पारम्परिक बनाम आधुनिक कृषि शिक्षा प्रणाली

5 Feb 2016
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मौसम में बदलाव, उसके कारण अकाल, बाढ़, खेतों में बार-बार बिजली गिरने से किसानों की होती मौतें, महंगी खेती, किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ और किसानों का पलायन यह सब भारत के लिये अशुभ संकेत हैं और हमें सोचने के लिये मजबूर कर देते हैं कि क्या हमारी कृषि शिक्षा प्रणाली का पुनर्मूल्यांकन जरूरी नहीं है?

अतीत को खंगालने से पता चलता है कि भारत कभी भी कृषिप्रधान देश नहीं था। ये तमगा तो अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिये हमारे ऊपर लगाया है और उसका भरपूर उपयोग पश्चिमी राष्ट्रों ने हम पर भीमकाय उद्योग लगाकर लिया।

हमारा देश प्रारम्भ से ही उद्योेग प्रधान देश रहा है। हर गाँव में, घर-घर में छोटे-छोटे उद्योग चलते थे जो हमारी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिये पर्याप्त थे। तब हमारा समाज बड़ा था और उद्योग छोटे थे इसलिए वे उद्योग नियंत्रण में थे। गाँव में जो कारीगर थे उनकी जरूरतें अन्न बाँटकर पूरी कर ली जाती थी और खाद्यान्न बिकता नहीं था। अन्न बहुकुर्विता (अधिक अन्न उपजाओ) हमारी प्रार्थना हुआ करती थी ताकि अपनी संतुष्टि होने के बाद बचा हुआ दान हो सके। फसल काटने के पहले भी किसान इदं न मम (यह मेरा नहीं है) की भावना से फसल काटकर घर में लाता था। हमारे समाज में धनसंग्रह करने वाले भी थे और उन्हें धन से विमुख करने वाले साधु, संत और सूफी भी हुआ करते थे जिन्हें प्रेम से खाना खिलाया जाता था। फिर वह मंदिरों में हो, मस्जिदों में हो या गुरुद्वारे में। यही चीज अंग्रेजों को रास नहीं आती थी। उन्होंने संदर्भित राजाओं को हिदायत भी दी थी चूँकि यही हमारी संस्कृति थी लिहाजा राजाओं ने उनकी बात मानने से मना कर दिया था। नाराज होकर अंग्रेजों ने उनकी शासकीय मदद में कटौती कर दी और किसानों पर लगान शुरू कर दिया।

हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था इतनी वैज्ञानिक और सुदृढ़ थी कि आम लोगों के लिये भरपूर अनाज के अलावा हर गाँव में चरणोई और तालाब हुआ करते थे। चरणोई का स्थान भी बारह वर्षों बाद बदल दिया जाता था और चरणोई कमजोर खेत में ली जाती थी ताकि वहाँ पशुओं के गोबर और गौमूत्र से वह खेत उर्वरक हो जाए और जहाँ पहले चरणोई हुआ करती थी वहाँ अनाज लगाया जाता था।

आज जिस अन्न सुरक्षा को लेकर वैश्विक संकट है वह हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी थी जिसे अंग्रेजों ने तोड़ा और अपने देश की मिलों का पेट भरने हमारे किसानों से कपास, गन्ना और नील की खेती करवाई। अपने जहाजों के लिये उन्होेंने बड़े पैमाने पर जंगल कटवाये। इतना ही नहीं जो तिलहनी फसलों की खली किसान पशुओं को खिलाते थे या भूमि में पुनः डालते थे उसे भी मुद्रा का लालच देकर निर्यात करवाया गया जिससे किसानों की भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो गई।

अंग्रेजों के जाने के बाद भी वही सिलसिला चलता रहा। आज भी बड़े पैमाने पर सोयाबीन की खली का निर्यात हो रहा है और दिन-ब-दिन जिवांश कम होने से भूमि मर रही है। स्वतंत्रता मिलने के बाद जितने कृषि महाविद्यालय इस देश में प्रारम्भ हुए उनमें जैविक खादों को छोड़ रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर अनुसंधान चलते रहे जिससे किसान खेतों से बेदखल होते गए।

यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिन पाठ्यक्रमों का कुछ ईमानदार अंग्रेज अधिकारी और वैज्ञानिकों ने ही विरोध किया था उनकी पूरी अनदेखी हमारे भारतीय राजनेताओं और योजनाकारों ने की। सन 1871 में पहला कृषि महाविद्यालय सांईदास पेठ (मद्रास-चेन्नई) में और दूसरा सन 1876 में पुणे के विज्ञान महाविद्यालय में आंशिक रूप से प्रारम्भ हुआ था। उन दिनों बाम्बे प्रेसीडेंसी के कर्ताधर्ता डब्ल्यु. आर. राबर्टसन ने इन महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम देखकर अपनी राय दी थी कि ये पाठ्यक्रम इंग्लैंड की खेती के लिये उपयुक्त है क्योंकि कोई भी भारतीय किसान खेतों में गाद भरना, अमोनियम सल्फेट डालना, जानवरों को सूखा चारा खिलाना और गायों को मोटा नहीं करता है फिर ये पाठ्यक्रम यहाँ क्यों लागू किया जा रहा है। यदि यह पाठ्यक्रम लागू किया गया तो यहाँ से निकला कोई भी विद्यार्थी खेतों में नहीं जाएगा। वह 50 रु. माहवार की नौकरी करना पसंद करेगा।

इसी प्रकार सर अलबर्ट हाॅवर्ड ने 1940 में लंदन में प्रकाशित उनकी पुस्तक एग्रीकल्चरल टेस्टामेंट (खेती का वसीयतनामा) में यह बात लिखी थी कि यहाँ के काॅलेजों से निकले वैज्ञानिक जैविक खादों को छोड़ रासायनिक खादों पर यदि अनुसंधान करने लगे तो किसान खेतों से बाहर हो जाएँगे। सर हाॅवर्ड ने तो यह भी कहा था कि खेतों का भविष्य ऐसे गिने चुने पुरुष महिलाओं के हाथों में सौंपना चाहिये जिन्होंने सचमुच अनुसंधान कर उसे व्यावहारिक रूप दिया हो। विज्ञान और व्यवहार का तालमेल होना चाहिये।

क्यों जरूरी है कि बैंकों का कई लाख करोड़ रुपया हजम करने वाले बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों से ही हम वो चीजें क्यों उत्पादित कराएँ जो हमारे गाँवों में आसानी से पैदा होती थी। गाँव-गाँव में किसानों के समूह आज किसान कम्पनी बनाकर वे चीजें उत्पादित कर रहे हैं जो शुद्ध और सस्ती हैं। इन उत्पादों का कच्चा माल तो खेतों में ही पैदा होता था और आज भी हो सकता है। शीतपेय, सौंदर्य प्रसाधन, तेल, साबुन, पौष्टिक नाश्ता ये सब किसान आसानी से खेतों में ही तैयार कर सकता है। कृषि महाविद्यालयों को नाम मात्र फसलों पर अनुसंधान करने के बजाय उन फसलों पर और उनसे उत्पादित कुटीर उद्योगों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए जिससे किसान, गाँव दोनों समृद्ध होंगे और अन्ततः देश भी।

श्री अरुण डिके कृषि वैज्ञानिक हैं और सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के अलावा जैविक, स्थानीय तथा सस्ते संसाधनों के आधार पर कृषि की वकालत करने वाले इंदौर के एक सक्रिय समूह से जुड़े हुए हैं।

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