पानी के सौदागर हो रहे नदियों के मालिक

3 Nov 2018
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लखवाड़ बाँध
लखवाड़ बाँध

गंगा, यमुना और उन जैसी अनेक नदियों के भजन गाने वाले मैदानी इलाकों के समाज को आमतौर पर पहाड़ों और वहाँ से निकलने वाली इन नदियों के दुख-दर्द का कोई अन्दाजा नहीं रहता। आधुनिक विकास की चपेट में आकर ये नदियाँ भी अब धीरे-धीरे अपनी ऊर्जा खोती जा रही हैं, लेकिन इस पर ध्यान देकर इसे रोकना तो दूर, हम उनकी पीड़ा को जानते तक नहीं हैं।

लखवाड़ डैमलखवाड़ डैम (फोटो साभार - गूगल मैप)जहाँ गंगा की निर्मलता के लिये गंगोत्री से गंगा सागर तक 22 हजार करोड़ की 240 से अधिक परियोजनाओं पर काम चल रहा है, वहीं दूसरी ओर गौर करेंगे तो उद्गम से ही गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरलता को बाधित करने वाली परियोजनाओं के निर्माण के लिये पानी के मुनाफाखोरों को आमंत्रित किया जा रहा है।

आये दिन इसकी सहमति की फाइलों पर हस्ताक्षर हो रहे हैं। इसके दर्जनों उदाहरण हैं, लेकिन हाल ही में यमुना नदी के उद्गम के निकट प्रस्तावित ‘लखवाड़ बहुउद्देशीय परियोजना’ पर हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ने अपना अधिकार जमा लिया है। अभी 28 अगस्त 2018 को इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री ने मिलकर दिल्ली और आसपास के राज्यों की प्यास बुझाने के लिये यमुना के पानी को बाँटने की सहमति दी है। इसके अनुसार 3,38,780 हेक्टेयर क्षेत्रफल की सिंचाई, निस्तार तथा औद्योगिक उपयोग के लिये 78 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) पानी उपलब्ध किया जाना है।

इस परियोजना से पैदा होने वाली लगभग 572 मिलियन यूनिट बिजली उत्तराखण्ड को मिलेगी। इस परियोजना की कुल लागत लगभग 4 हजार करोड़ है, जिस पर 90 प्रतिशत केन्द्र की सरकार और शेष 10 प्रतिशत लाभान्वित राज्य खर्च करेंगे। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए ‘किसाऊ’ व ‘रेणुका’ बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं पर सहमति बनाई जा रही है। इसी तरह लगभग चार दर्जन नदी परियोजनाओं पर, भीषण आपदाओं के बाद भी नदियों के मूल सवालों को नजरअन्दाज करके, सहमति के रास्ते ढूँढे जा रहे हैं।

यमुना का पानी उद्गम से ही कम हो रहा है। बिजली उत्पादन और जल-बँटवारे के लिये जो आँकड़े सामने आ रहे हैं वे वर्तमान जलवायु परिवर्तन के चलते और निरन्तर घट रही जलराशि के अनुसार विश्वास करने योग्य नहीं हैं। ‘बन्दर पूँछ’ ग्लेशियर से आ रही यमुना और टौंस का संगम उत्तराखण्ड के विकास नगर के पास है, जिसके सम्पूर्ण जलग्रहण क्षेत्र में वनों का अन्धाधुन्ध विनाश आये दिन देखा जा सकता है।

यहाँ कई ऐसे निर्जन स्थान हैं, जहाँ से वनों के अवैध दोहन की सूचना आसानी से नहीं मिल सकती, लेकिन लकड़ी के दर्जनों ट्रक सड़कों पर चलते दिखाई दे जाते हैं। ‘बन्दर पूँछ’ ग्लेशियर अन्य ग्लेशियरों से अधिक सिकुड़ता जा रहा है। कालिन्दी पर्वत से हो रहे भूस्खलन से यमुना मन्दिर खतरे में है। इसके पास ही बहुचर्चित औजरी भूस्खलन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। यहाँ के वन और ग्लेशियर की बिगड़ती हालत के कारण यमुना का बहुत कम बचा हुआ पानी गन्दे नालों से प्रदूषित हो रहा है।

इस क्षेत्र के गाँव के लोगों की सब्जी दिल्ली के बाजार तक बिकती है। इसके अलावा पर्यटन, खेती और पशुपालन ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। यमुना और टौंस नदी के आर-पार बसी हुई आबादी के सामने पानी की कमी एक बड़ा संकट है। यहाँ के गाँव के बगल से बह रही यमुना की संकरी धारा से भले ही यहाँ के लोगों की प्यास न बुझे परन्तु जो कुछ जलराशि दिख रही है, वह मैदानी क्षेत्रों की प्यास अवश्य बुझाए यह पर्यावरणीय अन्याय पहाड़ के लोग वर्षों से सहन करते आ रहे हैं।

अक्टूबर 2018 में देहरादून में हुए ‘निवेशक सम्मेलन’ में ऊर्जा के क्षेत्र में लगभग 32 हजार करोड़ रुपए के निवेश की सम्भावनाएँ देखी गई हैं। इस राशि का अधिकतम उपयोग नदियों के बहाव रोकने पर ही खर्च किया जाना है, जबकि ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को विकसित करने का काम आगे बढ़ाना चाहिए था। यह इसलिये जरूरी है कि दुनिया में डेढ़ डिग्री तक तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के लिये प्रत्येक राज्य को अपने समाज के साथ मिलकर पानी, पेड़ और मिट्टी के संरक्षण के उपाय ढूँढने चाहिए।

इतिहास पर गौर करें तो हाल में गंगा पर अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (आईआईटी के पूर्व प्राध्यापक डॉ. जीडी अग्रवाल) को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने केन्द्र में भाजपा सरकार आने के बाद गंगा के मूल सवालों पर गौर करने का आश्वासन दिया था।

सन 2008 के ‘गंगा बचाओ आन्दोलन’ के कारण उद्गम में तीन बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का रोकना भी शीर्षस्थ भाजपा नेताओं के सहयोग से ही सम्भव हो सका था। अब उन्हीं की सरकार है लेकिन गंगा की अविरलता को बाधित करने के लिये अकेले उत्तराखण्ड की ही नजर निवेशकों की तरफ झुकी हुई है। जाहिर है, किसी भी क्षेत्र में जल ऊर्जा का शोषण करने की जिम्मेदारी अब पानी के सौदागरों की ही मानी जा रही है। बदले में वे प्रभावित क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पत्ति के मालिक बन जाते हैं। इसी तरह हर रोज निगाहों से ओझल हो जाती है, नदी और लोगों को छोड़ने के लिये विवश होना पड़ता है, नदी का किनारा।

श्री सुरेश भाई लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं एवं उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं। वर्तमान में उत्तराखण्ड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।

 

 

 

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