‘पेयजल’ केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य भी

पानी के बिना जीवन सम्भव नहीं है। साफ पानी के बिना स्वस्थ जीवन सम्भव नहीं है। व्यापक साफ-सफाई के बिना साफ पानी लगातार मिल सकना सम्भव नहीं है, और क्योंकि जीवन का अधिकार सबसे मूलभूत अधिकार है, लिहाजा स्वच्छता भी मनुष्य का मूलभूत अधिकार है, और पीने का साफ पानी भी निश्चित रूप से मनुष्य का मूलभूत अधिकार है। ये दोनों मूलभूत अधिकार न केवल आपस में जुड़े हुए हैं, बल्कि मोटे तौर पर मूलभूत कर्तव्यों से प्रेरित होते हैं।

केरल में छत्तीसगढ़ में समुदाय के हिस्से का पानी चुराने वालों को समाज ने करारा सबक सिखाया था जबकि चुराने वाले बहुत शक्तिशाली थे। भारत में जहाँ वार्ड पार्षद से लेकर विधायक और सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र में निर्माण कार्यों के लिए विशेष कोष मिलता है, स्थानीय लोग मिलकर अपने यहाँ साफ-सफाई की व्यवस्था करने के लिए दबाव बना सकते हैं। इससे भी ज्यादा अहम तौर पर सरकारें और जनप्रतिनिधि शौचालयों के सन्दर्भ में, पेयजल उपलब्ध कराने के सम्बन्ध में कई बार गलत दावे और गलत आँकड़े पेश कर देते हैं। इससे स्थिति में सुधार लाने की बाध्यता कम होती है।

मेरे घर के सामने की नाली में कई दिन से कचरा फँसा हुआ है, गन्दा पानी मेरे घर में घुसा हुआ है- सरकार कुछ करती ही नहीं है। हो सकता है आपने इस तरह की बात अपने आसपास के दायरे में कभी सुनी हो। आप इस बात से कितने सहमत हो पाते हैं? सहमति के स्तर का आपका उत्तर, जो भी होगा, उसके आधार पर यह भी बताया जा सकेगा कि मोटे तौर पर आपकी शिक्षा का स्तर क्या है, आपकी आमदनी का स्तर क्या है, और शायद यह भी कि आप साल में कितने दिन बीमार और बेरोजगार रहते हैं।

कैसे? अगर किसी के घर के सामने की नाली में कचरा फँसा है, जो बहुत सम्भव है कि खुद उसने ही फेंका हो, तो वह सरकार का इंतजार करने के बजाए उसे स्वयं ही साफ क्यों नहीं कर देता? हो सकता है वह कचरा एक व्यक्ति के घर से न निकल कर कई घरों का हो। तो वे सारे लोग मिलकर उसे साफ क्यों नहीं कर देते?

यह बड़ा सवाल है जो एक ही झटके में निवासियों के शिक्षा के स्तर, उनकी आमदनी का स्तर, और उनके स्वास्थ्य के स्तर का फैसला सुना देता है। अगर वे स्वयं साफ रहने के बजाए किसी का भी इंतजार करना बेहतर समझते हैं, तो वे खुद अपना ही जीवन कठिन बनाते चले जाते हैं।

वापस उसी बात पर लौटें। क्या आपने गौर किया है कि गन्दी नालियों वाले इलाकों में पीने के पानी की भी समस्या रहती है। हो सकता है कि लोगों को इसकी आदत पड़ चुकी हो, लेकिन वास्तव में वह पानी पीने लायक भी न हो? अब आप गौर करें, बीमारियों के बारे में। आप पाएँगे कि इन लोगों को सम्भवतः बार-बार बीमार रहने की भी आदत-सी पड़ चुकी होती है। ऐसे इलाकों में छोटे बच्चे और गर्भवती महिलाएँ लगभग लगातार बीमार रहते हैं। आप पाएँगे कि इन लोगों के साथ सम्भवतः बार-बार बेरोजगार रहने की भी स्थिति बनती रहती है। गरीबी और अशिक्षा भी बहुतांश इनके जीवन का भाग हो जाता है। वे अगर कुछ करना भी चाहें, तो उन्हें पता नहीं होता है कि वे क्या करें। इन सारी समस्याओं की एक ही जड़ है। लेकिन अच्छी बात यह है कि वे लोग स्वयं भी इस दुष्चक्र से बाहर निकल सकते हैं।

