पानी के निजीकरण के खतरे

कनाडा की स्वच्छ जल की झीलों और नदियों में दुनिया के कुल ताजे पानी का लगभग एक चैथाई पानी है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में यह होड़ लगी है कि किस प्रकार इस पानी पर वे अधिकार प्राप्त कर लें और अरबों लीटर कनाडा का पानी अमरीका, मैक्सिको, जापान और पश्चिम एशिया के देशों में निर्यात करें। जैसे पिछली सदी के सत्तर के दशक में पेट्रोल पर कब्जा करने की आपाधापी शुरू हुई थी इस समय नील स्वर्ण यानी पानी की वही हालत है। पानी के निजी क्षेत्र में जाने पर सबसे अशुभ बात जो हो रही है वह है “पानी का बिकना”, जीवन की मूल आवश्यकता का मुनाफे के लिए बाजार बनाना। निजीकरण के खतरे को समझने के लिए पहले विश्व में कुछ जगहों पर निजीकरण के दिखने वाले प्रभावों को जान लें।

बोलिवियावासियों का पानी के लिए संघर्ष


लातिन अमरीका का एक छोटा सा देश है बोलिविया । यहाँ परिवहन, विद्युत व्यवस्था और शिक्षा जैसे सार्वजनिक उद्यम और निगम विदेशी हाथों में जा चुके है। बोलिविया सरकार के मंत्रिमण्डलीय बैठकों में विश्व बैंक के अधिकारी पूर्ण सहभागी के रूप में बैठते हैं। इस समय बोलिविया विदेशी आर्थिक सहायता पर निर्भर एक देश है।

दो साल पहले यहाँ के एक बड़े शहर कोचाबंबा की जल सेवाओं के लिए ऋण देने से पहले विश्व बैंक ने शर्त रखी कि सरकार सार्वजनिक जल व्यवस्था को निजी क्षेत्र को बेंच दे। नतीजतन पूरी जल व्यवस्था अमरीका के बैक्टेल उद्योग समूह की एक सहायक कम्पनी के हवाले कर दी गई।

जनवरी 1999 में इस कम्पनी ने पानी की दरें दुगनी करने का ऐलान कर दिया। ज्यादातर बोलिवियावासियों के लिए इस दाम वृद्धि का मतलब था पानी पर भोजन से भी ज्यादा खर्च करना और जो न्यूनतम वेतन पाने वाला वर्ग है या जो बेरोजगार है उसके बजट का आधे से अधिक बल्कि किसी के लिए तो पूरा बजट ही पानी के बिल पर खर्च हो जाना। इसके बाद विश्व बैंक ने निजी पानी कम्पनियों को पूरी इजारेदारी सौंप दी और लागत के बराबर मूल्य वसूलने को अपना समर्थन दिया। अगले कदम में विश्व बैंक ने पानी की लागत को अमरीकी डालर के साथ जोड़ दिया तथा यह भी स्पष्ट कर दिया कि उसके किसी भी ऋण का इस्तेमाल जल सेवाओं के लिए गरीबों को सब्सिडी देने पर नहीं किया जाएगा। तमाम तरह के जल स्रोतों, जैसे कि कुएँ के पानी पर भी परमिट लेना जरूरी कर दिया गया। इतना ही नहीं, छोटे किसानों को अपनी जमीन पर बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिए भी परमिट खरीदना जरूरी हो गया।

पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर उठे बोलिवियावासी बगावत की मुद्रा में आ गये और हजारों लोग सड़क पर आ गए। आम हड़ताल औैर परिवहन व्यवस्था ठप्प हो जाने से पूरे शहर में सन्नाटा छा गया। शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों का जवाब सरकारी हिंसा और गिरफ्तारियों से दिया गया।

तानाशाह रह चुके राष्ट्रपति ह्यूगो बेंजर ने मार्शल लॉ लागू कर दिया। कार्यकर्ताओं को रातों-रात गिरफ्तार कर लिया गया और रेडियो,टी.वी.कार्यक्रम अधबीच में ही रोक दिए गए।

फिलहाल बोलिविया की कहानी तो सुखान्त ही है। वहाँ की सरकार से टक्कर लेने के लिए सैकड़ों हजारों बोलिवियावासियों ने कोचाबंबा की तरफ मार्च निकाला। अन्ततः 10 अप्रैल 2000 को उनकी जीत हुई। बोलिविया सरकार ने बेक्टेल को वाकई देश से खदेड़ दिया और अपने जल निजीकरण सम्बन्धी कानून को रद्द कर दिया।

