पारिस्थितिकी विकास की आवश्यकता


एक ओर जनसंख्या वृद्धि की विस्फोटक स्थिति बनी हुई है तथा दूसरी ओर हम प्राकृतिक संसाधनों का अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर गलत तरीके से दोहन कर रहे हैं। नदियों के साफ जल को गन्दा कर रहे हैं, शुद्ध वायु को प्रतिपल अशुद्ध बना रहे हैं, धरती के कृषि योग्य क्षेत्र को निरन्तर घटा रहे हैं। वाहनों से वायुमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं। हमें इस स्थिति से बचने के उपाय सोचने होंगे। आज दिखावे के ढोंग से बचकर अपने ध्येय व दायित्व का निष्ठा व आस्था के साथ क्रियान्वयन करने की जरूरत है।पर्यावरण व शिक्षा एक दूसरे के परम सहयोगी घटक हैं तथा जीवन के साथ चलने वाली सतत प्रक्रिया के परस्पर पूरक अंग हैं। अच्छा व शुद्ध पर्यावरण प्रसन्नता का आधार होता है। प्रकृति हमेशा जीवों पर दया करती है, अपने शृंगार को उनकी प्रसन्नता में लुटाती है लेकिन मनुष्य पल-पल प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है और ऐसा करके इतराता है। प्रकृति की सहनशीलता व क्षमाशीलता का कोई पार नहीं है परन्तु मानव स्वयं ही बार-बार गलतियाँ करके अपने पैरों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मार लेता है।

जीवों और पर्यावरण के बीच पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं। आज यदि हम एक नजर अपने आसपास, गली-मौहल्ला, सड़क, चौराहा, खेत, पार्क आदि स्थानों पर डालें तो पाएँगे कि आज मनुष्य व पर्यावरण (प्रकृति) के बीच सम्बन्ध अच्छा नहीं है क्योंकि आज भौतिक सुखों की लालसा में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का बर्बरतापूर्ण दोहन व प्राकृतिक संसाधनों का बर्बरतापूर्ण दोहन व प्रकृति से मनमानी छेड़छाड़ कर रहा है। इससे पर्यावरण को धीरे-धीरे करके गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। उदाहरण के लिये हाल ही में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने अपने सर्वेक्षण व रपट में प्रदूषण फैलाने में अलवर को देश में चौथे स्थान पर व राजस्थान राज्य में प्रथम स्थान पर माना है। अपने निष्कर्ष में यह भी स्पष्ट इंगित किया है कि यहाँ की वायु में ऑक्साइड का प्रदूषण व्याप्त है जिसका मुख्य कारण हैं-

औद्योगीकरण वृक्षों की बेरहम कटाई व अनियंत्रित खनन प्रक्रिया। इससे सरिस्का बाँध परियोजना के वन्य जीव भी प्रभावित हो रहे हैं। ऐसी चिन्ताजनक व भयावह स्थिति से निपटने के लिये प्रकृति-प्रेमियों, पर्यावरणविदों को आगे आने व पर्यावरणीय विकास कार्यक्रमों को सच्चे मन से क्रियान्वित करने की सख्त आवश्यकता है।

वर्तमान में इस सम्बन्ध के बिगड़ते स्वरूप, सन्तुलन व ताने-बाने को परिष्कृत करने लिये पारिस्थितिकी विकास की खास आवश्यकता महसूस हो रही है। हमें आज पेड़ वृक्षों को बढ़ाने की बेहद जरूरत है। क्योंकि ऐसी भयावह स्थिति में वृक्ष ही हमारी सबसे ज्यादा मदद कर सकते हैं। हम सब मिलकर सघन वृक्षारोपण करके, उद्योगों के जहरीले धुएँ व मलबे को नियंत्रित करके, वनों का कटाव रोक करके पर्यावरण को बचा सकते हैं। पर्यावरण के बचने से ही हम सुरक्षित रह सकते हैं, और यह हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी व नैतिक दायित्व भी है।

