पेट तक पहुँचेगा पर्यावरण ताप


शोध, अध्ययन और प्रयोगों के आधार पर कहा जा सकता है कि जल्द ही संसार के अधिकतर लोगों का भोजन तकरीबन पूरी तरह प्रसंस्कृत या प्रयोगशाला से निकला होगा। पेड़ या खेत से आये भोजन की अपेक्षा लोग फैक्टरी या मशीन से निकले खाने को खाएँगे। धान, गेहूँ जैसी फसलों की ऐसी प्रजातियों को विकसित किया जा चुका है, जो विषम परिस्थितियों में भी उपजाई जा सकेंगी और बेहतर उत्पादन भी देंगी। उधर बिना दुधारु जानवर के केसीन और अंडे देने वाली मुर्गी के बिन एल्ब्यूमिन तैयार कर क्रमशः दूध और अंडे की कमी पूरा करने की तैयारी पूरी है। भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के चलते हालात बदतर होने वाले हैं। यह बदलाव हमारी खानपान को भी पूरी तरह बदल देगा। दाल, चावल, रोटी की जगह भविष्य में थाली में ऐसे खाद्य पदार्थ दिखेंगे, जिनसे हम अनजान हैं या जिन्हें अखाद्य मानते हैं।

वैश्विक ताप और पर्यावरण में बदलाव का प्रभाव हमारे पेट पर पड़ने वाला है, जिसके चलते अगले दो दशकों में हमारी थाली में जो भोजन होगा वह खेत से नहीं फैक्टरी से निकला होगा। बदला हुआ पर्यावरण जल्द ही हमारी खानपान की प्राथमिकता को पूरी तरह से बदलकर रख देगा। दाल, चावल, रोटी, आलू, टमाटर, पनीर की जगह भविष्य में हमारी थाली में कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ दिखेंगे जिनसे आज तक हम अनजान हैं या फिर जिन्हें ज्यादातर लोग अखाद्य मानते हैं।

भयानक गर्मी और जल संकट के चलते अधिकतर हिस्सों की खेती किसानी उन फसलों को गायब कर देगी, जिसमें ज्यादा पानी खर्च होता है और जो बेहद सूखे मौसम में पनप नहीं सकती या फिर जिन्हें पर्याप्त नमी चाहिए।

यह स्थिति न सिर्फ खाद्यान्नों में बल्कि पशुचारे में भी भीषण कमी लाएगी और जिस तरह पशुधन कम होता जा रहा है, उससे उम्मीद है कि अगले चार दशक में इसमें उल्लेखनीय और ऐसी गिरावट दर्ज की जाएगी, जो हमारे खाद्य तंत्र को गहराई से प्रभावित करेगी। भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के चलते हालात बदतर होने वाले हैं।

पिछले दस सालों में धरती के औसत तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्शियस की बढ़ोत्तरी हुई है। आशंका यही जताई जा रही है कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोत्तरी ही होगी। ग्लोबल वार्मिंग से धरती का तापमान बढ़ेगा, जिससे ग्लेशियरों पर जमा बर्फ पिघलने लगेगी। ग्लेशियरों की बर्फ के पिघलने से समुद्रों में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी, जिससे उसकी सतह में भी बढ़ोत्तरी होती जाएगी।

जलवायु परिवर्तन और लगातार बढ़ते प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर स्वास्थ्य और खानपान पर पड़ेगा। गर्मी और सूखे से जहाँ गम्भीर रोग बढ़ेंगे, वही स्वच्छ जल और भोजन भी नसीब नहीं होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार अगले 50 साल में दुनिया उजड़ जाएगी। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि पचास साल के अन्दर दुनिया की आबादी की जरूरतों को मुहैया कराने के लिये पृथ्वी जैसे कम-से-कम दो और ग्रहों पर कब्जा करने की आवश्यकता पड़ जाएगी।

पर्यावरण से जुड़ी संस्था वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इंग्लैंड के अखबार आब्जर्वर की वेबसाइट के अनुसार संसाधनों के दोहन की रफ्तार अगर यही रही, तो समुद्रों से मछलियाँ गायब हो जाएँगी और कार्बन डाइऑक्साइड सोखने वाले सारे जंगल उजड़ जाएँगे। इसके बाद शुद्ध पानी का भयानक संकट छा जाएगा।

इस तरह दूध और दुग्ध निर्मित खाद्य पदार्थों की भारी कमी हो जाएगी। दही, चीज, पनीर दुर्लभ हो जाएँगे। पानी कम होगा तो मीठे पानी में मिलने वाली मछली का मिलना भी मुश्किल होगा। सारी दुनिया इस भोजन संकट से जूझने वाली है। पर्यावरण द्वारा सीधे पेट पर होने वाले इस प्रहार को झेलने और उसे असफल बनाने के लिये क्या प्रयास किये जाएँ इसकी कोशिशें समूचे संसार में बहुत पहले से शुरू हैं, पर अब यह कोशिशें बहुत तेज हो गई हैं।

इस क्षेत्र में हो चुके मौजूदा, बदलाव, विकास, शोध, अध्ययन और प्रयोगों के आधार पर कहा जा सकता है कि जल्द ही संसार के अधिकतर लोगों का भोजन तकरीबन पूरी तरह प्रसंस्कृत या प्रयोगशाला से निकला होगा। पेड़ या खेत से आये भोजन की अपेक्षा लोग फैक्टरी या मशीन से निकले खाने को खाएँगे।