कैसे? स्वच्छता मिशन के बारे में विज्ञापनों आदि के माध्यम से सुनने का मौका सभी को मिल रहा है। इसी प्रकार शौचालय बनवाने का आग्रह भी जोर-शोर से किया जा रहा है। इसे हम किस रूप में लेते हैं? इसका सम्बन्ध सरकार के किसी काम से है, या लोगों के अपने हित से है? आइए देखते हैं।

वास्तव में, अगर किसी भी देश के सामने मूलभूत साफ-सफाई की समस्या हो, तो इसे उसकी सभ्यता के स्तर पर आक्षेप माना जाना चाहिए। लेकिन इससे बढ़कर यह उस देश के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का भी सवाल है। पानी के बिना जीवन सम्भव नहीं है। साफ पानी के बिना स्वस्थ जीवन सम्भव नहीं है। व्यापक साफ-सफाई के बिना साफ पानी लगातार मिल सकना सम्भव नहीं है, और क्योंकि जीवन का अधिकार सबसे मूलभूत अधिकार है, लिहाजा स्वच्छता भी मनुष्य का मूलभूत अधिकार है, और पीने का साफ पानी भी निश्चित रूप से मनुष्य का मूलभूत अधिकार है। ये दोनों मूलभूत अधिकार न केवल आपस में जुड़े हुए हैं, बल्कि मोटे तौर पर मूलभूत कर्तव्यों से प्रेरित होते हैं। जो लोग पक्के मकानों में रहते हैं, उन्हें न खुले में शौच की स्थिति का सामना करना पड़ता है, न उनका पीने का पानी ऐसा गन्दा होता है जिससे बार-बार बीमारी होती हो। अगर साफ-सफाई और स्वच्छ पेयजल उन्हें उपलब्ध है, तो बाकी लोगों को क्यों नहीं?

पहले बात करते हैं स्वच्छ पेयजल की। सतह पर भरा पानी, भूमिगत जल का कम गहराई पर ही मिल जाना, अगर पानी का प्रदाय पाइप लाइन से होता है, तो उन पाइप लाइनों का गन्दे पानी से होकर गुजरना, खुले में शौच करना, जो बहकर पीने के पानी तक पहुँच जाता है, असुरक्षित किस्म के सैप्टिक टैंक सहित कई चीजें पीने के पानी को दूषित और जहरीला बना देती हैं। अगर यह सारी स्थितियाँ किसी के साथ नहीं हैं, लेकिन किसी और के साथ हैं, तो भी सारे समुदाय के लिए जोखिम हो जाता है। इसमें स्थानीय लोग क्या कर सकते हैं? एक आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं। मान लीजिए कि मल-जल का ठीक ढंग से निपटारा कर दिया गया। इससे बाकी बातों के अलावा मीथेन गैस का उत्पादन भी किया जा सकता है, जिससे ऊर्जा की जरूरत पूरी हो सकती है। ऐसी सस्ती ऊर्जा मिलने से रहने वाले लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी बेहतर हो जाती है। आप पानी को दोबारा इस्तेमाल करने लायक बना सकते हैं, जिससे पानी की किल्लत कम होती है और जीवन थोड़ा सरल हो जाता है। खेतों के लिए बहुत उपयोगी खाद तैयार हो सकती है। पर्यावरण सुरक्षित और साफ बना रहता है, पानी के स्रोत साफ बने रहते हैं, बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार होने से रोजगार की स्थिति बेहतर हो जाती है। यह स्थिति आदर्श जरूर है, लेकिन पूरी तरह व्यावहारिक है। सुलभ इंटरनेशनल से लेकर तमाम नगरपालिकाएँ यह काम सफलतापूर्वक कर रहे हैं।

