पेयजल में फ्लोराइड की अधिकता से मानव शरीर पर कुप्रभाव

28 Dec 2015
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फ्लोरोसिस आधुनिक भारतीय समाज (खासकर ग्रामीण समाज) का वह अभिशाप है जो सुरसा की तरह मुॅंह फैलाए जा रही है और हजारों लोग प्रतिवर्ष इसकी चपेट में आकर वैसा ही महसूस कर रहे हैं जैसा कोई अजगर की गिरफ़्त में आकर महसूस करता है।

फ्लोरोसिस मनुष्य को तब होता है जब वह मानक सीमा से अधिक घुलनशील फ्लोराइड-युक्त पेयजल को लगातार पीने के लिये व्यवहार में लाता रहता है।

भारत में फ्लोरोसिस सर्वप्रथम सन् 1930 के आस-पास दक्षिण भारत के राज्य आन्ध्र प्रदेश में देखा गया था। लेकिन आज भारत के विभिन्न राज्यों में यह बिमारी अपने पाँव पसार चुकी है और दिन-प्रतिदिन इसका स्वरूप विकराल ही होता चला जा रहा है।

यह देखा गया है कि अशिक्षित, गरीब व कुपोषित ग्रामीणों में फ्लोरोसिस की बीमारी बहुत ही जल्दी पनप जाती है। फ्लोरोसिस की चपेट में आकर मनुष्य असमय ही वृद्ध होने लगता है, उसकी कमर झुुकने लगती है और वह चलने-फिरने से लाचार हो जाता है।

कभी-कभी तो वह गूंगेपन का भी शिकार हो जाता है। ये सभी कुछ ऐसी सामाजिक त्रासदियाँ हैं जिनकी आज के सन्दर्भ में विवेचना करना अत्यन्त आवश्यक है। यह खासकर ग्रामीण परिवेश के सन्दर्भ में तो और भी आवश्यक है क्योंकि भारत गाँवों में बसता है और ग्रामीणों की त्रासदियों से हम शहरी अछूते नहीं रह सकते।

एक विकलांग व्यक्ति का जीवन कितना कष्टप्रद होता है यह कमोबेश सभी को पता है। शारीरिक विकलांगता वह अभिशाप है जिससे केवल वह व्यक्ति ही नहीं बल्कि उसका पूरा परिवार भी प्रभावित होता है।

ऐसे में जब गाॅंव में बसने वाले किसी परिवार के सारे लोग सामूहिक विकलांगता के शिकार हो जाएँ तो उस गाॅंव की क्या दुर्दशा होगी यह कल्पना से भी परे है।

लेकिन जब उन्हें यह पता लगता है कि फ्लोरोसिस नामक यह विकलांगता उन्हें जीवनदायिनी जल जिसमें फ्लोराइड मानक सीमा से अधिक घुलनशील है, को पेयजल के रूप में व्यवहार करने के कारण प्राप्त हुई है तो उनके मानसिक सन्तापोें का अन्दाजा लगाना और भी कठिन हो जाता है।

साधारण पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होने पर मानव शरीर में फ्लोराइड अस्थियों से हाइड्रॉक्साइड को हटाकर खुद जमा हो जाता है और अस्थि फ्लोरोसिस को जन्म देता है।

मानव शरीर में फ्लोराइड पेयजल के अतिरिक्त मुख्यतः भोजन, वायु, दवाइयों तथा प्रसाधनों के द्वारा भी प्रवेश करता है। लेकिन लगभग 60 प्रतिशत पेयजल द्वारा ही शरीर में प्रविष्ट होता है।

हमारे देश में यह देखा गया है कि फ्लोराइड चाय, फ्लोराइड युक्त टूथपेस्ट और अत्यधिक घुलनशील फ्लोराइड युक्त पेयजल के द्वारा मानव शरीर में प्रविष्ट होता है। शीतल पेयों द्वारा भी फ्लोराइड हमारे शरीर में पहुँचता है।