एक ओर जनसंख्या वृद्धि की विस्फोटक स्थिति बनी हुई है तथा दूसरी ओर हम प्राकृतिक संसाधनों का अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर गलत तरीके से दोहन कर रहे हैं। नदियों के साफ जल को गन्दा कर रहे हैं, शुद्ध वायु को प्रतिपल अशुद्ध बना रहे हैं, धरती के कृषि योग्य क्षेत्र को निरन्तर घटा रहे हैं। वाहनों से वायुमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं। हमें इस स्थिति से बचने के उपाय सोचने होंगे। आज दिखावे के ढोंग से बचकर अपने ध्येय व दायित्व का निष्ठा व आस्था के साथ क्रियान्वयन करने की जरूरत है। पर्यावरण संरक्षण को एक अहम दायित्व समझकर दृढ़ निश्चय लेने व विश्वसनीयता को पुनः स्थापित करने की प्रबल आवश्यकता है वरना भावी पीढ़ियाँ हमें कतई क्षमा नहीं करेंगी।

मनुष्य व प्रकृति द्वारा सम्बन्धित पारिस्थितिकी तंत्र दो प्रकार का होता है।

1. पहला जलीय- इसमें झील, नदी, तालाब, निर्झर, सागर, खाड़ी, समुद्र आदि होते हैं तथा
2. दूसरे स्थलीय में मैदान, वन, पठार, पर्वत, मरुस्थल, गुफाएँ इत्यादि आते हैं। इनके अलावा मानव निर्मित पारिस्थितिकी तंत्र भी होते हैं जैसे तालाब, नहर, बाँध पार्क, गाँव शहर, खेत इत्यादि।

पदार्थों तथा ऊर्जा की आवश्यकता से अधिक अवांछित उपस्थिति ही पर्यावरणीय प्रदूषण को इंगित करती है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषण में वायु प्रदूषण मुख्य है जिसके आवश्यक घटक कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फाइड, अमोनिया, धूल और धुआँ है। धूल और धुआँ हमारे श्वसनांग को तीव्र गति से प्रभावित करते हैं। इससे सिरदर्द, घबराहट, बेचैनी आदि बीमारियाँ शुरू हो जाती हैं। जल प्रदूषण भी कम खतरनाक नहीं है। यह खेतों में विविध किस्म के रसायनों, उद्योग धंधों के मलबों तथा औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट तथा घरेलू कूड़ा-करकट से बढ़ता है। प्रदूषित जल के सेवन से अनेक प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। मिट्टी प्रदूषण भी हमें बहुत नुकसान पहुँचाता है। यह कारखानों के असीमित कचरे, विविध प्रकार की उर्वरकों, रसायनों, कीटनाशकों दवाइयों आदि से बढ़ता है। इसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण भी फैलता है। यह सड़क पर दौड़ते वाहनों, विस्फोटकों, उद्योगों तथा लाउडस्पीकरों से उत्पन्न शोर से बढ़ता है। अत्यधिक शोर से बेचैनी बढ़ती है, दिल की बीमारी उठती है। कान के पर्दे भी फट जाते हैं। कम सुनना या ऊँचा सुनना तो आम बात हो जाती है। इसलिये हमारे लिये यह चुनौतीपूर्ण स्थिति बन रही है। हमें प्रकृति के अनुपम उपहारों का सही तरीके से इस्तेमाल करना चाहिए। एक बार गाँधी जी ने कहा था कि प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता के लिये हमारी दुनिया में पर्याप्त संसाधन हैं परन्तु उसके लालच के लिये नहीं है। हमें यह सोचना होगा कि हम प्रकृति से कितना ग्रहण करें कि जो हमारे गुजारे के लिये आवश्यक हो।

पर्यावरण की दृष्टि से विकृत क्षेत्र के पुनरुद्धार करने, बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम करने, पर्यावारण विकास, संरक्षा व जनचेतना जागृत करने के लिये पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी विकास शिविर आयोजित करने की आवश्यकता है। इस कार्य को प्रगति देने के लिये इसे जन आन्दोलन का स्वरूप देने की जरूरत है। पारिस्थितिकी विकास शिविर के आयोजन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हो सकते हैं-

1. गाँव, शहर, स्थान, क्षेत्र को प्रदूषण मुक्त, हरा-भरा व शुद्ध बनाना,
2. छात्र-छात्राओं, समाज व जनसाधारण को पर्यावरण सम्बन्धी जानकारी देना,
3. युवा शक्ति को पर्यावरण सुधार की ओर उन्मुख करना,
4. पर्यावरण संरक्षण के महत्व एवं प्राकृतिक संसाधनों के उचित प्रयोग की भावना जगाना,
5. समाज के लोगों का रहन-सहन, खान-पान, क्रिया-कलाप आदि प्रकृति के अनुकूल बनाने का भाव जागृत करना।
6. युवा पीढ़ी एवं जन साधारण में राष्ट्रीय एवं भावनात्मक एकता की भावना उत्पन्न करना।

