पंचायत समिति पिपलखुन्ट की भूजल स्थिति


पंचायत समिति, पिपलखुन्ट (जिला प्रतापगढ़) अतिदोहित (डार्क) श्रेणी में वर्गीकृत

हमारे पुरखों ने सदियों से बूँद-बूँद पानी बचाकर भूजल जमा किया था। वर्ष 2001 में भूजल की मात्रा प्रतापगढ़ जिले में 155 मिलियन घनमीटर थी जो अब घटकर 146 मिलियन घनमीटर रह गई है। भूजल अतिदोहन के कारण पानी की कमी गम्भीर समस्या बन गई है।

पिपलखुन्ट पंचायत समिति में वर्ष 1984 में भूमि में उपलब्ध पानी का प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत ही उपयोग करते थे लेकिन अब 76 प्रतिशत दोहन कर रहे हैं अर्थात कुल वार्षिक पुनर्भरण की तुलना में 1.67 मिलियन घनमीटर भूजल अधिक निकाला जा रहा है।

पिपलखुन्ट पंचायत समिति में 1984 में औसत 6.03 मीटर गहराई पर पानी उपलब्ध था जो अब 7.44 मीटर तक हो गया है।

राजस्थान की भूजल स्थिति


जल प्रकृति की अमूल्य देन है और जीव मात्र का अस्तित्व इसी पर टिका है। समय के बदलाव के साथ इस प्राकृतिक संसाधन का अत्यधिक दोहन होना तथा वर्षा की कमी से प्रदेश में जल संकट के हालात सामने आ रहे हैं। राजस्थान देश का सबसे बड़ा राज्य है। राज्य में सतही जल की कम उपलब्धता एवं कमी के कारण पीने के पानी की लगभग 90 प्रतिशत योजनाएँ एवं 60 प्रतिशत सिंचाई कार्य भूजल पर आधारित है। प्रदेश में हमारे पूर्वज जल का महत्व समझते थे एवं प्रारम्भ से ही सुदृढ जल प्रबन्धन कर रहे थे। विगत 40-50 वर्षों से जब से राज्य सरकार ने पेयजल प्रबन्धन की जिम्मेदारी ली एवं यह जल बहुत कम मूल्य पर बिना श्रम किये मिलने लगा, हम इसका महत्व भूल गये एवं वर्षाजल संचयन जो कि हमारे पूर्वज वर्षों से कर रहे थे वह भी बन्द कर दिया। इसके साथ ही भूजल की अंधाधुन्ध निकासी तथा वर्षाजल से भूजल पुनर्भरण में गिरावट के परिणामस्वरूप प्रदेश की भूजल स्तर तेजी से गिरने लगा। राज्य के पिछले वर्षों की भूजल स्थिति इंगित करती है कि हम किस प्रकार गम्भीर भूजल संकट की तरफ बढ़ रहे हैं। जहाँ वर्ष 1984 में 86 प्रतिशत क्षेत्र सुरक्षित श्रेणी में आते थे वहीं वर्तमान में मात्र 13 प्रतिशत क्षेत्र ही सुरक्षित श्रेणी में आते हैं। वर्तमान में 237 में से 198 ब्लॉक्स डार्क श्रेणी में हैं।

वर्ष

पंचायत समिति

सुरक्षित

अर्द्धसंवेदनशील

संवेदनशील

अति-दोहित

1984

237

203 (86 प्रतिशत)

10 (04 प्रतिशत)

11 (05 प्रतिशत)

12  (05 प्रतिशत)

1995

237

127 (54 प्रतिशत)

35 (15 प्रतिशत)

14 (06 प्रतिशत)

60 (25 प्रतिशत)

2001

237

49 (21 प्रतिशत)

21 (09 प्रतिशत)

80 (34 प्रतिशत)

86 (36 प्रतिशत)

2008

237

30 (13 प्रतिशत)

08 (03 प्रतिशत)

34 (14 प्रतिशत)

