पंचेश्वर बाँध के डूब क्षेत्र सरयू घाटी में जन जागरण

5 Oct 2009
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17 सितम्बर 09 की शाम मैं, शंकर सिंह, लक्ष्मण और वरिष्ठ साथी डॉ. रमेश पंत पव्वाधार कार्यालय पहुँचे। हम सबने इरादा किया कि सरयू घाटी के गाँवों में बांध विरोध के लिये संदेश पहुँचाया जाये। इससे पूर्व ‘उत्तराखंड जन मैत्री संगठन’ का गठन कर पर्चे-पोस्टरों के माध्यम से अभियान की शुरूआत कर दी गयी थी।

पंचेश्वर बांध का डूब क्षेत्र सरयू नदी में बहुत लंबा है। सबसे उपजाऊ इस घाटी में आजादी से आज तक सड़क, अस्पताल, बिजली नहीं है। परंतु प्रकृति ने इसे पानी, उपजाऊ जमीन और बेशकीमती जंगलों, उपखनिजों की सौगात दी है। इस घाटी में लोग अमीर नहीं हैं पर अपने स्वावलंबन से इनका जीवन समृद्ध है।

हम 18 सितम्बर को सेरागढ़ा पहुँचे। वहाँ से बुशैल गांव की निर्मला भी हमारे साथ जुड़ी। हमने दीवार लेखन के लिये सामग्री खरीदी और दिवारों में लिखना प्रारम्भ किया। नदी के दोनों ओर बुशैल, नैचुना, जिंगल, सेरागढ़ा, बमोरी, देवलीबगड़, कुनगड़ा, बिबड़ी, बढ़ी, सलाण, रैतोला सब एकदम नदी को छूते गाँव हैं। यह समय खेती के काम का है। धान की महक पूरे घाटी क्षेत्र में फैली है। इसलिये लोग सुबह उठकर खेतों में चले जाते हैं। दिन बहुत गर्म हैं। लोगों के बीच सामूहिक चर्चा संभव नहीं है। हम लिखते चलते हैं। सलाण डूब क्षेत्र की पुष्पा हमारे साथ जुड़ गई है। शंकर सिंह और डॉ रमेश पंत स्थान-स्थान पर रुक कर लोगों से चर्चा करते हैं।

घाटी में विकास की आवश्यकता



सरयू घाटी भी अन्य घाटियों की तरह उपेक्षा का शिकार है। यकीनन यह इस सीमांत क्षेत्र की जनता के साथ गहरी साजिश है। इस घाटी के विद्यालयों में शिक्षक नहीं हैं, यहाँ अस्पताल नहीं हैं। पूरी संभावनाओं के बावजूद यहाँ सड़कें नहीं हैं। यहाँ नदी है, नदी के 50-100 फीट ऊपर के खेत सिंचाई से वंचित हैं। आम, अमरूद, लीची, पपीता, नीबू, कटहल यहाँ अच्छा हो सकता है। इसके लिये यहाँ कोई प्रयास नहीं हुआ है।

धान, मडुवा, मादिरा, गेहूँ, मक्का विभिन्न प्रकार की दालें यहाँ पर होती हैं। यह सब लोग अपने परिश्रम से उगाते हैं। यहाँ टनकपुर से नदी के दोनों तटों से मोटरमार्ग या रेलमार्ग बनना संभव है पर अभी तो रास्ते इतने विकट हैं कि उन पर चलने से मौत के दर्शन हो जाते हैं। बड़े साहस के साथ जीने वाले यहाँ के लोग भारतीय राष्ट्र राज्य के लिये मात्र वोटर की हैसियत रखते हैं।

इस घाटी से निकलकर सड़क तक आना बड़ी चुनौती है। चारों ओर से सड़क 10 किमी. चलकर ही मिलेगी। यहाँ बेचैनी या असंतोष नहीं है। मेले-त्यौहारों, देवता और खेती-पशुपालन, मैत्री के अन्योआश्रित संबंध लोगों को उमंग और प्रेम से भरते हैं। वास्तव में सरयू घाटी का यह उपजाऊ इलाका विकास की दृष्टि से उपेक्षित और लक्ष्य से वंचित है।