पेयजल में फ्लोराइडअब तक यह माना जाता रहा था कि फ्लोरोसिस शारीरिक रूप से विकसित युवाओं तथा प्रौढ़ों में ही अधिक होता है। लेकिन यह देखा गया है कि 12 वर्ष तक की आयु के बच्चों में यह अधिक घातक है क्योंकि इस आयु वर्ग के बच्चों का शरीर बढ़ रहा होता है और इस उम्र में उनके शरीर के ऊतक भी कोमल ही होते हैं जिससे फ्लोरोसिस जल्द ही आक्रमण करके शरीर में घुसपैठ कर लेता है।

गर्भस्थ शिशु की माँ अगर फ्लोराइड युक्त जल का सेवन करती है तो गर्भ में बढ़ रहे शिशु के लिये बहुत ही हानिकारक होता है। आमतौर पर बच्चे 2-3 वर्ष की उम्र पार करते-करते अपंग और रोगग्रस्त हो जाते हैं।

शुरू में पैर की हड्डी चौकोर एवं चपटी हो जाती है और बाद में बच्चा लाचार होकर ही रह जाता है। जवान पुरूष और महिलाएॅं भी 35 से 40 वर्ष की उम्र तक पहुॅंचते-पहुॅंचते बुढ़ापे का अनुभव करने लगते हैं। उनकी कमर झुकने लगती है और शारीरिक शक्ति में ह्रास होने लगता है।

हाथ-पैर विकृत हो जाते हैं, दाँत पीले पड़ने लगते हैं और मसूड़े गलने लगते हैं। दूसरे किसी गाॅंव से ब्याह कर लाई गई बहुएँ भी फ्लोरोसिस प्रभावित गाॅंव में इस रोग के कुप्रभाव से अछूती नहीं रह पाती हैं। अपंगता का कुप्रभाव महिलाओं पर माँ बनने के बाद ज्यादा दिखने लगता है।

फ्लोरोसिस से प्रभावित व्यक्ति सामाजिक कार्य-कलापों में बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं ले पाता है क्योंकि उसमें कुंठा जागृत हो जाती है और वह हीन भावना से ग्रसित हो जाता है।

तालिका -1 : भोज्य पदार्थों में फ्लोराइड की उपलब्ध मात्रा

 

भोज्य पदार्थ

फ्लोराइड की मात्रा उपलब्ध (MG/KG)

भोज्य पदार्थ

फ्लोराइड की मात्रा उपलब्ध (MG/KG)

भोज्य पदार्थ

फ्लोराइड की मात्रा उपलब्ध (MG/KG)

गेहूँ

4.6

पुदीना

4

लहसुन

5.0

चावल

5.9

आलू

2.8

अदरक

2.0

चना

2.5

गाजर

4.1

हल्दी

3.3

सोयाबीन

4.0

केला

2.9

मटन

3.0-3.5

बन्दगोभी

3.3

आम

3.2

बीफ

4.0-5.0

टमाटर

3.4

सेब

5.7

पोर्क

3.0-5

ककड़ी

4.1

अमरुद

5.1

मछली

1.0-6.5

भिंडी

4.0

चाय

60-112

नारियल पानी

0.32-0.6

पालक साग

20

धनिया

2.3

बैंगन

1.2

    

सी फूड

326.0

 

तालिका - 2 : फ्लोराइड के विभिन्न घुलनशील मात्रा के कारण मानव शरीर पर पड़ने वाले स्वास्थ्य सम्बन्धी असर तथा वातावरण में अन्य जैविक प्रभाव को दर्शाया गया है।
(स्रोत : होज एवं स्मिथ, 1965 तथा WHO 1970)


फ्लोरोसिस से प्रभावित व्यक्ति युवा में ही वृद्ध हो जाता है तथा कुछ भी कार्य करने में लाचार होे जाता है। वह इतना कमजोर हो जाता है कि आसानी से चल-फिर भी नहीं सकता और न ही वजन उठा सकता है।

फ्लोरोसिस के चरम सीमा तक पहुँचते-पहुँचते तो वह खाने के लिये भी दूसरे के हाथों का मोहताज हो जाता है। जवानी में ही बालों का सफेद हो जाना तथा शारीरिक रूप से विकृत दिखना फ्लोरोसिस प्रभावित इलाके में एक आम नज़ारा है।