164 (69 प्रतिशत)

चूरू जिले की एक पंचायत समिति तारानगर खारे क्षेत्र में वर्गीकृत है।

 

प्रतापगढ़ जिले की भूजल स्थिति


1. सामान्य तौर पर ऐसा मानते हैं कि भूमि के नीचे पाताल में अथाह भूजल है। यह भ्रम है। भूजल का एकमात्र स्रोत वर्षाजल है। जितनी वर्षा होती है उसका 12 से 15 प्रतिशत जल ही धरती में जाता है एवं हमें भूजल के रूप में उपलब्ध होता है। चट्टानी क्षेत्रों में तो भूमि के नीचे जाने वाले वर्षाजल की मात्रा 12 प्रतिशत से भी कम होती है।

2. प्रतापगढ़ जिले का कुल क्षेत्रफल 4359.80 वर्ग किलोमीटर है एवं सामान्य वार्षिक वर्षा 843.3 मिलीमीटर (1901-2010) है। पठारी क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा का लगभग 12 प्रतिशत एवं चट्टानी क्षेत्रों में 7 प्रतिषत जल ही भूमि में जाता है, जिससे लगभग 146 मिलियन घनमीटर भूजल जमा होता है। लेकिन इसके विरुद्ध 179 मिलियन घनमीटर भूजल का दोहन कर रहे हैं। जिले में लगभग 100 प्रतिशत पेयजल योजनाएँ एवं सिंचाई कार्य भूजल पर आधारित है। सबसे अधिक पानी लगभग 97 प्रतिशत कृषि में, 3 प्रतिशत पेयजल में एवं शेष उद्योगों तथा अन्य गतिविधियों में खर्च होता है।

3. प्रतापगढ़ जिले में मुख्य रूप से चार तरह के एक्वीफर (भूजल क्षेत्र) हैं:- बेसाल्ट 1830 वर्ग किमी, शेल 306 वर्ग कि.मी., फिलाइट शिष्ट 107 वर्ग कि.मी. एवं नाइसेस 707 वर्ग कि.मी. क्षेत्र हैं।

4. जब क्षेत्र में उपलब्ध होने वाले भूजल का 100 प्रतिशत से अधिक दोहन किया जाये यानि वर्षाजल से पुनर्भरित भूजल के अलावा पूर्वजों द्वारा अनंत वर्षों से संचित किये भूजल धन में से भी भूजल का दोहन किया जाये तो क्षेत्र अतिदोहित (डार्क) श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है, अर्थात इस क्षेत्र में भूजल का अतिदोहन हो रहा होता है।

5. जिले में वर्ष 1995 में भूजल दोहन 56 प्रतिशत था, जो वर्तमान में बढ़कर 123 प्रतिशत हो गया है एवं यह अतिदोहित श्रेणी में वर्गीकृत है।

6. हमारे पुरखों द्वारा भविष्य की पीढ़ियों हेतु पानी के संरक्षण की परम्परा का निर्वहन करते हुये भूजल के भंडार हमारे लिये जमा किये गये थे। वर्ष 2001 में प्रतापगढ़ जिले में भूजल भंडार 155 मिलियन घनमीटर थे, लेकिन हमने भूजल का अनियोजित दोहन किया, जिसके कारण वर्तमान में यह भंडार 146 मिलियन घनमीटर ही बचे हैं। यदि वर्तमान गति से ही भूजल दोहन होता रहा एवं इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किये गये तो उपलब्ध भंडार अगले कुछ वर्षों में समाप्त प्रायः हो जायेंगे।

7. प्रतापगढ़ जिले में वर्ष 1984 में औसत भूजल स्तर 8.57 मीटर था जो वर्ष 2010 में गिरकर 10.73 मीटर तक हो गया है। इससे विद्युत व्यय बढ़ गया है। नलकूप एवं कूप सूख गये हैं, एवं सूख रहे हैं। इससे गाँव में सिंचाई के साथ-साथ पेयजल का भी संकट पैदा हो गया है।

