पेयजल पुनः सार्वजनिक क्षेत्र में

नागरिकों, कर्मचारियों और नीति निर्माताओं सहित सभी को जोड़ने का प्रयास किया गया है ताकि मानव जीवन के आधार, पानी को फिर से सार्वजनिक क्षेत्र में लाया जा सके। भारत भी पानी के निजीकरण से अछूता नहीं हैं। म.प्र. के खण्डवा, शिवपुरी, महाराष्ट्र के नागपुर, औरंगाबाद, नई दिल्ली, और कर्नाटक के मैसूर जैसे शहरों में जलप्रदाय के निजीकरण के खिलाफ स्थानीय समुदाय आन्दोलनरत हैं। ऐसे में गहन शोध के बाद तैयार यह पुस्तक भारत के लिये भी महत्त्वपूर्ण है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में जल प्रदाय के निजीकरण अनुबन्ध को स्थानीय अदालत ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे शहर के 99 लाख रहवासियों के पानी के मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है। जकार्ता में पानी का निजीकरण अनुबन्ध खत्म किया जाना सेवाओं के कम्पनीकरण के खिलाफ जारी जन संघर्षों की एक महत्त्वपूर्ण जीत है। जकार्ता की जलप्रदाय व्यवस्था का निजीकरण दुनिया के शुरूआती बड़े निजीकरणों में शामिल था।

18 वर्ष पूर्व स्थानीय शहरी निकाय ने जलप्रदाय व्यवस्था का ठेका पाम लियोनेज जया और आयत्रा आयर जकार्ता नाम की निजी कम्पनियों के समूह को दिया था। ठेका देते समय निजी कम्पनियों ने जलप्रदाय व्यवस्था के सुधार का आश्वासन दिया गया था। परन्तु खराब सेवा के कारण कम्पनियों से किया गया अनुबन्ध खत्म करने की माँग को लेकर स्थानीय समुदाय ने लम्बा अभियान चलाया और निजीकरण अनुबन्ध को स्थानीय न्यायालय में चुनौती दी गई। अन्ततः न्यायालय ने इस अनुबन्ध को खारिज कर दिया।

अब स्थानीय शहरी निकाय ने जलप्रदाय व्यवस्था पुनः अपने हाथ में ले ली है। जलप्रदाय और स्वच्छता सेवाओं के निजी क्षेत्र से नगरीय निकायों के अधिकार क्षेत्र में अन्तरण को पुनर्निगमीकरण कहा जाता है। जकार्ता का पुनर्निगमीकरण दुनिया का सबसे बड़ा पुनर्निगमीकरण है। इसका यह अर्थ लगाया जा रहा है कि पानी के निजीकरण का दौर खत्म हो रहा है और हम पुनः बेहतर, जवाबदेह और स्थाई सार्वजनिक जलप्रदाय की ओर बढ़ रहे हैं। लातूर (महाराष्ट्र) सहित दुनिया भर में अब ऐसे उदाहरण दिखाई देने लगे हैं।

ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूट,मल्टीनेशनल ऑब्जरवेटरी और पीएसआईआरयू नामक स्वयंसेवी समूहों ने हाल ही में पुनर्निगमीकरण की विश्वव्यापी घटनाओं का अध्ययन कर ‘अवर पब्लिक वाटर फ्यूचरः द ग्लोबल एक्सपीरियंस विथ रिम्युनिसिपलाईजेशन’ शीर्षक से एक रिपोर्ट, पुस्तक के रूप में प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट में पुनर्निगमीकरण के उभरते विश्वव्यापी रुझानों की ओर ध्यान दिलाते हुए पानी के निजीकरण के भविष्य पर बड़े सवाल खड़े किए गए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2000 और मार्च 2015 के बीच 37 देशों के 235 नगरीय निकायों में पानी के पुनर्निगमीकरण से 10 करोड़ नागरिक लाभांवित हुए। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इनमें से 184 मामले उच्च आय वाले देशों के हैं तथा शेष 51 मामले कम आय वाले देशों के हैं।

ज्यादातर मामले फ्रांस और अमेरिका के हैं जहाँ क्रमशः 94 और 58 नगरीय निकायों ने पुनर्निगमीकरण किया। वर्ष 2000 और 2010 के अपेक्षा वर्ष 2010 और 2015 के मध्य पुनर्निगमीकरण की दर दुगनी हो गई, जिससे सिद्ध होता है कि इस ओर रुझान बढ़ रहा है और इसे अपना चुके कई देशों के नगरीय निकाय अब इस प्रक्रिया को अन्य देशों में आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।

इस प्रक्रिया से एक बार पुनः सिद्ध हुआ है कि निजी कम्पनियों की बजाय सार्वजनिक क्षेत्र बेहतर सेवाएँ प्रदान कर सकता है। पिछले वर्षों में देखा गया कि बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा हथियाई गई निजीकृत जलप्रदाय व्यवस्थाएँ समुदाय की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं। इसलिये उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। खराब सेवा और पानी की खराब गुणवत्ता के लिये अकरा (घाना), दार-ए-सलाम (तंजानिया), जकार्ता (इंडोनेशिया), रेने (फ्रांस) और केमरॉन सिटी (अमेरिका) का निजीकरण बदनाम रहा है।