विकलांगता के कारण आदमी जब चलने-फिरने से लाचार हो जाता है तो उसके लिये लाठी टेकने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता। शारीरिक रूप से लाचार होने के कारण मजदूरी का काम भी नहीं कर सकता और भीख माँगने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं बचता है।

कृषि प्रधान देश तथा ऊष्णकटिबन्ध में होने के कारण भारत में कृषि कार्य वाले मज़दूरों को ज्यादातर दिन में कठोर श्रम करना पड़ता है और ज्यादा पानी पीना पड़ता है।

क्योंकि उनकी आमदनी भी कम होती है इसलिये वे पौष्टिक भोजन की तो कल्पना भी नहीं कर सकते। इन सब कारणों से फ्लोराइड युक्त पानी लगातार पीने पर उनके शरीर की प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है।

इसके अलावा परिवार में सदस्यों की संख्या ज्यादा होना भी ग़रीबों के बीच फ्लोरोसिस के प्रसार का एक प्रमुख कारण है। आज आज़ादी के साठ सालों बाद भी सन्तान को भगवान की देन बताना और जनसंख्या बढ़ाते चले जाना भी फ्लोरोसिस कंट्रोल नहीं होने का एक प्रमुख कारण है। इसका सीधा सम्बन्ध उनकी अशिक्षा से लगाया जा सकता है।

भारत में राज्य सरकारों द्वारा डाॅक्टरों से गाँवों में नौकरी करने के लिये समय-समय पर निर्देश जारी करने पड़ते हैं तथा कई बार तो कानून भी बनाए जाते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति चिकित्सक वर्ग की उदासीनता गाँवोें में फ्लोरोसिस की दिनों-दिन बढ़ोत्तरी में एक अहम कारण बन रही है।

फ्लोरोसिस : प्रकार, प्रभाव और सामाजिक दुष्परिणाम


FIG 4. प्रकृति में कुछ ऐसे तत्त्व पाये जाते हैं जो जीवों पर अपना दोहरा असर दिखलाते हैं। उनकी सूक्ष्म से अल्पतम मात्रा मानक सीमा के भीतर स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिये अत्यन्त जरूरी होती है। परन्तु मानक सीमा के पार उनकी मात्रा से स्वास्थ्य पर उल्टा प्रभाव पड़ने लगता है और गम्भीर बीमारियाॅं जन्म ले लेती हैं।

फ्लोराइड भी इसी श्रेणी में आता है जो भूमण्डल में हर जगह उपलब्ध है। पेयजल में फ्लोराइड की सूक्ष्म मात्रा (मानक सीमा के भीतर) जहाॅं दाँतों के इनेमल की सुरक्षा के लिये आवश्यक है वहीं यदि इसकी घुलनशील मात्रा मानक सीमा को पार करती है तो मनुष्य गम्भीर बिमारियों से ग्रसित हो जाता है। फ्लोरोसिस की गिरफ़्त में आने के बाद यह पाया जाता है कि इसका कोई इलाज नहीं है और फलस्वरूप दन्त फ्लोरोसिस, हड्डियों का विकृत हो जाना तथा स्नायु व माँसपेशियों से सम्बन्धित गम्भीर बिमारियाँ हमेशा के लिये घर कर जाती हैं।

1. दंत फ्लोरोसिस : फ्लोराइड की अल्पमात्रा दाँतों के इनेमल को मजबूत करती है जो दाँतों को संक्रमण व क्षय होने से बचाती है। दन्त इनेमल की सुरक्षा के लिये यह आवश्यक है कि पेयजल में फ्लोराइड की सीमा 1.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक हो जिसके कारण दाँत क्षय होने से बचता है तथा मानव स्वास्थ्य पर भी कोई कुुप्रभाव नहीं पड़ता है। परन्तु 1.0 मिलीग्राम प्रति लीटर की सीमा पार होने पर मानव दन्त फ्लोरोसिस से प्रभावित हो जाता है।