सभ्यता का विकास केन्द्र नदी घाटियां


डॉ. रमेश पंत कहते हैं कि ‘सभ्यता’ का विकास ही नदी घाटियों से हुआ है। यहीं से जीवन बढ़ा। उत्तराखंड के जीवन में नदी घाटियों का बड़ा महत्व है। यह पर्वतीय प्रदेश गंगा की जन्म स्थली है। छोटे-छोटे प्राकृतिक स्रोत नालों (गधेरों) के रूप में बहकर बनाते हैं नदी। और नदी बनाती है अपने चारों ओर लोगों के रहने बसने की परिस्थितियाँ। यहाँ जो भी बसासतें इन सुदूर नदी तटों पर बसी हैं उनके लिये नदी न सिर्फ पूज्यनीय हैं, वरन उनका पालन करने वाली अन्नपूर्णा माँ भी हैं। चाहे वह गंगा यमुना की घाटी हो या रामगंगा, कोसी, सरयू, काली का प्रवाह पथ, सब में लोग व उनके पवित्रतम तीर्थ, शहर, शमशान और गांव बसे हैं। इनके गीत-संगीत से लेकर पौराणिक आख्यान इन्हीं नदियों के किनारों पर पैदा हुए हैं। आज के शहरों के बसने के पीछे भी इन्हीं नदियों की कमाई लगी है। व्यापक मानवीय सभ्यता एवं लोक विरासत का केन्द्र यहां की नदी घाटियां हैं, पर सभी जगह उपेक्षित प्रदूषित एवं व्यापारिक शोषणकर्ताओं की कुदृष्टि का शिकार। इसीलिये नदी तट की जमीनें, जंगल, पानी तथा उपखनिजों पर जनता का नहीं बल्कि सरकारी महकमों का अधिकार है।

पानी जंगल जमीन जनता का


सरयू के किनारे बसे जंगल, बुशैल या बिवड़ी जैसे गाँव मात्र 50 से 100 फीट ऊपर बसे हैं। इन गाँवों में पानी नहीं है। इसलिये यहाँ खेती वर्षा आधारित है। जब गंगोलीहाट कस्बे को पानी देने की जरूरत पड़ी तो करोड़ों रुपये की योजना पर काम होने लगा। गलत यह नहीं है कि प्यासी जनता को पानी दिया जाने वाला है। यह वास्तव में अन्याय है कि इस घाटी के प्यासे खेतों को मात्र कुछ हजार रुपयों की लागत से बन सकने वाली योजना से आज तक वंचित रखा गया है। सरयू को दोनों ओर साल, शीशम के जंगल हैं। ऊपरी जलागम क्षेत्र में बांज, कहीं-कहीं चीड़ मौजूद है। लोगों ने बड़े जतन से ये जंगल बचाये हैं। यह जंगल अधिकांश आरक्षित वन क्षेत्र हैं। इनसे हमेशा ही लकड़ी की तस्करी होती है। जिसमें वन विभाग शामिल रहता है। इसीलिये यहाँ के पंचायती जंगल घने व समृद्ध हैं। इनमें चीड़ नहीं है। आग का नुकसान भी कम होता है। वन विभाग का जंगल हर साल कम होता जा रहा है। कई जगहों पर बिना पेड़ों वाली कृषि योग्य जमीनें वन विभाग के पास मौजूद हैं। लोग इसे आबाद कर खेती नहीं कर सकते हैं। लोग न दैनिक उपयोग की लकड़ी ले सकते हैं, न ही पत्थर निकाल सकते हैं। हजारों बरस से लोग इन जंगलों के साथ जीते रहे हैं। उन्होंने इनकी चोटियों पर मंदिर बनाकर इनकी पवित्रता को अक्षुण्य रखा है। पर यहाँ पर मौजूद किसी जलस्रोत, मंदिर की भूमि या मौजूदा जंगल पर उनका अधिकार नहीं है।

पुरखों ने पीढ़ियों से इन जंगलों को बचाया, इनका उपयोग किया, इन्हें समृद्ध भी बनाया। अचानक महानगर के किसी भवन में बैठे एक व्यक्ति ने कागज में रेखा डाली और कहा कि यह लोगों का नहीं है। लोग अपने बुनियादी हकों से वंचित कर दिये गये। यही हाल नदी का भी है। पानी का व्यापार करने वालों ने इसमें बढ़ी संभावनायें खोज डाली हैं। इसलिये वे विकास का नाम देकर पानी को कई तरीकों से उपयोग करने वाली योजनायें बना रहे हैं। बांध बनाकर वे एकमुश्त 5 नदियों पर कब्जा करने को तत्पर हैं। वे जानते हैं, लोग अपना हक माँगेंगे। उनको चुप कराने का खेल चल रहा है। जलागम विकास के नाम पर करोड़ों की योजनायें सरयू एवं उसकी सहायक नदियों पर बसे गाँवों में चलाई जा रही हैं। लोगों को विकास के बहाने वे सिल्टिंग कम कर रहे हैं तथा जनमानस का ध्यान इससे हटा रहे हैं।

