पारिस्थितिकी के अनुकूल विकास के प्रति वचनबद्धता

13 May 2016
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पर्यावरण के भविष्य को नया रूप देने के लिये अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने इससे पहले पर्यावरण पर कभी भी इतना ध्यान नहीं दिया था, न ही इस तरह का अवसर उपलब्ध था। आज एक तरफ जनता में अधिक जागरुकता है तो दूसरी तरफ देश आर्थिक विकास की ओर बढ़ने की दहलीज पर है। अब अवसरों का भरपूर लाभ उठाने का उपयुक्त समय है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन यूएनसीईडी जो रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन के नाम से जाना जाता है, को सम्पन्न हुए शीघ्र ही दो वर्ष हो जाएंगे और विश्व आज पर्यावरण के प्रति जितना सचेत है उतना पहले कभी नहीं था।

भारत ने भी विश्व मंच पर पर्यावरण से सम्बद्ध जिम्मेदारियों को पूरा किया है। यूएनसीईडी से सम्बद्ध मांट्रियल समझौते का एजेंडा-21 तैयार करने, वासेल सम्मेलन, जलवायु परिवर्तन सम्मेलन और जैविक विविधता सम्मेलन तथा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इनके कार्यान्वयन में भारत ने सराहनीय भूमिका निभाई।

चूँकि भारत एक विकासशील देश है और इसकी जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहा है, इसलिए इसे अपनी विकास गतिविधियों और पर्यावरण की आवश्यकताओं के बीच संतुलन रखने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। पर्यावरण के नीति निर्धारकों और आम जनता के सहयोग से सरकार विकास एवं पर्यावरण की आवश्यकताओं के मध्य टकराव को कम करने का प्रयास कर रही है। वास्तव में पर्यावरण संरक्षण भारतीय आचार व्यवहार में सन्निहित है, न केवल परम्परागत गाँवों में बल्कि शहरी इलाकों में भी संपोषित जीवन-शैली भारत जैसी प्राचीन संस्कृतियों का अभिन्न अंग रही है। भारतीयों की जीवनशैली प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित किए हुए है और संपोषित रूप से अन्तर्निहित है।

विकासशील देशों में गरीबी की चुनौतियों का सामना करने के लिये औद्योगिकीकरण आवश्यक है। लेकिन विकास कार्यक्रम इस ढंग से नहीं चलाए जाएं कि औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों की तरह उनके पर्यावरण को काफी नुकसान हो और समाज पर बुरा प्रभाव पड़े। औद्योगिक देशों ने औद्योगिकीकरण के प्रक्रिया में विरासत के रूप में प्रदूषण और अवक्रमित पर्यावरण छोड़े हैं। अब सभी लोगों को इनके परिणामों को भुगतना पड़ रहा है। इसके प्रभाव को दूर करने के लिये काफी ऊर्जा की आवश्यकता है।

भारत ने विकास के लिये एक सुविचारित दृष्टिकोण अपनाया है। भारत ने अनुभव किया कि इस समस्या का एकमात्र निदान साफ-सुथरी और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी है और अपना पूरा ध्यान इस तरह की प्रौद्योगिकी अपनाने पर केन्द्रित किया। प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों की स्थापना का अर्थ मशीनरी और प्रक्रिया का आधुनिकीकरण भी है। वास्तव में अपशिष्ट में कमी, प्रदूषण की रोकथाम, ऊर्जा में बचत और संसाधनों की बचत करने वाली प्रौद्योगिकी तथा प्रक्रियाएँ मुनाफे में वद्धि कर सकती हैं और विकसित तथा औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े देशों, दोनों के लिये सामान्य रूप से महत्त्वपूर्ण है। सरकार का प्रयास रहा है कि उद्योग प्रदूषण नियंत्रण जिम्मेदारियों को एक अवसर के रूप में देखें न कि एक बोझ के रूप में। चूँकि प्रोत्साहन देने से उद्योग पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं इसलिए इको मार्क प्रणाली आरम्भ की गयी है। प्रारम्भिक कठिनाइयों के बाद यह प्रणाली युद्धस्तर पर लागू की जा रही है।

विकास उत्प्रेरक


पिछले तीन वर्षों के दौरान पर्यावरण की समस्याओं को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने का प्रयास किया गया है। विकास के रास्ते में बाधा के रूप में नहीं बल्कि उपयुक्त मानदंडों के अनुरूप विकास की गति को सुनिश्चित करने वाले उत्प्रेरक के रूप में। इस दिशा में अनेक कदम उठाए गए हैं। सरकार ने खतरनाक वस्तुओं से मृत्यु होने, चोट लगने या नुकसान पहुँचने की स्थिति में तत्काल राहत उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सार्वजनिक दायित्व बीमा विधेयक लागू किया। पूरे देश में न्यायाधिकरणों की स्थापना की जा रही है। एक व्यापक अभियान सफलतापूर्वक चलाया गया है। ताकि 17 अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली श्रेणियों की औद्योगिक इकाइयों द्वारा पर्यावरण से सम्बद्ध मानदंडों का पालन हो। पर्यावरण का आडिट कराने का कार्य आरम्भ कर दिया गया है।

एक व्यावहारिक और स्वीकार्य राष्ट्रीय संसाधन लेखा प्रणाली विकसित की जा रही है। प्रत्येक वर्ष संसद में आर्थिक सर्वेक्षण के साथ-साथ पर्यावरण सर्वेक्षण प्रस्तुत करने का प्रस्ताव है। इसमें पर्यावरण का क्षरण, उसकी प्रकृति तथा उसे कम करने की रणनीति का उल्लेख होना चाहिए। बुनियादी तर्काधार यह है कि स्वस्थ अर्थव्यवस्था-रुग्ण, अवक्रमित तथा प्रदूषित वातावरण में उन्नति नहीं कर सकती। स्वस्थ विकास के लिये अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी में बेहतर सामंजस्य स्थापित करने के लिये दृढ़ प्रयास जारी हैं।