8. जनसंख्या वृद्धि और अन्य प्रकार की जल आवश्यकताओं में वृद्धि से प्रतापगढ़ जिला अत्यधिक जल संकट की ओर अग्रसर हो रहा है। राज्य में प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 780 घनमीटर है जबकि न्यूनतम आवश्यकता 1000 घनमीटर आंकी गयी है।

9. प्रतापगढ़ जिले में कुल 5 पंचायत समितियाँ हैं। (1) अरनोद (2) छोटीसादड़ी (3) धरियावद (4) पिपलखुन्ट (5) प्रतापगढ़ इनमें से अरनोद, छोटीसादड़ी एवं प्रतापगढ़ अतिदोहित श्रेणी में हैं, धरियावद क्रिटिकल श्रेणी में तथा पिपलखुन्ट सुरक्षित श्रेणी में हैं।

पंचायत समिति पिपलखुन्ट में भूजल स्थिति


प्रतापगढ़ जिले के दक्षिण पश्चिम भाग में स्थित है तथा कुल क्षेत्रफल 840.86 वर्ग कि.मी. है।
कुल भूजल क्षेत्र 483.50 वर्ग कि.मी. तथा पूर्ण क्षेत्र चट्टानी है।
मुख्य रूप से दो तरह के एक्वीफर (भूजल क्षेत्र) हैं। पूर्वी भाग में बेसाल्ट 300.38 वर्ग कि.मी. एवं पश्चिमी भाग में नाईसेस 183.12 वर्ग कि.मी.।
औसत वार्षिक वर्षा 861.8 मि.मी. है। (1901 - 2010)
भूजल स्तर 6 मीटर से 10 मीटर के मध्य है।
क्षेत्र में माही नदी है जोकि सदाबहार नदी है।
भूजल भंडारों का पुनर्भरण सिर्फ वर्षाजल से होता है।
भूजल स्तर में गिरावट प्रतिवर्ष 0.05 मीटर है।
सुरक्षित श्रेणी में वर्गीकृत। भूजल दोहन 75.64 प्रतिशत है।
वार्षिक भूजल पुनर्भरण 21.43 मिलियन घनमीटर है। जबकि प्रतिवर्ष सिंचाई, पीने एवं अन्य उपयोग हेतु 16.21 मिलियन घनमीटर भूजल जमीन में से निकाला जा रहा है।
5.22 मिलियन घनमीटर पानी ही जमा पूँजी है। यदि इसी प्रकार भूजल निकाला जाता रहा तो 10 से 20 वर्षों में क्षेत्र के भूजल भंडार खत्म हो जायेंगे।

भूजल अतिदोहन


निम्न तथ्य संकेत करते हैं कि क्षेत्र में भूजल का अतिदोहन हो रहा है।
वर्ष 1984 में भूजल स्तर औसतन 6.03 मीटर था जो अब गिरकर 7.44 मीटर तक हो गया है।
वर्ष 1984 से 2010 तक भूजल स्तर में गिरावट 0.3 से 4 मीटर तक है।
वर्ष 1984 में वार्षिक भूजल पुनर्भरण 18.55 मिलियन घनमीटर था जो वर्तमान में 21.43 मिलियन घनमीटर हो गया है।
वर्ष 1984 में कृषि, पीने एवं अन्य उपयोग हेतु 1.79 मिलियन घनमीटर भूजल जमीन में से निकाला जा रहा था जबकि वर्तमान में 16.21 मिलियन घनमीटर भूजल विभिन्न उपयोग हेतु जमीन में से निकाला जा रहा है।
1984 की तुलना में वर्तमान में 14.42 मिलियन घनमीटर भूजल अधिक निकाला जा रहा है अर्थात 805.59 प्रतिशत अधिक।
वर्ष 1984 में भूजल दोहन मात्र 9.66 प्रतिशत था जबकि वर्तमान में 75.64 प्रतिशत है।

