पहले कुदरती, फिर जैविक और अब रासायनिक

28 Jul 2018
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कृषि
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आजकल ऐसी खबरें तेजी से फैल रही है कि किसान खेती छोड़ रहे हैं, कर्जे में डूब रहे हैं, आत्महत्या करने लगे हैं। इसका कारण भी अजैविक खेती ही मानी जा रही है। क्योंकि बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ खेती के काम में मुनाफा कमाने के लिये आ गई हैं। वो खेती को परम्परागत रूप में नहीं कर रही हैं। उन्हें त्वरित और अत्यधिक लाभ चाहिए इसीलिये वो रासायनिक खादों का इस्तेमाल कर खेती को तबाह कर रही हैं जिससे बिमारियों में इजाफा और जमीन की आर्द्रता खत्म होने जैसी समस्या खड़ी हो रही है।

खेती, मनुष्य द्वारा अपनाया जाने वाला सबसे पहला उद्यम है। उसका ध्यान सबसे पहले इसी उद्यम की तरफ गया और तब से लगातार वह खेतीबाड़ी कर रहा है। सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के साथ ही खेती मनुष्य का स्थायी व्यवसाय बन गया। खेती की शुरुआती तरीका बेहद परम्परागत था।

किसान लकड़ी के बने औजार का इस्तेमाल करते थे और मिट्टी की गुणवत्ता के अनुसार स्थान बदल-बदलकर फसलों की पैदाइश करते थे। इसे तब कुदरती खेती कहा जाता था। सूचनाओं के आदान-प्रदान, विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति आदि से मनुष्य का रूप-रंग बदला तो खेती के तौर-तरीके भी बदले गए।

ज्ञात हो कि तब जैविक खेती ही स्वस्थ जीवन के लिये सर्वोपरि मानी जाती थी। अब तो विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ लोग खुद के खान-पान में भी प्राकृतिक नहीं अप्राकृतिक चीजों का समावेश करने लग गए हैं जिसे रासायनिक खेती कहते हैं।

वर्तमान में खान-पान के इस नए प्रयोग ने जैविक उत्पादों को बाजार से बाहर तो किया लेकिन इन उत्पादों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों ने जैविक उत्पादों की धमक को फिर से कायम कर दिया है। बस फर्क इतना है जैविक उत्पादों का उत्पादन कम हो चुका है जिसे बढ़ाने के लिये देश भर में अलग-अलग जगहों पर लोग जैविक खेती करने लग गए हैं। इधर सरकारें जैविक और अजैविक खेती का प्रचार-प्रसार साथ-साथ कर रही हैं। खैर! जैविक खेती का अब तक कोई तोड़ नहीं है।

पूर्व की कुदरती खेती

दरअसल कुदरती खेती अब कोई करता नहीं है। लोग स्थायी हो चुके हैं। कुदरती खेती आमतौर पर जंगल, नदी आदि क्षेत्रों में खाली पड़ी जमीन पर होती थी जैसा कि इतिहास में बताया जाता है। भूसर्वेक्षण भी बताते हैं कि लोग किसी जमाने में स्थायी रूप से निवास नहीं करते थे वे जहाँ बसेरा करते थे वहाँ खेती भी करते थे। कुछ समय पश्चात दूसरी जगह बसेरा बनाकर खेती करते थे।

किसी भी प्रकार की खाद का कोई चलन नहीं हुआ करता था। सो प्राकृतिक खादों का ही इस्तेमाल हुआ करता था। खेती पर शोध कर रहे शोधार्थी बताते हैं कि जब से मनुष्य ने अपना बसेरा स्थायी और विलासिता का बनाया तब से खेती में भी परिवर्तन हुए हैं। वे बताते हैं कि लम्बे समय तक एक ही जगह पर खेती करना उत्पादन की क्षमता पर प्रभाव डालता है।