बर्लिन (जर्मनी), ब्यूनसआयर्स (अर्जेंटीना) और लातूर (भारत) में निजी कम्पनियों ने बुनियादी सेवाओं पर निवेश नहीं किया जिससे स्थानीय समुदाय ने इन्हें खारिज कर दिया। अलमाटी (कजाखिस्तान), मापूतो (मोजाम्बिक) सांता फे (अमेरिका), जकार्ता (इंडोनेशिया), ब्यूनस आयर्स (अर्जेंटीना), लापाज (बोलिविया) और कुआलालम्पुर (मलेशिया) में अनुबन्धकर्ता कम्पनियों ने संचालन खर्च और जलदरों में बेतहाशा वृद्धि की थी। ग्रेनोबल, पेरिस (फ्रांस) और स्टुटगार्ड (जर्मनी) में निजी जलप्रदायकों ने अपने फायदे के लिये वित्तीय पारदर्शिता और अटलांटा (अमेरिका), बर्लिन (जर्मनी) और पेरिस (फ्रांस) में सार्वजनिक निगरानी से परहेज किया। अंतालिया (तुर्की) और अटलांटा (अमेरिका) में कर्मचारियों की छँटनी और खराब सेवा के कारण पुनर्निगमीकरण करना पड़ा। हेमिल्टन (कनाडा) में निजीकरण अनुबन्ध खारिज करने का कारण पर्यावरणीय समस्याएँ थीं।

पुस्तक में दुनिया भर के 235 पुनर्निगमीकरण प्रकरणों का उल्लेख है जिनमें से 92 निजीकृत अनुबन्ध टिकाऊ नहीं होने के कारण नगरीय निकायों ने स्वयं इन्हें समाप्त करने का फैसला किया। शेष मामलों में या तो अनुबन्ध का नवीनीकरण नहीं किया गया अथवा निजी कम्पनियाँ स्वयं ही अलग हो गईं।

वैसे तो रिपोर्ट में उल्लेखित हर मामला अपने आप में अलग है लेकिन पुनर्निगमीकरण से खर्च में कमी, संचालन क्षमता में वृद्धि, जलप्रदाय तन्त्र में निवेश और पारदर्शिता होने के ठोस प्रमाण मिले हैं। इसके अतिरिक्त रिपोर्ट में इसके बाद सार्वजनिक जलप्रदाय सेवाओं को ज्यादा जवाबदेह, सहभागी और पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ बनाने में मदद मिलने के प्रमाण दिए गए हैं। पेरिस की नगरपालिका को जलप्रदाय का निजीकरण खत्म करने पर पहले ही वर्ष में साढ़े 3 करोड़ यूरो (करीब 231 करोड़ रुपए) की बचत और ह्यूस्टन (अमेरिका) की नगरपालिका को सालाना 20 लाख डॉलर (करीब साढ़े बारह करोड़ रुपए) की सालाना बचत हुई।

पुनर्निगमीकरण के बाद दार-ए-सलाम (तंजानिया), बर्लिन (जर्मनी) और मेदिना सिदोनिया (स्पेन) में जलप्रदाय तन्त्र में काफी निवेश बढ़ा तथा पेरिस और ग्रेनोबल (फ्रांस) में पारदर्शिता और जवाबदेही में बढ़ोत्तरी देखी गई। ब्यूनसआयर्स (अर्जेंटीना) में जल दरें कम हुईं जिससे सभी को पानी मिलना और उसका समतामूलक बँटवारा सुनिश्चित हुआ। अध्ययन में कुछ ऐसे मामलों का भी उल्लेख है जिनमें निजी कम्पनियाँ पुनर्निगमीकरण के खिलाफ न्यायालयों में गई और नगरीय निकायों से हर्जाना भी माँगा।

पुस्तक में पुनर्निगमीकरण के दौर में मिले सबको की विस्तृत विवेचना है। जो निकाय जलप्रदाय को सार्वजनिक क्षेत्र में लाना चाहते हैं उनकी सहायता के लिये पुस्तक में एक चैकलिस्ट दी गई है। निजीकरण या पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के बदले नगरीय निकायों की क्षमता वृद्धि हेतु पब्लिक-पब्लिक पार्टनरशिप (जन-जन भागीदारी) मॉडल सुझाया गया है जिसमें नगरीय निकायों के साथ जनता या अन्य सार्वजनिक निकायों की भागीदारी होती है।

अध्ययनकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि इससे वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक दृष्टि से बेहतर, पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ और अच्छी गुणवत्ता की सेवाएँ प्रदान की जा सकती हैं। पुनर्निगमीकरण को ट्रेड यूनियनों के लिये एक अवसर बताते हुए कहा गया है कि इससे कार्यस्थल की परिस्थितियों में भी सुधार लाया जा सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक जलप्रदाय में लगे कर्मचारियों की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और सार्वजनिक सेवाओं की दरों को और बेहतर बनाया जा सकता है।

पुस्तक में अध्ययन के अनुभवों, सबकों और बेहतर तरीकों द्वारा नागरिकों, कर्मचारियों और नीति निर्माताओं सहित सभी को जोड़ने का प्रयास किया गया है ताकि मानव जीवन के आधार, पानी को फिर से सार्वजनिक क्षेत्र में लाया जा सके। भारत भी पानी के निजीकरण से अछूता नहीं हैं। म.प्र. के खण्डवा, शिवपुरी, महाराष्ट्र के नागपुर, औरंगाबाद, नई दिल्ली, और कर्नाटक के मैसूर जैसे शहरों में जलप्रदाय के निजीकरण के खिलाफ स्थानीय समुदाय आन्दोलनरत हैं। ऐसे में गहन शोध के बाद तैयार यह पुस्तक भारत के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।

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