घटते भूजल संसाधन एवं अतिदोहन के कारण


बढ़ती जनसंख्या, प्रति व्यक्ति जल खपत में वृद्धि, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई एवं वर्षा में कमी।
बढ़ता शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण। भूजल का मशीनों एवं विद्युत यंत्रों द्वारा अंधाधुन्ध दोहन।
क्षेत्र में 100 प्रतिशत सिंचाई कार्य एवं पेयजल योजनाएँ भूजल पर आधारित हैं। अतः इस हेतु जल माँग को पूरा करने के लिये भूजल का अधिकाधिक दोहन किया जा रहा है।
उपलब्ध भूजल के अनुसार उचित फसलों का चुनाव नहीं करना बल्कि अधिक पानी से उगाई जाने वाली फसलों का चुनाव करना।
जल प्रबन्धन में जन सहभागिता का अभाव। समाज की सरकार पर बढ़ती निर्भरता, स्वार्थी प्रवृत्ति एवं जल के प्रति संवेदनहीनता।
भूजल के अलावा जल के अन्य स्रोतों का उपलब्ध नहीं होना।
ग्राम-तालाबों, बावड़ियों, टांकों जैसे जल संरक्षण के प्राचीन साधनों का उपयोग न करना तथा उसके परिणामस्वरूप भूजल निकासी पर अत्यधिक दबाव।

भूजल भंडारों के अतिदोहन से दुष्प्रभाव


भूजल स्तर में भारी गिरावट। कुँओं, बोरवैल आदि के डिस्चार्ज में कमी होना एवं इनका सूखना। बिजली पर अधिक खर्चा।
भूजल गुणवत्ता में गिरावट, प्रतापगढ़ जिले में अतिदोहन से भूजल स्तर गिरने के कारण भूजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
10 से 15 वर्षों में भूजल भंडारों के समाप्त होने की सम्भावना।
भविष्य में शुद्ध पेयजल आपूर्ति की चुनौती।
भावी पीढ़ी के लिए गम्भीर जल संकट को बुलावा।

जल प्रबंधन निम्न प्रकार से किया जाना चाहिये, क्या इस स्थिति में सुधार हो सकता है?


जी हाँ। विश्व में भूजल प्रबन्धन इस तरह किया जाता है कि उपलब्ध समस्त भूजल का 70 प्रतिशत से अधिक उपयोग में नहीं लिया जाये ताकि भविष्य हेतु जल संरक्षित किया जा सके। यह सर्वविदित है कि प्राकृतिक संसाधन पैदा नहीं किये जा सकते लेकिन समुदाय के प्रयासों से भूजल संरक्षित एवं पुनर्भरित किया जा सकता है। इसलिये जल प्रबन्धन का केन्द्र बिन्दु जल संरक्षण करें तो ही जल संकट से निपटा जा सकता है। अब समय आ गया है कि ‘जितना बचाओगे - उतना पाओगे’ की धारणा पर कार्य करना होगा।

घरेलू/व्यक्तिगत स्तर पर


1. घरेलू निष्कासित जल का बगीचों आदि में पुनः उपयोग करना एवं घरेलू नलों से व्यर्थ पानी न बहाना।
2. खाना पकाने के लिये छोटे आकार के बर्तन व समुचित मात्रा में पानी का उपयोग करना। खाना बर्तन ढक कर बनाना ताकि वाष्पीकरण से जल की क्षति को बचाया जा सके।
3. खाना बनाने के लिये पेड़ पौधों की कटाई पर अंकुश लगाना ताकि औसत वार्षिक वर्षा में बढ़ोत्तरी हो सके, साथ ही मृदा संरक्षण भी की जा सके।
4. घरों में वर्षाजल संग्रहण हेतु व्यवस्था करना, ताकि घरेलू कार्य हेतु भूजल दोहन के दबाव को कम किया जा सके।
5. सार्वजनिक नल आदि से जल को न बहने दें। घरों व होटलों में फव्वारों से नहा कर जल बर्बाद न करें। शौचालय में कम क्षमता के सिस्टम लगाना।
6. प्रत्येक घर में वर्षा जल से भूजल पुनर्भरण हेतु पुनर्भरण संरचना बनाई जाए जिससे भूजल भंडारों में बढ़ोत्तरी की जा सके।