धान, गेहूँ जैसी फसलों की ऐसी प्रजातियों को विकसित किया जा चुका है, जो विषम परिस्थितियों में भी उपजाई जा सकेंगी और बेहतर उत्पादन भी देंगी। उधर बिना दुधारु जानवर के केसीन और अंडे देने वाली मुर्गी के बिन एल्ब्यूमिन तैयार कर क्रमशः दूध और अंडे की कमी पूरा करने की तैयारी पूरी है।

यही नहीं दुग्ध निर्मित, चीज, पनीर, जैसी चीजें भी सफलतापूर्वक बनाई जा चुकी हैं। खेत की बजाय समुद्र अन्नदाता बनेगा, इसमें से निकलने वाले शैवाल जैसी वनस्पतियाँ मछली के अलावा समुद्री जीव-जन्तु की खाई जा सकने वाली विभिन्न प्रजातियाँ जेलीफिश या दूसरे तरह के तमाम जीव लोगों के रोजमर्रा के भोजन में शामिल होंगे। चींटियाँ, तिलचट्टे, तमाम तरह के कीड़े-मकोड़े भोजन के विकल्प के तौर पर तलाशे जा चुके हैं।

प्रयोगशाला में जानवरों का मांस बनाने का तजुर्बा भी सफल हो चुका है। जब प्रत्यापरोपण के लिये अंग बनाए जा सकते हैं, तो सामान्य मांसपेशियाँ अथवा मीट क्यों नहीं। बरसों के प्रयास के बाद आखिरकार प्रयोगशाला में मांस बनाने में सफलता मिल चुकी है, पर यह अभी भी बहुत महंगा सौदा है। अनुमान किया जाता है कि दो दशक बाद इसका बड़े पैमाने पर ऐसा उत्पादन हो सकेगा, जो व्यावसायिक के साथ ही व्यावहारिक भी होगा।

लोग इसे आज की तरह खरीदकर खा सकेंगे। पर वैज्ञानिक अब इससे आगे एक दूसरी तरह की खोज में हैं। वह चाहते हैं कि मांस का स्वाद मिले पर वह बने वानस्पतिक या कहें पेड़ पौधों से मिली प्रोटीन से यानी शाकाहारी मांस। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह देखने, खाने में बकरे या भैंस के मांस से मिलने वाले रेड मीट की ही तरह होगा। उनका मानना है कि ठीक इसी तरह का एक प्रोटीन जो रेडमीट पाया जाता है, पेड़-पौधों से भी मिलता है। आवश्यकता है कि उसे विकसित किया जाये और इस दिशा में प्रयास जारी है।

जिस तरह कोशिशें जारी हैं, इस तरह का मांस अगले दशक से पहले विकसित हो जाने की पूरी सम्भावना है और इसके बाद बड़े स्तर पर उसके उत्पादन में ज्यादा समय नहीं लगेगा। उपजे खाद्य असुरक्षा के संकट से संसार को कोई बचा सकता है, तो बस कटहल।

भारत के इस मूल फल के गुणों को परखकर दुनिया इसे चमत्कारी और भविष्य का फल मान रही है और हम इसकी अभी तक उपेक्षा ही करते जा रहे हैं। वह भी तब जबकि संसार भर के कृषि और बागवानी वैज्ञानिक ही नहीं पर्यावरणविद भी इस बात पर एकमत हैं कि भविष्य के ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के अकाल काल में खाद्य असुरक्षा से लड़ने में कोई सक्षम है, तो वह है भारत का मूल फल कटहल।

विदेशी वैज्ञानिक पिछले दो तीन साल से इसको चमत्कारी फसल कह रहे हैं, जो करोड़ों लोगों को भुखमरी से बचा सकता है। लेकिन मीडिया ने कटहल की बड़ी उपेक्षा की है, उसने इसकी रेसिपी छापी, पर स्वास्थ्य, व्यवसाय, आर्थिकी के क्षेत्र में इसकी क्षमताओं, अनन्त सम्भावनाओं और महत्त्व को कभी ढंग से उजागर नहीं किया।

पेड़ पर लगने वाला सबसे बड़े फल कटहल को बगल के बांग्लादेश में आम के बाद का दर्जा हासिल है और इसे राष्ट्रीय फल घोषित किया जा चुका है पर यहाँ दक्षिण के कुछ राज्यों में अमीर इसको मुँह नहीं लगाते, यह गरीबों की सब्जी मानी जाती है। केरल का कटहल तो दिल्ली में बिकता है।

मलेशिया, फिलीपींस श्रीलंका, वियतनाम और बांग्लादेश इससे पैसा कूट रहे हैं। पर यह फल अपनी मातृभूमि भारत में बेहद उपेक्षित है। देश के कटहल की 74 फीसदी उपज बेकार सड़-गल जाती है। इससे 30,000 करोड़ से ज्यादा का सालाना नुकसान होता है। निस्सन्देह बेहद बड़ी संख्या में फैली जनसंख्या को ऐसी स्थिति में खिला पाना कठिन होगा, फिर भी हमारे वैज्ञानिक खाद्य समाधान तो पा लेंगे पर इसके लिये अभी से चेतना होगा, अपना खाद्य व्यवहार बदलना होगा।

कटहल जैसे फलों को खाने और उपजाने का नियम बनाना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो जब संकट गहरा जाएगा, तब अपना खाद्य व्यवहार बदलना अथवा इस सन्दर्भ में पहले से कहीं जा रही बातें अपनाना बेहद कठिनाई भरा होगा। अगर हमने तत्काल सजगता नहीं दिखाई, तो बदलता पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग के ताप का असर हमारे पेट तक पहुँचेगा।

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