इस बीमारी में दाँतों में धब्बे तथा गड्ढे पड़ जाना आम बात है। बच्चे इसकी गिरफ़्त में तुरन्त ही आ जाते हैं। वयस्क भी इसकी गिरफ़्त में आ जाते हैं यदि पेयजल में इसकी मात्रा 1.5 मिलीग्राम प्रति लीटर तक हो जाये। इससे थोड़ी सी भी ज्यादा मात्रा (4.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक) मानव शरीर में लम्बे समय तक पेयजल के द्वारा जाने पर शारीरिक लचक खत्म होने लगती है जिससे अस्थियों तथा जोड़ों में कठोरता आ जाती है।

परन्तु यदि घुलनशील फ्लोराइड (>2 मिलीग्राम प्रति लीटर) पेयजल के द्वारा दाँतों के निर्माण के दौरान लगातार ग्रहण किया जा रहा हो तो दाँतों के इनेमल धब्बेदार होने लगते हैं। इनेमल का मुख्य कार्य डेंटिन की सुरक्षा है तथा उसे क्षय व संक्रमण से बचाना है परन्तु दन्त फ्लोरोसिस की अवस्था में सुरक्षा चक्र टूट जाता है और दाँतों की संरचना पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। दन्त फ्लोरोसिस होने पर दाँतों की प्राकृतिक चमक तथा सुन्दरता नष्ट हो जाती है। प्रारम्भिक अवस्था में दाँत चाॅक के समान खुरदरा सफेद हो जाता है जो बाद में धीरे-धीरे पीला, कत्थई तथा काले रंग का हो जाता है। यह मसूड़ों से थोड़ी दूर दाँतों की सतह पर मोटी लकीर के रूप में दिखता है। रोग पुराना होने पर दाँतों की सतह पर छोटे-छोटे छिद्र बन जाते हैं जिनकी भराई नहीं हो पाती है। दन्त फ्लोरोसिस दाँतों की अन्दरूनी तथा बाहरी दोनों सतहों पर होता है तथा एक बार इसकी गिरफ़्त में आने पर यह लाइलाज हो जाता है। दन्त फ्लोरोसिस केवल शारीरिक सुन्दरता को ही नहीं प्रभावित करता है बल्कि यह एक सामाजिक समस्या भी है जिसके कारण वैवाहिक सम्बन्धों पर भी असर पड़ता है, खासकर लड़कियों की शादियों पर।

तालिका - 2 : फ्लोराइड की घुलनशील मात्रा तथा इसके जैविक प्रभाव

 

फ्लोराइड की घुलनशील मात्रा (मिलीग्राम/लीटर)

माध्यम

जैविक प्रभाव (Biological Effects)

0.002

वायु

वनस्पतियों पर गम्भीर प्रभाव

1.0

जल

दन्त क्षय को रोकने में सहायक

>=2.0

जल

दन्त इनेमल पर विपरीत प्रभाव के कारण धब्बे पड़ना

>= 8

जल

अस्थियों तथा स्नायु जनित रोग

>= 50

आहार तथा जल

थायराइड ग्रन्थि में बदलाव

>= 100

आहार तथा जल

मानव शरीर के विकास पर विपरीत असर

>= 120

आहार तथा जल

किडनी पर गम्भीर असर

>= 200

आहार तथा जल

जीवन के लिये खतरा

 


2. अस्थि फ्लोरोसिस : अस्थि फ्लोरोसिस मानव शरीर में मूलभूत अस्थि ढाँचा या हड्डियों पर असर करता है। यह युवा तथा प्रौढ़ दोनों को हो सकता है। इसके प्रभाव से शरीर के विभिन्न जोड़ों में दर्द होने लगता है। विभिन्न जोड़ जहाँ इसका प्रभाव ज्यादा होता है वे हैं गर्दन, कुल्हे, बाहें और घुटने, जिसके कारण चलना-फिरना दूभर हो जाता है और असहनीय दर्द होता है। यदि फ्लोराइड की घुलनशीलता पेयजल में 10-40 मिलीग्राम प्रति लीटर तक हो जाये तो मनुष्य अस्थि फ्लोरोसिस से ग्रसित हो जाता है। जोड़ों तथा अस्थियों का लचीलापन समाप्त हो जाता है और एक स्थिरता तथा कठोरता आ जाती है। सबसे हैरानी और चिन्ता की बात तो यह है कि अस्थि फ्लोरोसिस को शुरुआती दौर में पहचान पाना बहुत मुश्किल है और जब यह अपनी चरम सीमा पर पहुँचने वाला होता है तभी पहचाना जाता है। अन्त में तो जोड़ों में पूरी तरह कठोरता आ जाती है और मेरुदंड बाँस की तरह सीधा ही हो जाता है। ऐसे में आदमी न तो झुक सकता है, और न ही घुटने मोड़ सकता है। वह कंधे भी नहीं झुका सकता और पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लेता है। वह बिना बाहरी सहारे के कुछ भी नहीं कर सकता। कभी-कभी तो यह भी देखा गया है कि फ्लोरोसिस प्रभावित व्यक्ति की कमर समकोणीय रूप से मुड़ जाती है और वह सीधा खड़ा ही नहीं हो सकता है।

