पेरिस जलवायु सम्मलेन और भारत की चिन्ता

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ मिलकर पेरिस में अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन का शुभारम्भ किया और विकसित व विकासशील देशों को साथ लाने वाली इस पहल के लिये भारत की ओर से तीन करोड़ डालर की सहायता का वादा किया।

मोदी ने कहा कि भारत कम कार्बन छोड़ने की हर कोशिश कर रहा है, विकसित देशों को बड़ी जिम्मेदारी लेनी होगी। पेरिस के जलवायु सम्मेलन में कई देशों ने ज्यादा कार्बन छोड़ने वाले देशों पर टैक्स लगाने की माँग की।

जलवायु सम्मेलन में सौ देशों ने मिलकर सोलर अलायंस बनाया व सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये 180 करोड़ रुपए की राशि देने का भी एलान किया। साथ ही 2030 तक 35 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कटौती की बात कही। कार्बन उत्सर्जन भारत के लिये बड़ी समस्या है।

देश में ग्लेशियर पानी का बड़ा स्रोत है। इन्हें बचाने के लिये न केवल हिमालय, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास करने होंगे। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस मुद्दे को गम्भीरता से लिये जाने पर बल देना होगा। क्योंकि इस लापरवाही से समुद्र का जलस्तर बढ़ने से समुद्र तटीय क्षेत्रों के और कुछ द्वीपों के समुद्र में डूब जाने का भी खतरा पैदा होने वाला है।

ग्लेशियर यदि 2050 तक खत्म हो गए, जैसा कि अन्देशा पैदा हो गया है, तो सदानीरा नदियाँ बरसाती बन कर रह जाएँगी। कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर विश्व उत्तरी विकसित देशों और दक्षिणी विकासशील देशों के दो खेमों में बँट गया है।

विकसित देश चाहते हैं कि अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को नियंत्रित किये बिना विकासशील देशों में वनीकरण द्वारा कार्बन का स्तर कम करने के लिये आर्थिक मदद देकर अपनी ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा लिया जाये।

अमेरिका तो इस मामले में बिल्कुल अड़ियल रुख अपना लेता है। उसकी कोशिश रहती है कि तेज गति से बढ़ रही भारत और चीन की अर्थव्यवस्था को ताजा नुकसान का दोषी ठहराने पर जोर दिया जाये। विकासशील देशों का तर्क है कि हमारे यहाँ आपके मुकाबले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, जिसे कार्बन पदचिह्न भी कहा जाता है, बहुत कम है।

अत: अभी हमें कार्बन पदचिह्न बनाने की छूट दी जानी चाहिए, ताकि हम मानव विकास सूचकांक में बहुत जरूरी विकास की स्थिति में पहुँच सकें। इस तर्क में भी बल है, लेकिन अन्त में तो पृथ्वी की धारण क्षमता का सवाल महत्त्वपूर्ण है।

जलवायु परिवर्तन का सामना करने के दो ही तरीके हैं। पहला है निम्नीकरण यानी जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार कम करते जाना और एक सीमा से आगे न बढ़ने देना।

इसके तहत हमें बिजली उत्पादन के क्षेत्र में और तमाम ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति के स्वच्छ तरीकों को अपनाना पड़ेगा। इसके लिये सौर व पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों की ओर कदम बढ़ाए जा सकते हैं।

प्राकृतिक तेल और कोयले से ऊर्जा को हतोत्साहित करना पड़ेगा। बड़े बाँधों से मीथेन गैस निकलती है। अत: जल विद्युत उत्पादन की हाइड्रोकाइनेटिक और वोरेटेक्स जैसी बेहतर तकनीकों को अपनाना पड़ेगा

ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से वायुमंडल में उनकी मात्रा निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। ये गैसें सूर्य की गर्मी के बड़े हिस्से को परावर्तित नहीं होने देती हैं, जिससे गर्मी की जो मात्रा वायुमंडल में फँसी रहती है, उससे तापमान में वृद्धि हो जाती है। पिछले 20 से 50 वर्षों में वैश्विक तापमान में करीब एक डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हो चुकी है।