निस्संदेह यह काम किसी एक व्यक्ति के वश का नहीं है, या सम्भवतः समुदाय के सारे लोग मिलकर भी इसे अंजाम नहीं दे सकते हैं। लेकिन इसी का दूसरा पक्ष देखिए। आपने महसूस किया होगा कि कुछ इलाके ऐसे भी होते हैं, जहाँ सारी व्यवस्था के बावजूद गन्दगी होती है। तब क्या किया जाए? वास्तव में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था के हरेक प्रयास में बिल्कुल उसकी योजना बनाने से लेकर, उसके क्रियान्वयन, उसकी फिटिंग और उसके विकास तक के हर पहलू से स्थानीय लोगों का, युवाओं का, महिलाओं, बच्चों और स्कूलों का जुड़ाव होना बहुत जरूरी है। कई अध्ययनों में यह देखा गया है कि इन सभी की भागीदारी के बिना साफ-सफाई की योजना न तो उतनी प्रभावी रह जाती है, और न ही टिकाऊ रह पाती है।

स्थानीय लोग, युवा, महिलाएँ, बच्चे और स्कूल स्वच्छ पेयजल के लिए या साफ-सफाई के लिए क्या कर सकते हैं? भारत भर के हर मोहल्ले और समुदाय के लोग 1950 के बाद से आज तक मतदान करते आ रहे हैं, सारे ही स्वतन्त्र हैं। फिर ऐसा क्यों है कि कुछ इलाकों में तो बिजली भी है, पीने का साफ पानी भी है, साफ-सफाई की व्यवस्था भी है, और कुछ इलाकों में नहीं हैं? दरअसल स्थानीय लोगों, युवाओं, महिलाओं, बच्चों और स्कूलों की भूमिका यहाँ से शुरू होती है। हाल में वर्ष 2005 तक में किए गए अध्ययनों में यह देखा गया है कि जिस समुदाय में साक्षरता की विशेषरक महिलाओं में साक्षरता की दर बेहतर होती है, वह समुदाय चुनाव में वोट डालने के लिए अपने लिए बिजली, सड़क, पानी की माँग ज्यादा जोरदार ढँग से उठाता है और चुनी जाने वाली सरकार पर इसके लिए दबाव बनाता है। वरना वोट डालने का काम तो कई दशक से हो ही रहा है। शहरी इलाकों में साफ-सफाई की, स्वच्छ पेयजल की अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति होने का एक बड़ा कारण यही है। याद कीजिए 2003 में समुदाय अगर ठान लें कि बिजली, सड़क, पानी उन्हें हर कीमत पर चाहिए, तो वे इसे हासिल कर सकते हैं। केन्या में नागरिकों के संगठनों ने ऐसा दबाव बनाया कि स्वच्छ पेयजल और हर व्यक्ति के लिए शौचालय की उपलब्धता केन्या के संविधान में मूलभूत अधिकार के रूप में शामिल की जा चुकी है। जाहिर है, इसके लिए काफी जमीनी तैयारी भी चाहिए।

राजनीतिक दबाव के अलावा, समुदाय की भूमिका इन व्यवस्थाओं के रख-रखाव में भी मददगार होती है। आपके पानी को कोई चुरा तो नहीं रहा? आपकी नालियों को कोई गन्दा तो नहीं कर रहा? यह चिन्ता करना न तो सरकार का कार्य है, और न ही उसके लिए यह सम्भव है। यह कार्य तो स्थानीय लोगों को ही करना होता है। कई स्थानों पर नालियों का प्रयोग कचरा डालने में किया जाता है। यह जानकारी के विशुद्ध अभाव का लक्षण है, जिसका खामियाजा पूरे समुदाय को भुगतना पड़ता है। केरल में छत्तीसगढ़ में समुदाय के हिस्से का पानी चुराने वालों को समाज ने करारा सबक सिखाया था जबकि चुराने वाले बहुत शक्तिशाली थे। भारत में जहाँ वार्ड पार्षद से लेकर विधायक और सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र में निर्माण कार्यों के लिए विशेष कोष मिलता है, स्थानीय लोग मिलकर अपने यहाँ साफ-सफाई की व्यवस्था करने के लिए दबाव बना सकते हैं। इससे भी ज्यादा अहम तौर पर सरकारें और जनप्रतिनिधि शौचालयों के सन्दर्भ में, पेयजल उपलब्ध कराने के सम्बन्ध में कई बार गलत दावे और गलत आँकड़े पेश कर देते हैं। इससे स्थिति में सुधार लाने की बाध्यता कम होती है। अगर लोग जिम्मेदार और जागरूक हो, तो यह बाध्यता काम हो चुकने के बाद भी कम नहीं हो सकती है।

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।), ईमेल : gnbartaria@gmail.com

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