विपरीत दिशा में गहरी जुताई, खेत के ऊंचे स्थान पर शोक-पिट व बारो-पिट का निर्माण करके यह काम हो सकता है। इसके अतिरिक्त तालाबों का निर्माण करके भी जल संरक्षण हो सकता है। छत का पानी इकट्ठे करके भी पानी संग्रहण जारी है। भारत सरकार का यह दावा है कि देश के भू-जल विकास का चरण 58 प्रतिशत है। देश के विभिन्न भागों में भू-जल विकास एक समान नहीं है। इसके लिए सरकार तमाम अनुसंधान के कार्य कर रही है। इसके लिए जनजागरूकता, वर्षा जल संचयन पर प्रशिक्षण, तकनीकी प्रशिक्षण, फिल्मों का निर्माण व प्रदर्शनियों के माध्यम से जागरूकता फैलाने की कोशिश जारी है। निश्चित रूप से इसके माध्यम से सरकार जल बचाने के लिए प्रतिबद्ध है। उसके अतिरिक्त इस जल के माध्यम से फैलने वाली बीमारियों से बचाकर लोगों को जीवन भी देना चाहती है।

आवश्यकता इस बात की है कि समय रहते हम तमाम जल निकाय नदियों, नहरों, जलाशय, कुंड, तालाब, झीलें, परिव्यक्त जल तथा खारे पानी को बचाएं। डाब्लिन समझौते के हमारे प्रतिज्ञापत्र को हमें हमेशा ध्यान में रखना होगा जिसमें हमारा दुनिया के लिए संदेश था, ‘‘ताजा पानी एक सीमित और दुर्लभ संसाधन है जो जीवित रहने, विकास और पर्यावरण के लिए जरूरी है।” यह गौरव की बात है कि भारत विश्व जल परिषद्, विश्व जल मंच के द्वारा अपना नाम दुनिया में रोशन कर रहा है लेकिन सरकार व समाज की भागीदारी उसकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करेगी। इसलिए संभावनाओं के लिए हमें हमारी ही जरूरत है जो बिना दृढ़ संकल्प के नहीं होगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से संबद्ध हैं।)
ई-मेल : kanhaiyatripathi@yahoo.co.in

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