खेतीबाड़ी के कार्य में रसायनों की बढ़ती घुसपैठ से पर्यावरणीय तंत्र पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिये भी प्रयास करने होंगे। जैविक कृषि से मिट्टी में जैविक पदार्थ जितना ज्यादा बढ़ता है, उतना ही कार्बन तत्त्व मिट्टी में समाता जाता है। इससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन की मात्रा कम होती जाती है। रासायनिक कृषि इससे उल्टी भूमिका निभाती है। जैविक-वैज्ञानिक कृषि ने रासायनिक कृषि को पछाड़ने की क्षमता सिद्ध कर दी है। हिमालय क्षेत्र में यह वृद्धि सामान्य से कुछ ज्यादा है। यह एक विदित तथ्य है कि हिमालय क्षेत्र अति संवेदनशील क्षेत्र है। अत: यहाँ हमें ज्यादा सावधान होने की जरूरत है। तापमान वृद्धि के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के लक्षण व उससे होने वाली तबाही विश्व भर में चिन्ता का विषय बन चुकी है।

हर देश इस परिवर्तन और इसके सम्भावित खतरों से भलीभाँति परिचित है। लिहाजा समय-समय पर विभिन्न देश एक मंच पर आकर जलवायु परिवर्तन के कारणों और इसके समाधान पर मंथन करते रहे हैं।

इसके बावजूद इन तमाम प्रयासों के असरदार परिणाम अभी तक सामने नहीं आ सके हैं। यूरोप और अमरीका की भयानक और औसत से ज्यादा सर्दियाँ और बफीर्ले तूफान, ध्रुवीय ग्लेशियरों का पिघलना, जिससे समुद्र की सतह में होने वाली बढ़ोतरी, हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना, वर्षा का ढाँचा गड़बड़ाना यानी अतिवृष्टि-अनावृष्टि से बाढ़ व सूखे का बढ़ता प्रकोप वैश्विक चिन्ता का विषय बन चुके हैं। यह समय समस्त मानव जाति के लिये सम्भल जाने का है।

इस परिस्थिति का सामना करने के दो ही तरीके हैं। पहला है निम्नीकरण यानी जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार कम करते जाना और एक सीमा से आगे न बढ़ने देना। इसके तहत हमें बिजली उत्पादन के क्षेत्र में और तमाम ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति के स्वच्छ तरीकों को अपनाना पड़ेगा। इसके लिये सौर व पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों की ओर कदम बढ़ाए जा सकते हैं।

प्राकृतिक तेल और कोयले से ऊर्जा को हतोत्साहित करना पड़ेगा। बड़े बाँधों से मीथेन गैस निकलती है। अत: जल विद्युत उत्पादन की हाइड्रोकाइनेटिक और वोरेटेक्स जैसी बेहतर तकनीकों को अपनाना पड़ेगा। ट्रांसपोर्ट व्यवस्था में भी वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों, जैसे सौर ऊर्जा, एथनोल ईंधन, हाइड्रोजन ईंधन की ओर जाना पड़ेगा।

वर्तमान भारत सरकार ने भी ऊर्जा के इन सुरक्षित स्रोतों के मायने समझते हुए वर्ष 2022 तक भारत में एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य लेकर चल रही है। पर्यावरणीय संकटों को ध्यान में रखते हुए यह केन्द्र सरकार की एक स्वागत योग्य पहल मानी जाएगी। बड़े पैमाने पर उत्पादन से सौर ऊर्जा उत्पादन का प्रति यूनिट खर्च भी कम होता जाएगा।

इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि ग्रामीण स्तर पर लगी सोलर लाइटों की देखभाल या मरम्मत पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता। इसी का परिणाम है कि उनकी आयु दो-तीन वर्ष ही रह जाती है, जो कि 12 से 16 वर्ष होनी चाहिए। इस दोष के निवारण हेतु भी हमें गम्भीरता से विचार करना होगा। पंचायतों को कुछ धनराशि देकर यह ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती है।

इन कार्यों के लिये रिसर्च कार्य को भी उच्च प्राथमिकता और पर्याप्त धनराशि उपलब्ध कराना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को भी बेहतर तकनीक अपनाने के लिये प्रोत्साहित और बाध्य करना पड़ेगा। कृषि क्षेत्र में भी पूरी तरह से वैज्ञानिक शोध एवं ज्ञान पर आधारित जैविक कृषि को अपनाना होगा।