FIG 6.3. गैर-अस्थि फ्लोरोसिस : मानव शरीर के कोमल ऊतकों पर भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है जो कि बहुतायत में फ्लोराइड युक्त पेयजल को लगातार पीने के कारण होता है। आँतों की समस्याएँ, भूख कम लगना, पैरों में दर्द, कब्जियत के साथ बीच-बीच में डायरिया हो जाना, माँसपेशियों में अत्यधिक कमजोरी महसूस करना, अत्यधिक प्यास लगना, पेशाब बार-बार आना इत्यादि सामान्य लक्षण गैर-अस्थि फ्लोरोसिस प्रभावित रोगियों में देखे जा सकते हैं। कोलेस्ट्राॅल बढ़ने के कारण हृदयाघात (हार्ट अटैक) की स्थिति भी देखी गई है। इसी कारण गर्भपात के लक्षण भी देखे गए हैं।

विकलांगता मनुष्य के जीवन की सबसे कष्टप्रद स्थिति है। जैसे ही इंसान को अपने भीतर इस बात का एहसास होता है उसका मनोबल इस कदर टूट जाता है कि उससे वह उबर ही नहीं पाता है।

फ्लोरोसिस एक ऐसा अनदेखा दुश्मन है जो पानी में छिपकर मानव शरीर पर आक्रमण कर देता है। फ्लोराइड पानी में घुला होता है और इसका पता आँखों से तथा जीभ के स्वाद से लगा पाना असम्भव होता है। इसके लगातार पेयजल के रूप में प्रयोग से शरीर का कुछ हिस्सा खासकर पैर अचानक ही जकड़ने और ऐंठने लगते हैं। लेकिन जल के बिना भला कोई कब तक रह सकता है और कौन सा पेयजल शुद्ध है और कौन सा फ्लोराइड से प्रदूषित है इसका पता एक अनपढ़ ग्रामीण ही नहीं, पढ़े-लिखे शहरी भी अपनी आँखों से नहीं लगा पाएँगे क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में स्वाद तथा रंग और गंध में कोई अन्तर नहीं आता है।

दैनिक भोजन के द्वारा भी मानव शरीर में फ्लोराइड प्रविष्ट होता है और अतिरिक्त रूप में जमा हो जाता है। फ्लोराइड की मात्रा कुछ चुने हुए भोज्य पदार्थों में नीचे सारणी (तालिका 1) में दी गई है।

भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) ने भारतीय स्थिति के अनुसार पेयजल में फ्लोराइड की मानक सीमा 1.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक निर्धारित की है, जबकि राजस्थान के कई भागों में फ्लोराइड की मात्रा पेयजल (भूजल) में 24-41 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई है।

असम राज्य में फ्लोरोसिस पहली बार मई 1999 में कार्बी आंगलोंग जिला के टेकलानजन नामक जगह में दृष्टिगोचर हुआ था। यहाँ फ्लोरोसिस की उपस्थिति पेयजल (भूजल) में 5-23 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई थी।

अभी तक यह माना जा रहा है कि करीब 2 लाख की आबादी असम के भीतर फ्लोरोसिस की गिरफ़्त में है जबकि अभी तक केवल तीन जिलों (कार्बी आंगलोंग, नौगाँव तथा कामरूप) में ही इसकी पहचान हो पाई है (तालिका 3)