अफ्रीका में पानी की लड़ाई


अफ्रीका में भी पानी की लड़ाई शुरू हो गई है। दक्षिण अफ्रीका के शहरों में पानी और जल सेवा पर निजी कम्पनियों का कब्जा बढ़ता जा रहा है। क्वाजुलुनेटाल प्रान्त के बैलिटो कस्बे में नगर पालिका ने 6 अप्रैल 1999 को साफ पानी और गन्दे पानी की सेवाएँ फ्रांसीसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी- सोसियते दमेनाज्मा उरबेन ए रूराल को सौंप दिया। दक्षिण अफ्रीका के नगर महापालिका महासंघ ने लंबा संघर्ष किया है। लेकिन वे भी निजीकरण को रोक नहीं पा रहे हैं। इसी तरह मूमालंगा प्रान्त की राजधानी नल्सप्रट में जल सेवा पर दक्षिण अफ्रीका की एक कम्पनी तथा ब्रिटेन की कम्पनी बाई़वाटर ने तीस साल के लिए ठेका ले लिया है। यह ठेका बहुत गोपनीय ढंग से और सन्देहास्पद परिस्थितियों में हुआ। जब दक्षिण अफ्रीका के एक प्रतिष्ठित टी.वी. संवाददाता जीकालाला ने बाईवाटर की काली करतूतों को टेलीविजन पर उजागर किया तो इस कम्पनी ने धमकी दी कि अगर अगली रात को माँफी नहीं माँगी जाएगी तो पाँच करोड़ डालर से ज्यादा का पूँजी निवेश यह कम्पनी अफ्रीका से बाहर खींच लेगी। टेलीविजन नेटवर्क कम्पनी को अगले दिन माँफी माँगनी पड़ी। इन कम्पनियों की दादागिरी में स्थानीय और राष्ट्रीय सरकारें कम्पनियों का साथ देती हैं, क्योंकि ये कम्पनियाँ सरकार में बैठै लोगों को काफी घूस खिलाती हैं।

ब्रिटेन में निजीकरण का नतीजा


ब्रिटेन जैसे देश में प्राइवेट कम्पनियाँ हजारों किलोमीटर के चूते हुए पाइपों की मरम्मत नहीं कर सकीं और हर दिन पैंतालिस लाख लीटर पानी नष्ट होता है। दूसरे इन कम्पनियों ने निजीकरण होते ही पेयजल का दाम 44 प्रतिशत बढ़ा दिया। निजीकरण से पानी की बर्बादी तो रूकी नहीं बल्कि मँहगा जरूर हो गया।

कनाडा में पेयजल स्रोतों पर कब्जे की लड़ाई


कनाडा की स्वच्छ जल की झीलों और नदियों में दुनिया के कुल ताजे पानी का लगभग एक चैथाई पानी है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में यह होड़ लगी है कि किस प्रकार इस पानी पर वे अधिकार प्राप्त कर लें और अरबों लीटर कनाडा का पानी अमरीका, मैक्सिको, जापान और पश्चिम एशिया के देशों में निर्यात करें। जैसे पिछली सदी के सत्तर के दशक में पेट्रोल पर कब्जा करने की आपाधापी शुरू हुई थी इस समय नील स्वर्ण यानी पानी की वही हालत है। पानी के मामले में कनाडा भविष्य का ओपेक (OPEC) बनने जा रहा है। कनाडा की सरकार अपने देश के पानी को बचाने में लगी हुई है। कनाडा की लिबरल पार्टी ने 1993 के चुनाव में यह घोषणा की थी कि देश के पानी के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा देगी। कनाडा के पर्यावरण और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के संगठनों ने भी पानी के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की है। परन्तु अमरीका की कम्पनियाँ कह रही हैं कि कनाडा का प्रतिबन्ध लगाना नाफ्टा (NAFTA) और डब्लू.टी.ओ. (WTO) के विरुद्ध होगा। फरवरी 1999 में कनाडा की संघीय सरकार ने प्रत्येक प्रादेशिक सरकार से पानी निर्यात पर रोक लगाने का निवेदन किया है। वह अमरीकी सरकार से विवाद को सुलझाने के लिए पूरे मामले को अन्तरराष्ट्रीय संयुक्त आयोग को सौंपने के लिए तैयार हो गई है। यह आयोग दोनों देशो की सरकारों ने बनाया है।

पानी पर कब्जा करने की कंपनियों की मुहिम


इस तरह की कहानियाँ अब हर देश में देखने को मिलने लगी है। कम्पनियाँ पानी पर टूट पड़ी हैं। विभिन्न बाँध परियोजनाओं से शुरू होकर कम्पनियों का हस्तक्षेप बोतल बंद पानी से होते हुए पूरे जल प्रबन्धन तक पहुँच गया है। इस निजीकरण ने सूखते जल स्रोतों का दोहन और बढ़ा दिया है। अमरीकी कम्पनियों की नजर कनाडा के साफ पानी की झीलों पर लग गई हैं। विश्व में जहाँ कहीं भी पेयजल के समृद्ध स्रोत हैं कम्पनियाँ उन्हें येन-केन-प्रकारेण हथियाने के प्रयास में लग गई है। निजीकरण से एक तो बहुत बड़ा खतरा इन पेयजल स्रोतों को ही हो गया है।

जब पानी बिकने लगेगा तो भला कम्पनियाँ क्यों चाहेंगी कि कोई आसानी से पानी पा ले। उनका तो प्रयास होगा कि पानी की हर आवश्यकता उन्हीं के माध्यम से पूरी हो। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकती हैं, जैसा कि बोलिविया में हुआ, पेयजल स्रोतों पर परमिट तो जरूरी किया ही गया, किसानों द्वारा अपनी जमीन पर बरसात का पानी इकट्ठा करने पर भी परमिट जरूरी कर दिया गया।

इस प्रकार हम बोलिविया के उदाहरण से ग्रामीण क्षेत्र पर छाने वाले आतंक की एक झलक तो देखते ही हैं, शहरी जल सेवाओं का इतिहास भी बेहद आतंककारी पाते है।

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