खेतीबाड़ी के कार्य में रसायनों की बढ़ती घुसपैठ से पर्यावरणीय तंत्र पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिये भी प्रयास करने होंगे। जैविक कृषि से मिट्टी में जैविक पदार्थ जितना ज्यादा बढ़ता है, उतना ही कार्बन तत्त्व मिट्टी में समाता जाता है। इससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन की मात्रा कम होती जाती है।

रासायनिक कृषि इससे उल्टी भूमिका निभाती है। जैविक-वैज्ञानिक कृषि ने रासायनिक कृषि को पछाड़ने की क्षमता सिद्ध कर दी है। वायुमंडल में जलाया जाने वाला कचरा व गोबर को सड़ाने की पारम्परिक विधियों से कचरा जलाने से कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में जाती है और गोबर की मीथेन गैस भी वायुमंडल में जाकर ग्रीन हाउस गैसों का स्तर बढ़ाती है।

कोप 21 पेरिसयदि हम सड़ने वाले कचरे को और गोबर को पूरी मात्रा में बायो गैस संयंत्रों में सड़ाएँ तो उससे मीथेन गैस प्राप्त करके उससे रसोई गैस बनाने का कार्य या ऊर्जा के अन्य कार्य किये जा सकते हैं। अन्य प्लास्टिक कचरे को पूर्णत: इकट्ठा करके उससे डीजल बनाया जा सकता है। जहाँ इस कचरे का पुन: चक्रीकरण सम्भव न हो, वहाँ इसे उच्च गुणवत्ता वाले इनसिनरेटर में ही जलाना चाहिए।

इससे केवल पाँच-दस प्रतिशत ही धुआँ निकलता है, शेष जल जाता है। इससे बिजली भी बन जाएगी, जिससे दूसरे ईंधन जलाने की जरूरत कम होगी। गाँवों में प्लास्टिक कचरे को लेकर हालत बहुत खराब है। हर कहीं इसे खुले में जलाया जा रहा है।

गाँवों में पंचायतों को विशेष बजट देकर सड़ने वाले कचरे को बायोगैस में प्रयोग करके गैस और खाद दोनों बन सकते हैं। इससे पंचायत को कुछ आय भी होगी और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव से भी बचा जा सकेगा।

जो प्लास्टिक कचरा पुन: चक्रीकरण के लिये न ले जाया जा सके, उसे जलाने के लिये उच्च ज्वलनशीलता वाले गैसीफायर चूल्हे, जिनमें ज्वलनशीलता बढ़ाने के लिये पंखा भी लगा होता है, पंचायतों को उपलब्ध करवाने चाहिए।

पंचायतों को ऐसे जनहित के कार्यों के लिये पर्याप्त समय मिले, इसके लिये न्याय पंचायतों का अलग से गठन होना चाहिए, जैसा 1970 के दशक में हिमाचल प्रदेश में पहले भी था। दूसरा तरीका है अनुकूलन यानी जितना जलवायु परिवर्तन होना रोका नहीं जा सकता, तो उस बदली परिस्थिति के अनुसार खुद को और व्यवस्था को ढाला जाये।

यह दीगर है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर कृषि, वनों और बाढ़ बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आएगा। इन हालात में कृषि में ऐसी फसलों को प्रोत्साहन देना होगा, जो कम पानी माँगती हैं।

जैविक कृषि भी जल संरक्षण में काफी हद तक सहायक होती है। पुरानी कुछ फसलें जैसे कोदा, बाजरा, कंगनी और ढलानदार जमीनों में मक्की की तरह हो सकने वाला सूखा धान राहत दे सकते हैं। वनों में भी गहरी जड़ और चौड़ी पत्ती के बहु उपयोगी वृक्ष लगाने चाहिए। इस किस्म के वृक्ष जल संरक्षण करने के साथ-साथ और सूखे से निपटने की भी बेहतर क्षमता रखते हैं।

फल और चारे के रूप में मनुष्यों व पशुओं को खाद्य सुरक्षा भी प्रदान कर सकते हैं। इसके साथ ही अतिवृष्टि से निपटने की हमारी तैयारियाँ भी बेहतर स्तर पर होनी चाहिए। प्राकृतिक जल निकास स्थलों व नदी-नालों के किनारे बेतरतीब भवन निर्माण से हर हालत में बचना होगा। ऐसी कुछ सावधानियों से हम अपने और वैश्विक सुरक्षित भविष्य के निर्माण में भागीदार बन सकेंगे।

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