पानी की अनुपम कहानी

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र

‘भाषा, लोगों को तो आपस में जोड़ती ही है, यह किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से भी जोड़ती है। अपनी भाषा से लबालब भरे समाज में पानी की कमी नहीं हो सकती और न ही ऐसा समाज पर्यावरण को लेकर निष्ठुर हो सकता है। इसलिये पर्यावरण की बेहतरी के लिये काम करने वाले लोगों को अपनी भाषाओं के प्रति संंजीदा होना पड़ेगा। अपनी भाषाओं को बचाए रखने, मान-सम्मान बख्शने के लिये आगे आना होगा। यदि भाषाएँ बची रहेंगी, तो हम अपने परिवेश से जुड़े रहेंगे और पर्यावरण के संरक्षण का काम अपने आप आगे बढ़ेगा।’

अनुपम जी की भाव धारा और भाषा धारा, मीडिया चौपाल में शिरकत करने वाले युवा पत्रकारों को सम्मोहित जैसे किये हुए थी। सैकड़ों युवा पत्रकारों के जमावड़े वाले किसी भी कार्यक्रम में इस तरह की शान्ति एक अपवाद ही मानी जाएगी। वह ‘मीडिया चौपाल’ द्वारा आईआईएमसी में आयोजित एक संगोष्ठी में बोल रहे थे। नदियों के संरक्षण पर केन्द्रित इस संगोष्ठी में ही उनसे अन्तिम बार मिलना हुआ।

पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में पर्यावरण के प्रति रुझान के कारण राजेंद्र सिंह से गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में कई बार मिलना जुलना हुआ। उन दिनों प्रो.जीडी अग्रवाल उत्तराखण्ड में गंगा को अविरल बनाने के लिये आमरण अनशन पर थे। इसके कारण नदी और पानी का मुद्दा चर्चा में था। मैंने राजेंद्र जी के सामने इस विषय पर एक-दो आलेख लिखने का प्रस्ताव रखा और बाद में उनका एक वृहद साक्षात्कार भी लिया। इसके कारण घनिष्ठता बढ़ी।

एक बार राजेंद्र सिंह ने ही कहा कि अनुपम जी भी यहीं हैं, चलो मिल लेते हैं। अनुपम जी मुख्य भवन से इतर अपनी छोटी से कोठरी में बैठे हुए थे। पहुँचने पर वह गर्मजोशी से मिले और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की एक प्रति भेंट करने के बाद इस बात पर आ गए कि शोध चाहे वह किसी भी तरह का हो, यदि वह लोक और उसकी भाषा से नहीं जुड़ता, तो तथ्य और अन्त:दृष्टि दोनों के स्तर पर ही निष्प्राण ही रहता है। बाद में कार्यक्रमों अथवा गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में ही उनसे कई बार मिलना हुआ। उनसे मिलने के बाद हर बार यही, महसूस होता कि उनकी भाषा में समृद्धि और प्रवाह, पढ़ने से अधिक, विषय को हर पल जीने से आया है।

गम्भीर और अकादमिक विषयों को भी सामान्य समझ रखने वाले व्यक्ति के अनुरूप, सहज और रोचक बनाने की उनकी क्षमता, किसी गहरी साधना का प्रतिफल थी। उनकी भाषा उन भारतीयों के लिये सबक भी, जो अपनी भाषा को अक्षम मानने की हीनता ग्रंथि से पीड़ित हैं। शब्दों के छीजते मूल्य और सिकुड़ते संसार के दौर में उनकी भाषा एक मानक के रूप में स्वीकार की जा सकती है।

पर्यावरण के प्रश्र को पारम्परिक तकनीकी खाँचों से निकालकर, उसका समाधान स्वभाषा में खोजने की सहज बुद्धि अनुपम मिश्र की पहचान बन गई थी। अनुपम जी के विचार और भाषा दोनों ‘साफ माथे’ से आते थे, इसलिये उनमें भी गंगाधारा जैसा प्रवाह था, जो भी उसके सम्पर्क में आता, उसे ताजगी और पाकीजगी दोनों का एहसास जरूर होता।

पर्यावरण के प्रश्न को भाषा से जोड़ने पर उनसे उल्लिखित कार्यक्रम में उनसे कई सवाल पूछे गए। उन्होंने इस अन्तर्सम्बन्ध को जिस तरह से रेखांकित किया, वह उनकी लोक के साथ रची-पगी अनूठी अन्त:दृष्टि से परिचय कराती है। बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि सबसे कम बारिश वाले राजस्थान में आम आदमी का बादलों से गहरा परिचय है। वहाँ का समाज बादलों के चालीस से अधिक प्रकारों से परिचित है और उन्हें विविध नामों से बुलाता है।