कोई नहीं हटेगा बांध नहीं बनेगा


इस घाटी के लोगों को विकास की बुनियादी सुविधायें नहीं मिलने से वे सरकारों पर विश्वास नहीं करते हैं। खेती पशुपालन से जुड़े लोगों से हमने गहरी चर्चायें की। वे कहते हैं कि हम मर जायेंगे पर हटेंगे नहीं। हमारे लिये यह उम्मीद की किरण है कि लोग आवाज उठायेंगे। महिलायें कहती हैं कि हम कहाँ जायेंगे ? हमारे बच्चों का क्या होगा। हम इस चर्चा को बढ़ाते चल रहे हैं। 4 दिन हो चुके हैं हम आपस में भी गहरे बातचीत में डूबे हैं। लक्ष्मण का घर नदी के तट पर है। वे कहते हैं ‘‘नदी को देखे बिना मुझे नींद नहीं आती है।’’ डॉ रमेश पंत घंटों नदी की चाल व उसके चारों ओर के सुंदर दृश्य को देखते रहते हैं। लोग आते हैं तो वे कहते हैं – मैं टिहरी पैदल गया था, गंगा मार दी है। अब सरयू मारेंगे, यह अन्याय है। इसे रोकना होगा। बिवड़ी के बुजुर्ग प्राणदत्त कहते हैं हमारे दिन कम हैं पर जहाँ तक जाना होगा हम जायेंगे, बच्चों का क्या होगा ?

खीमसिंह, दुर्गादेवी, पूरन सिंह, मदन राम, लक्ष्मीदत्त सब चिंता में पड़ जाते हैं। सेरागढ़ा के दलीप सिंह जी कहते हैं कि यह तो अत्याचार है। हमें सड़क चाहिये वे बांध बनाकर हमें खत्म कर देना चाहते हैं। कुछ राजनैतिक दलों के पिट्ठू लोगों को सरकार की बात बताते हैं कि सरकार सब व्यवस्था करेगी, तो सब एक साथ कहते हैं आज तक की है क्या ? हम सुनते हैं अभी कम लोग एकजुट हैं पर हमारे सामने एक बात स्पष्ट है कि लोग बांध नहीं चाहते हैं। निर्मला के हाथ में नील का डिब्बा है वह लिखते चल रही है। ‘पंचेश्वर बांध क्या करेगा, सबका सत्यानाश करेगा।’ हम आगे चलते हैं चर्चा करते, लिखते, समझते हुए । हमारी टीम के साथियों के पास खर्चे की व्यस्था नहीं है। मैं सोच रहा हूं आज तो ठीक है, पर जब ज्यादा समय देना पड़ेगा तब कैसे इसका हल निकलेगा। हम दो रात बढ़ी (सलाण) रुके। हमने अगले कदम के लिये चर्चा की। डॉ. रमेश पंत ने कहा – पूरी घाटी के जीवन, प्रकृति की वर्तमान में फोटोग्राफी या वीडियो फिल्म बनानी चाहिये। प्रभावित डूब क्षेत्र के आधारभूत आंकड़े एकत्र करने चाहिये। घाटी के प्रत्येक गाँव से लोगों को ले जाकर टिहरी दिखाना चाहिये। इस घाटी के गाँवों में बालशिक्षण/संध्या केन्द्र खोलने चाहिये ताकि सब से संपर्क बना रहे। अन्य घाटियों तथा और जगहों के लोगों से मिलाना व सामुहिक रणनीति बनानी चाहिये। पर कैसे ?

हमारे पास इस प्रश्न का हल अभी तक नहीं है। आज 5वां दिन है। हम सब वापस हो चुके हैं। हमने 2 बैठकें तय की हैं। पर्चा बांटा और दीवार लेखन किया। हमारे पास विशिष्ट अनुभव या कार्य को प्रमाणिकता प्रदान करने के लिये साधन नहीं हैं।

आज सरयू व उसकी सहायक नदियां, वहाँ का जनजीवन, लोक विरासत, वहाँ की प्रकृति में संकट के बादल मंडरा रहे हैं। तमाम बांधों के बनने के बाद वहाँ जो हुआ वह बहुत दर्दनाक, अमानवीय है। विकास के नाम पर प्रकृति की जो लूट होने वाली है हम सब उसको जानते हैं।

हम चाहते हैं यह रुके। लोगों को बुनियादी विकास की सुविधायें मिलें। ग्राम स्तर पर लोगों का संगठन बने, उनकी ओर से स्वावलंबन विकास तथा प्रतिरोध की पहल हो। इसके लिये हमें और लोगों का सहयोग अवश्य चाहिये। आशा करते हैं कि आगामी पहल इस उम्मीद को बढ़ायेगी।

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