पेस्टीसाइड्स कंपनियों के साथ धंधा करने वाले लोग

12 Feb 2013
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सीएसई द्वारा पेस्टीसाइड्स और जहरीले रसायनों के ऊपर जो अध्ययन जारी है उससे पेस्टीसाइड्स कंपनियों को बहुत बड़ा झटका लगा है। सीएसई द्वारा अपने अध्ययन में पेस्टीसाइड के ज़हरीला साबित होने से पेस्टीसाइड्स कंपनियां सीएसई के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर एनजीओ स्तर के विरोध का सहारा ले रही हैं। पेस्टीसाइड्स से न केवल हमारे शरीर को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि इससे हवा, पानी और ज़मीन भी ज़हरीली होती जा रही है। इन्हीं पेस्टीसाइड्स और जहरीले रसायनों के कारण ही पंजाब के किसानों के खून में कैंसर पाया गया है और केरल के पद्रे गांव की ज़हरीली ज़मीन का कारण भी पेस्टीसाइड्स हैं। अपने अध्ययनों द्वारा साबित हुए पेस्टीसाइड के खिलाफ हो रहे विरोध के बारे में बता रही हैं सुनीता नारायण।

कुछ साल पहले पेस्टीसाइड एसोसिएशन ऑफ इंडिया जो अब फसल सुरक्षा फेडरेशन के नाम से जाना जाता है उसने केरल में पद्रे के डाक्टर वाई एस मोहन कुमार को एक नोटिस भेजा कि उनके कारण पेस्टीसाइड कंपनियों को नुकसान हो रहा है। उनका दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने केरल के पद्रे गांव में पेस्टीसाइड कंपनियों के दुष्प्रभाव से निपटने के लिए दिन-रात काम किया और लोगों का मानसिक तथा शारीरिक उपचार कर रहे थे। केरल का पद्रे गांव ऐसी जगह है जहां हर घर पेस्टीसाइड कंपनियों के कहर से त्रस्त है। यह सब लिखते हुए भी मुझे इस बात का अंदाज़ और अंदेशा है कि पेस्टीसाइड कंपनियां शांत नहीं बैठेंगी। हो सकता है वे मेरे ऊपर नये सिरे से हमले की योजना बना रही हों। इसी साल अप्रैल के पहले हफ्ते की बात है। नई दिल्ली में मेरे दफ्तर सीएसई के सामने प्रदर्शनकारियों का एक समूह आ खड़ा हुआ। उनके हाथ में मेरे खिलाफ लिखे गये नारों की तख्तियां थीं। वे लोग मेरे खिलाफ नारे लगा रहे थे। हम लोगों को पक्का यकीन था कि यह विरोध प्रायोजित था और ऐसे विरोधों का सच भी हम खूब समझते हैं। हमने पेस्टीसाइड्स और जहरीले रसायनों के ऊपर जो अध्ययन जारी किया है उससे पेस्टीसाइड्स इंडस्ट्री को झटका लगा है। उनका व्यावसायिक हित प्रभावित हो रहा है तो जाहिर है वे हमें रोकने के हर तरीकों का इस्तेमाल करेंगे। लेकिन हम ऐसा क्या कर रहे हैं जिसे वे होने नहीं देना चाहते? पिछले कुछ सालों से लगातार पेस्टीसाइड इंडस्ट्री सीएसई के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करने से लेकर एनजीओ स्तर के विरोध का सहारा ले रहा है। इसके मूल में कारण यह है कि सीएसई ने अपने प्रयोगों के द्वारा यह साबित कर दिया है कि पेस्टीसाइड खाने के साथ केवल हमारे शरीर को ही खराब नहीं कर रहे हैं बल्कि वे धीरे-धीरे हवा पानी और ज़मीन में भी घुल मिल रहे हैं। हवा पानी और मिट्टी में पेस्टीसाइड्स और जहरीले रसायनों के मिलने से तात्कालिक नुकसान के साथ-साथ दीर्घकालिक प्रभाव भी होंगे। पंजाब के किसानों के खून में फैलते कैंसर का जिम्मेदार भी पेस्टीसाइड है और केरल के पद्रे गांव की ज़हरीली ज़मीन का कारण भी पेस्टीसाइड ही है। इन बातों को जनहित में उठाने और प्रामाणिकता के साथ कहने के लिए तर्क से ज्यादा साहस की जरूरत थी क्योंकि देश की पेस्टीसाइड इंडस्ट्री संप्रभु लोगों के हाथ में है और ये संप्रभु लोग अपने फायदे में किसी भी प्रकार के ख़लल को भला क्यों बर्दाश्त करेंगे?