भूरे बादल की क्या विशेषताएँ हैं, कौन सा काला बादल बारिश करेगा और कौन सी महज धौंस जमाएगा, इन सभी से राजस्थानी समाज पूरी तरह परिचित रहा है। बादलों के इन विभन्न प्रकारों के साथ उनका गहरा तादात्म्य है। यह समाज बादलों की अलग-अलग नामों से पुकारता है और इस तरह राजस्थानी समाज के मन में बादलों की पूरी दुनिया बसी हुई है।

बादलों की इतनी समझ रखने वाला समाज, उनका बारीक वर्गीकरण करने वाला समाज, उन्हें प्यार से पुकारने वाला समाज, पानी की प्रत्येक बूँद को लेकर सजग होगा ही। बादल ही नहीं, राजस्थान में पानी से सम्बन्ध रखने वाले प्रकृति के अंग-उपांगों का उनकी विशेषताओं के आधार पर नामकरण करने की अनूठी परम्परा है। वहाँ हर तालाब का नाम है, उससे जुड़ी किस्से कहानियाँ हैं और इस तरह से पानी के सन्दर्भों में राजस्थान भाषाई दृष्टि से काफी समृद्ध है। इसी भाषाई समृद्धि के कारण, इस समाज में पानी संरक्षण की समृद्ध संस्कृति आकार ले सकी।

वह आगे बताते हैं कि परिवेशगत भाषाई समृद्धि राजस्थान तक सीमित नहीं है। भारत के परम्परागत समाज ने प्रकृति के हर अंग को उसके गुण-दोष के आधार पर नामकरण किया। खेत, पेड़, तालाब, कुएँ सबको भारतीय समाज नाम से पुकारता रहा है, ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी पेड़ों को उनके नाम से ही पुकारा जाता है। उन्होंने देश भर के तालाबों के नामकरण पर रोचक लेख भी लिखा था। उनका मानना था कि प्रकृति के अंगों-उपांगों का सूक्ष्म अवलोकन और फिर उनका नामकरण करने की विशेषता के कारण भारतीय समाज पर्यावरणीय दृष्टि से अधिक संवेदनशील बन जाता है और उसकी यह विशेषता अब भी बनी हुई है। यदि परम्परागत पर्यावरणीय शब्दों को हम नई पीढ़ी को सौंपते रहे, तो उनमें प्रकृति के प्रति लगाव पैदा हो सकेगा।

जीवन के उत्तरार्द्ध में वह रेगिस्तानी सूखे से आगे निकलकर विनाशक बाढ़ पर केन्द्रित हो गए थे। सूखा उन्होंने राजस्थान के जरिए समझा और बाढ़ को वह बिहार के जरिए समझने की कोशिश कर रहे थे। उनकी बाढ़ सम्बन्धी समझ भी हमको भारत में हजारों सालों से बह रही पानी की परम्परा से परिचित कराती है और यह परिचय हममें नया विश्वास भर देता है। जीवन को समझने और सार्थक करने की एक नई अनुपम दृष्टि वह पानी के बहाने हमें दे जाते हैं।

उनकी चर्चित किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ भारत में पानी-प्रबन्धन की परम्परागत समझ की उत्कृष्टता को ‘डिकोड’ करती है। बिहार में बाढ़ प्रबन्धन पर आधारित उनकी दूसरी कृति ‘ साफ माथे का समाज’ भारतीय समाज की स्थानीय स्तर पर समस्याओं को सुलझाने की सामर्थ्य को सामने लाती है। पानी के बहाने ही सही, उनका लेखन और चिन्तन इस तथ्य को स्थापित करता है कि भारत भूगोल के साथ एक विशिष्ट भाव भी है। इस देश के पास प्रकृति और सृष्टि को समझने का उदात्त नजरिया रहा है और सबसे बड़ी बात यह कि यहाँ का लोकमानस प्रकृति से प्रत्यक्ष संवाद स्थापित करने में सक्षम रहा है।

संवाद की इस सक्षमता के कारण यहाँ पर पर्यावरणीय मुद्दों को सुलझाने की अनुपम शैलियाँ और परम्पराएँ विकसित हुईं। वह ठसक भरी सहज भारतीयता के सरस भाष्यकार थे और उनका भाष्य हमें पानीदार बना जाता है।

एक ऐसे दौर में जब आयातित विचारों का अन्धानुकरण आधुनिकता कही जाने लगी है और भारतीय ढंग से रहने-सोचने का अकाल सा पड़ता जा रहा है, उनके जाने से भारतीयता को समझने-समझाने की सम्भावनाएँ और भी अधिक सीमित हो गई हैं, भारतीयता और परिवेश को समझने की एक ‘अनुपम’ खिड़की बन्द हो गई है।


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