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार लगभग छः करोड़ भारतीय फ्लोरोसिस की चपेट मेें आ चुके हैं जिनमें बच्चों और महिलाओं की संख्या करीब साठ लाख है। लगभग 20 राज्यों में इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखते हैं। इनमें आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, तथा राजस्थान में तो यह अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी है जहाँ 50 से 100 प्रतिशत तक जिले प्रभावित हो चुके हैं।

फ्लोरोसिस से बचने के उपाय


फ्लोराइड जनित गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं का कोई इलाज तथा दवाई उपलब्ध नहीं है। सावधानियाँ बरतना ही एकमात्र उपाय है और इसे जितनी जल्दी हो सके अपनाना चाहिए ताकि और नुकसान न होने पाये।

चिकित्सा शास्त्र के अनुसार शुरुआती दौर में फ्लोरोसिस रोगी की पहचान निम्नांकित तीन शारीरिक व्यायामों (UNICEF 1996) के द्वारा की जा सकती है:

1. एक फ्लोरोसिस रोगी अपने हाथों से अपने पैरों को बिना घुटने को मोड़े स्पर्श नहीं कर सकता।
2. वह अपनी ठुड्डी से अपने सीने को नहीं छू सकता।
3. वह गर्दन के पीछे अपने दोनों हाथों को मोड़कर नहीं मिला सकता।

तालिका - 3 : भारतीय राज्य फ्लोरोसिस की चपेट में (स्रोत यूनिसेफ 1999, सुशीला- 1999)

 

भारतीय राज्य

प्रभावित जिलों की संख्या

फ्लोरोसिस प्रभावित जिलों के नाम

आन्ध प्रदेश

16

कुडप्पा, हैदराबाद, कृष्णा, मेडक, वारंगल, अनन्तपुर, करनूल, करीमनगर, नालगोंडा, प्रकाशम, चित्तूर, गुंटूर, खम्मम, महबूब नगर, नेल्लौर, रंगारेड्डी,

असम

3

कार्बी आंगलूंग, नौगाँव, कामरूप

बिहार

6

डाल्टनगंज, गया, रोहतास, गोपालगंज, पश्चिम चम्पारण, मुंगेर

छत्तीसगढ़

2

दुर्ग, दंतेवाड़ा

दिल्ली

7

पश्चिम जोन, उत्तर-पश्चिम जोन, पू्र्वी जोन, उत्तर पूर्वी जोन, मध्य जोन, दक्षिणी जोन, दक्षिण-पश्चिम जोन

गुजरात

18

अहमदाबाद, बनासगांठा, भुज, जुनागढ़ मेहसाणा, सूरत, बलसाड़, अमरही, भरुच, गाँधीनगर, पंचमहल, राजकोट, सुरेन्द्र नगर, भावनगर, जामनगर, खेड़ा, साबरकांठा, बड़ौदा

हरियाणा

12

रेवाड़ी, फरीदाबाद, करनाल, सोनीपत, जिंद, गुड़गांव, महेन्द्रगढ़, रोहतक, करुक्षेत्र, कैथल, भिवानी, सिरसा

जम्मू कश्मीर

1

डोडा

झारखण्ड

4

पाकुर, पलामू, साहेबगंज, गिरीडिह

कर्नाटक

16

धारवाड़, गंडक, वेल्लारी, वेलकगाँम, रायचुर, बिजापुर, गुलबर्गा, चित्रदुर्ग, तुमकुर, चिकमंगलूर, मंडिया, बंगलुरु (ग्रामीण क्षेत्र), मैसूर, मंगलौर, सिमोगा, कोलार

केरल

3

पालघाट, ऐलेप्पी, बावनपुरम

मध्य प्रदेश

14

शिवपुरी, झाबुआ, मंडला, डिंडोरी, छिंदवाड़ा, धार, विदिशा, सिवनी, सिहोर, रायसेन, मंदसौर, नीमच, उज्जैन, ग्वालियर

महाराष्ट्र

10

भण्डारा, चन्द्रपुर, बुलधाना, जलगाँव, नागपुर, अकोला, अमरावती, नांदेड़, सोलापुर, यवतमाल