शोध और अध्ययन के दौरान ही हमें पेस्टीसाइड लॉबी की ओर से दर्जनों नोटिस मिली। प्रमाण सहित हमने हर नोटिस का जवाब दिया। लेकिन हमारे द्वारा दिये गये जवाबों पर कंपनियों द्वारा कभी किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं दिखाई गयी। साफ है वे हमारे द्वारा किये जा रहे शोध को प्रभावित करना चाहते थे और उसके लिए उन्होंने हर तरह के हथकण्डे अपनाना शुरू कर दिया था। अब ताज़ा विरोध हमारे दफ्तर के सामने था। हमने इस विरोध का विरोध करने की कभी कोशिश नहीं की। लोकतंत्र में सबको प्रजातांत्रिक तरीकों से अपनी बात कहने का हक है और इस विरोध को भी हमने उसी तरह से लिया। लेकिन एक दिन एक पत्रकार जो अक्सर सीएसई आते रहते हैं उन्होंने एक प्रदर्शनकारी को पहचान लिया। उन्होंने उसके बारे में जो जानकारी दी वह चौंकाने वाली थी। वह तथाकथित प्रदर्शनकारी कुछ दिनों पहले उस पत्रकार से मिला था। उन दिनों वह एक बिस्कुट कंपनी के लिए लॉबिंग कर रहा था और सरकार पर दबाव डालने के काम में लगा हुआ था कि सरकार प्रसंस्कृति खाद्यान्न को बढ़ावा दे।

यह हमारे लिए चौंकाने वाली बात थी। क्या भारतीय उद्योगों की भारतीय समाज और बाजार में यही पकड़ है कि वे अपने विरोध के लिए भी लोगों को किराये पर लेते हैं। अगर ताक़तवर पेस्टीसाइड इंडस्ट्री जनहित की दुहाई दे रही है तो क्या उस जनसमुदाय में पांच लोग भी नहीं मिले जो उसके सही काम के समर्थन में 'गैरजिम्मेदार' सीएसई के विरोध के लिए यहां आते। अभी तक हम यह तो देखते आये हैं कि अमेरिका जैसे कंपनी संचालित देश में कंपनियां अपना काम करवाने के लिए लॉबिंग और खरीदे गये लोगों के सहारे प्रदर्शन आदि का सहारा भी लेती रही हैं लेकिन क्या यह सब अब भारत में भी शुरू हो गया है? हमने तय किया कि हम इस विरोध की भी जांच करेंगे।

हमने पता करना शुरू किया तो पता चला कि मुंबई में एक छोटे से ऑफ़िस से यह मीडिया एक्सप्रेशन कन्सोर्टियम काम करता है। इस पीआर ग्रुप का मुख्य काम कंपनियों के लिए फ़र्ज़ी प्रदर्शनों से लेकर मीडिया लॉबिंग तक हर तरह के काम करना है। हमारे सीएसई के प्रतिनिधि ने बातों-बातों में उससे जानना चाहा कि वह किन लोगों के लिए काम करता है तो उसने बड़े गर्व के साथ कहा कि देश की नामी गिरामी पेस्टीसाइड कंपनियों से लेकर बिस्कुट इंडस्ट्री में उसके कई सारे ग्राहक हैं जिसके लिए वह काम करता है। उसने बड़े गर्व के साथ कहा कि सीएसई के सामने जो प्रदर्शन हुआ था वह उसकी पीआर कंपनी ने ही आयोजित किया था लेकिन एक ही सांस में वह यह भी बताने से नहीं चूका कि उसको ऐसे विरोधों से कुछ लेना-देना नहीं है। यानी उसने सिर्फ अपने ग्राहक के कहने पर इस तरह का प्रदर्शन करवाया और अपना बिल वसूल लिया। भारतीय लोकतंत्र में यह पूँजी का नया व्यावसायिक चेहरा है जहां विरोध और प्रदर्शनों को भी पैसे के बदौलत ख़रीदा या बेचा जा सकता है।

कुछ साल पहले पेस्टीसाइड एसोसिएशन ऑफ इंडिया जो अब फसल सुरक्षा फेडरेशन के नाम से जाना जाता है उसने केरल में पद्रे के डाक्टर वाई एस मोहन कुमार को एक नोटिस भेजा कि उनके कारण पेस्टीसाइड कंपनियों को नुकसान हो रहा है। उनका दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने केरल के पद्रे गांव में पेस्टीसाइड कंपनियों के दुष्प्रभाव से निपटने के लिए दिन-रात काम किया और लोगों का मानसिक तथा शारीरिक उपचार कर रहे थे। केरल का पद्रे गांव ऐसी जगह है जहां हर घर पेस्टीसाइड कंपनियों के कहर से त्रस्त है। कंपनियां अपनी ज़िम्मेदारी समझकर गलती महसूस करती इसकी बजाय वे गलढिठाई और बत्तमीजी पर उतर आयी है। वाई एस मोहन कुमार के बाद अब कंपनियों का ताज़ा शिकार एक रिटायर्ड वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने अपनी खोजबीन में पद्रे में किसानों की बर्बादी के लिए केमिकल और पेस्टीसाइड कंपनियों को दोषी पाया है।

यह सब लिखते हुए भी मुझे इस बात का अंदाज़ और अंदेशा कि है कि पेस्टीसाइड कंपनियां शांत नहीं बैठेंगी। हो सकता है वे मेरे ऊपर नये सिरे से हमला करने की योजना बना रही हों। पिछले हफ्ते उन्होंने मेरे घर पर भी धावा बोल दिया और मेरी चाची और मेरी 80 साल की मां को परेशान किया। लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं। बहुत कुछ दाँव पर लगा है। देश के असंख्य लोगों के हितों की रक्षा के लिए कुछ हड्डियाँ टूटती भी हैं तो क्या फर्क पड़ता है?

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