कृषि क्षेत्र स्तर पर


1. फव्वारा व बूँद-बूँद सिंचाई पद्धति को अपनाना ताकि पानी की 40 से 60 प्रतिशत तक बचत की जा सके।
2. कम पानी के उपयोग वाली फसलों को उगाकर लगभग 30 से 40 प्रतिशत तक पानी बचाया जा सकता है।
3. उचित मात्रा में उपयुक्त खाद व कीटनाशक दवाईयों का उपयोग करना ताकि शुद्ध जल को प्रदूषण से बचाया जा सके।

औद्योगिक स्तर पर


1. सभी उद्योगों को उपयोग में लाये गये पानी की 80 प्रतिशत मात्रा को पुनः उपयोग हेतु रिसायकलिंग आवश्यक करना।
2. सभी उद्योगों में कृत्रिम भूजल पुनर्भरण अनिवार्य होना चाहिये।

सामुदायिक स्तर पर


1. नलकूप/हैण्डपम्प आदि के आस-पास भरे हुये जल को पुनर्भरण संरचनाएँ बनाकर कृत्रिम रूप से भूजल का पुनर्भरण करें एवं इस भरे/एकत्रित जल को व्यर्थ नहीं जाने दें।
2. वर्षा से होने वाले वार्षिक भूजल पुनर्भरण की गणना कर स्वयं फैसला करें कि कितना भूजल निकाला जाना है।
3. अनुपयोगी कुँओं, नलकूपों, हैण्डपम्प आदि का भूजल कृत्रिम पुनर्भरण के लिये उपयोग करना।
4. गाँवों के तालाबों, बावड़ियों आदि का जीर्णोद्धार करना जिसमें वर्षाजल एकत्रित कर उपयोग में लिया जा सके। यह कार्य मनरेगा योजना के अन्तर्गत भी किया जा सकता है।
5. तालाब आदि सतही जल के वाष्पीकरण की दर को न्यूनतम करने के प्रभावी तरीकों को लागू करना।

भूजल सम्बन्धित सामान्य भ्रम


भ्रम: पाताल तक पानी है, नीचे नदियाँ बहती हैं।
सच्चाई: कुल वर्षा से प्राप्त पानी की 12 से 15 प्रतिशत मात्रा ही भूजल में जमा होती है। यही पानी उपयोग हेतु उपलब्ध है। नीचे कोई नदियाँ नहीं बह रही हैं।
भ्रम: जितना गहरा जाओगे उतना ही अधिक पानी मिलेगा।
सच्चाई: जी नहीं। गहराई में जाने से जरूरी नहीं कि अधिक मात्रा में पानी मिले।
भ्रम: वर्षा का पानी गंदा होता है, पीने लायक नहीं।
सच्चाई: यदि वर्षाजल का संग्रहण वैज्ञानिक तरीके से किया जाए तो यह पानी सबसे स्वच्छ है एवं पीने योग्य है। राजस्थान में टांके व बावड़ियों में पानी एकत्र कर पीने के उपयोग में लाने की सदियों पुरानी परम्परा है।
भ्रम: यदि भूजल पुनर्भरण करूँगा तो उसका लाभ मुझे नहीं होगा?
सच्चाई: इसका लाभ आपको एवं आपके नजदीक वाले कुँओं को भी मिलेगा। यदि सभी करेंगे तो सभी लाभान्वित होंगे।

वर्षाजल से, कम लागत की भूजल पुनर्भरण संरचना (संरचना ढकी होनी चाहिये।)

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