पानी के प्रबंधन व जैविक खाद के उपयोग से सस्ती होगी खेती

9 Jun 2013
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रांची से सटे ओरमांझी के दूबराज महतो ऐसे किसान हैं, जिनके पास न खेती के लायक पर्याप्त जमीन है और न ही खेती से जुड़ी अत्याधुनिक जानकारी। दूबराज नेशनल हाइवे 33 के किनारे स्थित किराये की छह एकड़ जमीन पर सब्जियों की खेती करते हैं। इनमें से दो-ढाई एकड़ भूमि ऐसी है, जो तीन-चार साल पहले तक टांड़ हुआ करती थी। दूबराज ने उसे अपनी लगन-मेहनत से समतल व उर्वर बनाया। भू-स्वामी को वे प्रति एकड़ की दर से तीन से चार हजार रुपये सालाना किराया देते हैं। डेढ़ से दो लाख रुपये सालाना वे खेती में खर्च करते हैं। खेत के बगल में ही वे परिवार वालों की मदद से किराना की दुकान चलाते हैं और खेती को भी समय देते हैं। दूबराज सालाना डेढ़-दो लाख रुपये की मोटी रकम खर्च कर की जाने वाली खेती से होने वाले मुनाफे के बारे में बार-बार कुरेदने पर मुंह नहीं खोलते हैं। लेकिन उनके चेहरे की चमक व आव-भाव बताते हैं कि यह काम उनके लिए फायदेमंद है। लेकिन पानी के प्रबंधन में आने वाली लागत से वे परेशान भी हैं।

दूबराज के चेहरे पर यह चमक जैविक खेती से आयी है। उन्होंने रासायनिक खाद से तौबा कर लिया है। वे कहते हैं : रासायनिक खाद जमीन को बर्बाद कर देती है, इसलिए हम उसका उपयोग अपने खेत में नहीं करते हैं। वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ सतीश चंद्र प्रसाद कहते हैं कि अधिकतर किसान आज खेती छोड़ना चाहते हैं। योजना आयोग के सामने भी यह विषय आ चुका है। इसका कारण है खेती की बढ़ती लागत व घटता मुनाफा. डॉ प्रसाद बताते हैं कि झारखंड में खेती के साथ एक बड़ी समस्या है पानी की। पानी का प्रबंधन यहां खेती की लागत को कम करने में मददगार होगी। वे कहते हैं कि किसान पानी से खेती न करें, खेती से खेती करें। वे लाभकारी खेती के लिए बहुफसली खेती व पशुपालन पर जोर देते हैं।

कृषि वैज्ञानिकों ने भी अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि रासायनिक उर्वरकों के निरंतर प्रयोग से जमीन बंजर हो जाती है। बिरसा कृषि विश्वकविद्यालय में भी इस तरह का अध्ययन किया गया है। पिछले 50 सालों से एक भूमि पर लगातार उर्वरकों के उपयोग किये जाने से वह जमीन बंजर हो गयी, जबकि जैविक विधि से खेती किये जाने पर भूमि की स्थिति अच्छी रही। डॉ प्रसाद कहते हैं दुनिया के जाने-माने कृषि अनुसंधान संस्थान इंग्लैंड के रोथमस्टेटड में इस तरह का शोध अध्ययन और भी ज्यादा लंबे समय से हो रहा है, जिससे यह बात प्रमाणित हुई है कि रासायनिक खाद का लंबे समय तक उपयोग भूमि को बंजर बनाने के लिए जिम्मेवार है। वे किसानों की जागरूकता पर जोर देते हैं।

ओरमांझी के ही कुरूम गांव के गंदौर महतो कहते हैं कि रासायनिक उर्वरकों की कीमत काफी है और उसका स्टॉक भी व्यापारी छिपाते हैं। आठ एकड़ भूमि में खेती करने वाले महतो कहते हैं कि प्रति एकड़ भूमि पर धान की फसल लगाने में 15 से 20 हजार रुपये खर्च होता है। अनुमानत: इसमें छह से सात हजार रुपये खाद पर खर्च हो जाते हैं। मौसम बढ़िया रहा तो इससे 30 से 40 हजार फसल बेचकर आ जाता है। गंदौर महतो पूर्व मुखिया भी हैं। वे कहते हैं कि समय पर बारिश नहीं हुई और सिंचाई नहीं हो सकी तो नुकसान भी होता है।

गांवों में पशुधन का घटना व परंपरागत जल स्रोतों का सीमटना भी खेती के महंगे होने का बड़ा कारण है। लिफ्ट इरीगेशन से खेती करना काफी महंगा पड़ता है। डॉ सतीश चंद्र प्रसाद के अनुसार, झारखंड की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि किसी भी सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि वह सभी भूमि पर सिंचाई सुविधा उपलब्ध करा सके। ऐसे में कृषि लागत में कमी लाने के लिए यह जरूरी है कि किसान सतह पर पानी बचायें। पुराने जमाने में यह परंपरा मजबूत थी। डॉ प्रसाद के अनुसार, खेती को लाभदायक बनाने व लागत कम करने के लिए इसमें विविधता लाने की जरूरत है। खेती को पशुपालन, मछलीपालन से जोड़ना जरूरी है। साथ ही किसानों को व्यावसायिक बैंकों से भी जोड़ना होगा। साहिबगंज-पाकुड़ जिले में 300 किसानों पर ऐसा प्रयोग किया गया। खेती को पशुपालन व मछलीपालन जैसे वैकल्पिक आय स्रोत से जोड़ने पर इससे छोटे किसानों का मुनाफा भी सालाना 70 हजार रुपये से एक लाख रुपये के बीच हो गया।

राज्य में किसानों की कृषि लागत कम करने के लिए तीन मोर्चे पर काम करने की जरूरत है : पानी, फसल या बीजों की किस्म और उर्वरक के प्रबंधन का. डॉ प्रसाद के अनुसार, रासायनिक खाद काफी महंगा पड़ता है और उसके लिए राज्यों के केंद्रीय सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में किसान जैविक खाद का उपयोग करें। वे किसानों को कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट व जैविक खाद के उपयोग की सलाह देते हैं। किसान पशुपालन कर खुद इसे तैयार कर सकते हैं। डॉ प्रसाद कहते हैं कि ऊंची कृषि भूमि पर ही जल प्रबंधन की सर्वाधिक जरूरत है।

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