ऐसी स्थिति में जमीन की आर्द्रता में कमी आ जाती है और फसलों में प्रोटीन की मात्रा भी घट जाती है। महान ग्रन्थ महाभारत में ऐसे कई प्रसंग आते हैं कि लोग पशुपालन और खेती-बाड़ी अस्थायी रूप से करते थे। आज भी देश भर में महाभारत काल के अवशेष दिखाई देते है। कहीं द्रौपदी कुण्ड, कहीं भीम का हल, तो कहीं ग्वाल-बालों के रौखड़ और पशुशालाएँ इत्यादि जैसे अवशेष बताते हैं कि उन दिनों लोग खेती भी करते थे, पशुपालन भी करते थे।

बिना-जुताई की खेती

वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि जब से आधुनिक व वैज्ञानिक खेती का चलन आरम्भ हुआ है, तब से खेती-किसानी की हालत बहुत खराब हो गई है। ऐसा खेतों में अप्राकृतिक कृषि यंत्रों द्वारा जुताई करने और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से हुआ है। कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि जमीन की जुताई को एक पवित्र काम माना जाता रहा है, किन्तु इससे होने वाले नुकसान को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। कहते हैं कि अब जो कृषि कार्य अतिवैज्ञानिक हो चला है वह ही रोगों के कारण बनते जा रहा है।
 

जापान के कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओका जी मौसम के अनुसार फसलों के बीजों का छिड़काव करते हैं जरूरत पड़ने पर पानी दे देते हैं। फसल पकने के बाद उनको काट कर गहाई करने के बाद बचे अवशेषों को वापस खेतों में जहाँ-तहाँ डाल देते हैं। बिना-जुताई की कुदरती खेती अथवा बिना-जुताई की जैविक खेती से मिलने वाले उत्पादों से कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी का उपचार हो रहा है।

मरुस्थल में फसलों को पैदा करने के लिये खाद और दवाओं का इस्तेमाल बढ़ता जाता है जबकि उत्पादन तथा गुणवत्ता घटती जाती है। किसान को लगातार घाटा होता रहता है। इधर किसानों का कहना है कि मशीन की जुताई नहीं करने और रासायनिक खादों का इस्तेमाल न करने से जमीन पुनः ताकतवर हो जाती है। फसल पैदा करने के लिये किसी भी प्रकार की दवा की जरूरत नहीं रहती है। इस तरह से पैदा हो रहे अनाज के सेवन से बिमारियों का ग्राफ तब नीचे आ जाता है।

जैविक खेती के फायदे

कहा जाता है कि कुदरती खेती करने से कृषि कार्यों में कुल खर्च का 80 फीसदी हिस्सा तब कम हो जाता है। जब जुताई, निराई, गुड़ाई आदि के लिये इस्तेमाल की जाने वाली मशीनों पर प्रतिबन्ध लग जाये तो मौसम के अनुसार फसलों के उत्पादन और गुणवत्ता दोनों में ही सुधार होता है।

जापान के कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओका जी का मानना है कि जब जमीन की जुताई की जाती है तो बारीक व खरी मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड़ में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है। जुताई के कारण चूहों, चीटे-चींटी, केंचुओं आदि के घर जो बरसात के पानी को जमीन के भीतर ले जाने का काम करते हैं मिट जाते हैं, जिससे बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है। वे आगे बताते हैं कि ऊपरी सतह की मिट्टी असली कुदरती खाद होती है करीब 10 टन प्रति एकड़ कुदरती खाद हर साल इस प्रकार बह जाती है। अर्थात रासायनिक खादों और आधुनिक कृषि यंत्रों से खेती की भूख और प्यास अनियंत्रित हो जाती है। कहते हैं कि प्राकृतिक रूप से हो रही खेती से उत्पादित उत्पाद ताकतवर होते हैं जिनसे बीमारी का कोई प्रकोप नहीं रहता है।

 

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organic farming, use of fertilisers, human health hazard, growing number diseases, involvement of multinational houses in farming.

 

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