प्रकृति हमारे जीवन को विविध स्वरूपों व आयामों से प्रभावित करती है। हम पूर्ण रूपेण प्रकृति पर निर्भर हैं फिर भी हम उसके साथ अच्छा सलूक नहीं कर रहे हैं। यदि ऐसी ही स्थिति चलती रही जो आगे के कुछ ही वर्षों में प्रकृति भयावह व विकृत रूप धारण कर लेगी। उस समय हमारा जीना-हँसना, खाना-पीना सब कुछ नीरस व दूभर हो जाएगा। इसलिये हमें अब भी चेत जाना चाहिए। सावधान व सतर्क हो जाने में ही भलाई है। हमें अपनी प्रतिभा, क्षमता के मुताबिक पर्यावरण सुधार के लिये जी-तोड़ प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिए। हमें इसकी शुरुआत घर, पड़ोस, मोहल्ला से शुरू करनी चाहिए। हमें पौधे व वृक्ष लगाने, उनकी सुरक्षा (फैसिंग) करने, उन्हें संरक्षण देने का पुनीत दायित्व वहन करने का संकल्प हृदय में बिठाना होगा, एक समर्पित कार्यकर्ता बनना होगा। इस योगदान के लिये अधिक-से-अधिक लोगों को अभिप्रेरित करना होगा, उनका समुचित सहयोग व कुशल मार्गदर्शन लेना होगा। विविध गतिविधियों व कार्यक्रमों के माध्यम से (विकास, शिविर, गोष्ठी, चर्चाएँ आदि) उचित व रचनात्मक स्वरूप प्रदर्शित करना होगा। ऐसा करके ही हम भावी पीढ़ी के भविष्य को बचाने का एक सपना आलोकित रख सकते हैं और उज्ज्वल व प्रदूषण मुक्त सवेरे की आस लगा सकते हैं।

वर्तमान में मानव ने अपने अथाह स्वार्थ में डूबकर, लालच में सुविधाभोगी संस्कृति में अन्धे होकर प्रदत्त संसाधनों का मनमाने तरीके से व अनुचित शैली में दोहन करके पृथ्वी पर पर्यावरणीय असन्तुलन को बढ़ाया है। उसने जल, वायु, भूमि को प्रदर्शित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, यहाँ तक कि ध्वनि, आध्यात्म, संस्कृति, वैचारिकी, प्रदूषण को भी अपनाया है। अशिक्षा, होड़ प्रवृत्ति, बढ़ती जनसंख्या। मन की तृष्णा, भविष्य के प्रति लापरवाही, प्रकृति प्रेम व जन जागृति की न्यूनता इसमें सहायक बनी है। इस अविरल प्रदूषित होते पर्यावरणीय वातावरण को रोकने, पारिस्थितिकी के प्रति जन चेतना जागृत करने, विखंडित क्षेत्र का भौतिक सुधार करने, लोगों में मानसिक जागरुकता उत्पन्न करने, सजीवों में प्रकृति के बीच मधुर सम्बन्ध स्थापित करने, पारिस्थितिकी विकास शिविर आयोजित करने, गोष्ठियाँ, चर्चाएँ, सेमीनार व रचनात्मक पहलू उजागर करने की सख्त जरूरत है। मन की तृष्णा पर काबू रखने, पौधे आने व वृक्षारोपण करने, उन्हें संरक्षण देने, खनन कार्य को मर्यादित रखने, धुआँ व मलबे को नियंत्रित रखने, प्राकृतिक संसाधनों के सदुपयोग करने, वृक्ष मित्र (रूख शायला) बनने, छात्रों, युवाओं व जन सामान्य को इस आन्दोलन से जोड़ने की परम आवश्यकता है। हमें पारिस्थितिकी विकास को प्रगाढ़, सार्थक, जनोपयोगी बनाने के दृढ़ संकल्प को साँसों में बसाने की परम आवश्यकता है।

बी-3 स्टाफ क्वार्टर्स, केन्द्रीय विद्यालय परिसर, मोती डूंगरी के नजदीक, अलवर (राजस्थान) 30100

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