हरित क्षेत्र का विस्तार


वानिकी के क्षेत्र में किए गए प्रयासों का परिणाम मिलने लगा है, लाक्षणिक और अक्षरतः दोनों रूप में। उपग्रह से लिये गए चित्रों से प्रकट होता है कि पिछले तीन वर्षों में देश में वन क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। यद्यपि यह विस्तार मामूली है फिर भी यह संतोष की बात है। यह लगातार वनरोपण कार्यक्रम के कार्यान्वयन के साथ-साथ वनों की कटाई पर नियंत्रण का परिणाम है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 20 लाख हेक्टेयर भूमि में वनरोपण कार्यक्रम चलाया जाता है।

वन से राजस्व भी प्राप्त होता है। एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष वनों से तीस खरब रुपये मूल्य के वन उत्पाद और राजस्व प्राप्त होता है। यह वाणिज्यिक गतिविधियों या लट्ठों से प्राप्त नहीं होता है बल्कि ईंधन की लकड़ी, चारा और जनजातियों द्वारा एकत्र की गई विभिन्न प्रकार की वन सामग्री जैसे गैर-वाणिज्य उत्पाद से प्राप्त होता है। यह वनों से प्रत्यक्ष सब्सिडी है जो ग्रामीण जनता के जीवन स्तर को संपोषित करती है।

जैविक विविधता का संरक्षण


वन्यप्राणी संरक्षण वन प्रबन्ध के नये स्वरूप का एक अभिन्न अंग बन गया है। वन प्राणियों के प्रति सरकार की वचनबद्धता वनप्राणी (संरक्षण) विधेयक में 1991 में किये गए व्यापक संशोधनों में प्रतिबिम्बित होती है। बाघों के संरक्षण के लिये चलाया जा रहा प्रोजेक्ट टाइगर विश्व में एक खास प्रजाति के संरक्षण के लिये चलायी जा रही सबसे अच्छी और सफल परियोजना है। हाथी परियोजना भी चलायी जा रही है। सरकार सिंहों के रहने के पारम्परिक स्थानों में उनके संरक्षण के लिये अभ्यारण्य स्थापित करने के लिये कदम उठा सकती है। केवल किसी खास प्रजाति के वन्य प्राणी के पृथक संरक्षण पर बल नहीं दिया जाता है- चाहे वह बाघ, सिंह या गैंडा। महत्त्वपूर्ण प्रजातियों के संरक्षण का उद्देश्य उसके प्राकृतिक निवास स्थान, उसके शिकार-आधार तथा वास्तव में पेड़-पौधों, जानवरों और कीड़े-मकोड़ों की सम्पूर्ण पारिस्थितिकी प्रणाली का संरक्षण है। इस तरह यह एक व्यापक जैविक विविधता संरक्षण परियोजना है। राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यप्राणी अभ्यारण्यों के नेटवर्क को मजबूत करने के लिये भारतीय राष्ट्रीय उद्यान प्राधिकरण की स्थापना करने का प्रस्ताव है।

अभूतपूर्व अवसर


अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में, भारत ने व्यापार में गैर-व्यापारिक तत्वों को लाने के प्रयास का कड़ा विरोध किया है। यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पर्यावरण के संरक्षण की आड़ में व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार किए गए कार्यक्रमों को स्वीकार नहीं किया जाएगा। यदि व्यापार में विकासशील देशों को मिलने वाले विभिन्न लाभों को पर्यावरण की आड़ में प्रतिबन्ध लगाकर कम करने के प्रयास किए गए तो यह न केवल विकास के प्रयासों को बुरी तरह प्रभावित करेगा बल्कि पर्यावरण से सम्बद्ध समस्या को और जटिल बनाएगा।

इसलिए प्रयास यह है कि भारत को अधिकतम कोष उपलब्ध कराने के लिये अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर प्रत्येक अवसर का उपयोग किया जाए। ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले तत्वों को समाप्त करने के लिये हुए मांट्रियल समझौते में भारत ने दो अरब डाॅलर का कार्यक्रम तैयार और स्वीकार करवाया। इससे हमारे उद्योगों को प्रत्यक्ष रूप से लाभ मिलेगा। विश्व पर्यावरण सुविधा जी ई एफ में भी भारत उपलब्ध कोष से पूरा फायदा उठाने की स्थिति में है। भारत ने वृहद वानिकी परियोजनाओं के लिए 85 करोड़ डाॅलर की सहायता के लिये विश्व बैंक और अन्य एजेंसियों से बातचीत की है और एक व्यापक राष्ट्रीय वानिकी कार्ययोजना तैयार की जा रही है। वानिकी से सम्बद्ध तथा पारिस्थितिकी विकास कार्यक्रम के सभी पहलू इसमें शामिल हैं।

पर्यावरण के भविष्य को नया रूप देने के लिये अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने इससे पहले पर्यावरण पर कभी भी इतना ध्यान नहीं दिया था, न ही इस तरह का अवसर उपलब्ध था। आज एक तरफ जनता में अधिक जागरुकता है तो दूसरी तरफ देश आर्थिक विकास की ओर बढ़ने की दहलीज पर है। अब अवसरों का भरपूर लाभ उठाने का उपयुक्त समय है।

कमलनाथ
केन्द्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री

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