उड़िसा

18

अंगुल, धानकनाल, बौद्ध, नयागढ़, पुरी, बालासोर, भद्रक, बालंगीर, गंजम, जगत सिंह पुर, जाजपुर, कालाहांडी, केवनझार, खुर्दा, कोरापुर, मयुरभंज, पुलवानी, रायगढ़

पंजाब

17

मांसा, फरीदकोट, भटिंडा, मुक्तसर, मोगा, संगरूर, फीरोजपुर, लुधियाना, अमृतसर, पटियाला, रोपण, जालंधर, फतेहगढ़ साहिब, कपूरथला, गुरदासपुर, होशियारपुर, नावांशहर

राजस्थान

32

भिलवाड़ा, अजमेर, सिरोही, टोंकनगर, जालौर, जोधपुर, सवाईमाधोपुर, दौसा, जयपुर, सीकर, अलवर, चुरू, भरतपुर, झुंझनु, जैसलमेर, बाड़मेर, पाली, राजसमन्द, बांसपाड़ा, डुंगरपुर, बिकानेर, धौलपुर, करौली, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, कोटा, बुंदी, झालावाड़, गंगानगर, बाटन, हनुमानगढ़,

तमिलनाडु

8

धर्मपुरी, इरोड, सालेम, कोयम्बटुर, तिरुचिरापल्ली, मदुरै, बेल्लौर, विरुधनगर,

उत्तर प्रदेश

7

वाराणसी, कन्नौज, प्रतापगढ़, फरुखाबाद, रायबरेली, उन्नाव, सोनभद्र

पश्चिम बंगाल

4

वीरभूस, बांकुड़ा, वर्धमान, पुरुलिया

 


अत्यधिक फ्लोराइड को मानव शरीर में जाने से रोकना


फ्लोराइड1. वैकल्पिक पेयजल स्रोत को अपनाना चाहिए जिसमें वर्षाजल का संरक्षित उपयोग, कम फ्लोराइड (मानक सीमा के भीतर) या फ्लोराइड फ्री भूजल स्रोत तथा नदी, तालाबों, झीलों इत्यादि के जल को शुद्ध करके पीने के उपयोग में लाना चाहिए।
2. ऐसी भोजन व्यवस्था अपनानी चाहिए जिसके अवयवों में कैल्शियम की मात्रा प्रचुरता से उपलब्ध हो सके। क्योंकि यह देखा गया है कि इस तरह दन्त फ्लोरोसिस के आक्रमण को कम किया जा सकता है। विटामिन ‘सी’ की मात्रा भी फ्लोरोसिस से लड़ने में सहायक सिद्ध हुई है।
3. पेयजल में घुलनशील फ्लोराइड को हटाने के लिये विभिन्न तकनीकों को अपनाना चाहिए। इनमें सबसे आसान, प्रभावी और प्रचलन में नालगोंडा तकनीक है इसमें फिटकरी ब्लीचिंग पाऊडर और चूने को चित्रानुसार उपयोग में लाकर फ्लोराइड को हटाया जा सकता है।
4. आज जहाँ चारों ओर पोलियो और एड्स की गम्भीरता और आयोडीन युक्त नमक के उपयोग के प्रति जन साधारण को जागृत करने के प्रयास हो रहे हैं उसी प्रकार फ्लोरोसिस सम्बन्धी जानकारी को भी लोगों तक पहुँचाना आवश्यक है।
5. फ्लोरोसिस की रोकथाम के लिये यह जरूरी है कि सामूहिक रूप में प्रयास किये जाएँ और समाज के सभी वर्गों को इस कार्य में सम्मिलित किया जाये जिनमें रोगी, लोक स्वास्थ्य इंजीनियर, जल वैज्ञानिक, नीति निर्धारणकर्ता, जन सामान्य, राज्य सरकारें, दन्त चिकित्सक, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, चिकित्सक, एनजीओ इत्यादि शामिल हों।

शशिरंजन कुमार
वैज्ञानिक ‘E - 1’,
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान,
बाढ़ प्रबन्धन अध्ययन केन्द्र, गुवाहाटी-781006

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