प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन

प्राकृतिक संसाधन

भौतिक जगत के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति एवं सृजन पंच महाभूतों यथाक्षिति, जल, पावक, गगन, समीर से हुई है। इन पंच महाभूतों को ही ‘‘भगवान‘‘ की संज्ञा भी दी जा सकती है, क्योंकि भगवान शब्द चार व्यंजन एवं एक स्वर के योग से बना है। यथा भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि एवं न-नीर। इन पंचतत्वों में जीवन के मुख्य आधार भूमि, जल एवं वनस्पति को प्रमुखता देते हुये मनीषियों ने इसे प्रथम तीन स्थानों पर रखा है जो क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से जितना समृद्ध होगा वह उतना ही विकसित होगा।

मुख्य रूप से पाँच प्राकृतिक संसाधन है, 1-जमीन, 2-जल, 3-जंगल, 4-जानवर, 5-जन।

1- जमीन-

मनुष्य मिट्टी से ही पैदा हुआ है और मिट्टी में ही मिल जायेगा। कुल प्रतिवेदित क्षेत्रफल 242 लाख हेक्टेयर समस्याग्रस्त 120 लाख हेक्टेयर। विभिन्न क्षेत्रों (पर्वतीय, मैदानी, बीहड़) में 05 टन से 70 टन प्रति हे0 प्रति वर्ष की दर से मृदा कटाव होता है।

2- जल -

‘‘ जल ही जीवन है ‘‘ उपलब्ध जल का 90 प्रतिशत सिंचाई में 4 प्रतिशत उद्योग में 3 प्रतिशत पीने के लिये उपयोग होता है। वर्षा जल का 90 प्रतिशत पानी भूमि जल संरक्षण के अभाव में बेकार चला जाता है। जल वृद्धि स्तर लगातार घट रहा है।

3- जंगल -

वर्षा जल में वन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान होता है प्रदेश में वन आच्छादित क्षेत्रफल 33 प्रतिशत के स्थान पर मात्र 10 प्रतिशत है।

4 -जानवर

प्रदेश में कुल पशुधन लगभग 07 करोड़ हैं जिसमें ज्यादातर अनुत्पादक है। रोजगार एवं टिकाऊ खेती हेतु मिश्रित खेती/ कार्बनिक खेती को प्राथमिककता देनी होगी।

5-जन -

प्रदेश की जनसंख्या लगभग 17 करोड़ है, जो संसाधनों के मुकाबले बहुत अधिक है। प्रदेश की जनसंख्या एक सम्पत्ति है न कि विपत्ति। इसलिये जनसंख्या नियोजन किये जाने की आवश्यकता है और अधिक उत्पादन अधिकतम हाथों में होना चाहिये।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन की आवश्यकता एवं इसका समाधान -

जब से मनुष्य का उद्भव इस पृथ्वी जगत पर हुआ है। तब से लगातार अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों यथा भूमि, जल, जंगल, जानवर एवं जन का उपयोग कर रहा है। औद्योगीकरण शहरीकरण एवं बढ़ती जनसंख्या के कारण सघन खेती अपनाने से इन संसाधनों का अनुचित दोहन होने से इन पर दबाव बढ़ा है और सम्पूर्ण जीव जगत का अस्तित्व खतरे में है।

यहाँ विचारणीय विषय है कि प्राकृतिक संसाधनों जैसे मृदा, जल एवं वनस्पतियों के सम्यक संरक्षण एवं प्रबंधन के अभाव में लगभग प्रतिवर्ष प्रदेश को सूखा, बाढ़ तथा अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। कुऑ, नदी, नालों, तालाबों एवं झीलों इत्यादि जैसे प्राकृतिक जल श्रोतों में सिल्ट जमा हो जाने के कारण ये आपदायें आती है। जिसके कारण एक ओर मानव एवं पशुओं के लिये पेय जल एंव सिंचाई के लिये आवश्यक पानी की कमी हो जाती है वहीं दूसरी ओर सरकार को अनुदान के रूप में प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये व्यय करने पड़ते है। यदि हमें कृषि में टिकाऊ खेती एवं सम्यक उत्पादन, उत्पादकता, जल स्तर में वृद्धि, गुणवत्ता युक्त पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करनी है और सूखा, बाढ़ एवं अकाल जैसी आपदाओं से निजात पाना है तो इसका एक मात्र उपाय मृदा एवं जल का संग्रहण, संरक्षण, संवर्धन एवं प्रबंधन पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा।

प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन का लक्ष्य

पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने के लिये प्राकृतिक संसाधनों यथा जमीन, जल, जानवर, जंगल एवं जन का संग्रहण, संरक्षण, संवर्द्धन एवं प्रबंधन इन ढ़ंग से किया जाये कि टिकाऊ खेती के माध्यम से सम्यक उत्पादन एवं उत्पादकता प्राप्त हो सके तथा यह प्रदेश खुशहाल हो सके।

उ0प्र0 में भूमि संसाधन की वर्तमान स्थित -

कुल प्रतिवेदित क्षेत्रफल - 242 लाख हेक्टेयर

कुल समस्याग्रस्त क्षेत्रफल - 120 लाख हेक्टेयर (अकृष्य, बीहड़, ऊसर, जलमग्न)

कुल उपचारित क्षेत्रफल - 74 लाख हेक्टेयर लगभग

(मार्च 2009 तक)

उपचार हेतु अवशेष क्षेत्रफल - 46 लाख हेक्टेयर

भूमि एवं जल संरक्षण तथा प्रबंधन

प्रदेश में व्यापक सिंचाई व्यवस्था के बावजूद 67 प्रतिशत क्षेत्र सूखा एवं वर्षा आधारित है और इन क्षेत्रों में ऊॅची-नीची, कटाव युक्त भूमि होने तथा मौसम एवं वर्षा की अनिश्चितता होने के कारण फसल उत्पादन एवं उत्पादकता बहुत कम है। भूमि एवं जल संरक्षण विधियों एवं उपायों को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं।

1- वानस्पतिक एवं शस्य विधियां

2- अभियाँत्रिक विधियाँ

भूमि एवं जल परस्पर सम्बन्धित है इसलिये इन दोनो विधियों का प्रयोग अलग-अलग नहीं किया जाता है बल्कि समन्वित रूप से आवश्यकतानुसार जल समेट के अनुसार दोनो विधियों को साथ-साथ अपनाया जाता है ताकि सम्यक उत्पादन, उत्पादकता प्राप्त किया जा सके।

1- वानस्पतिक एवं शस्य विधियाँ

शस्य आच्छादन भूमि संरक्षण का एक महत्वपूर्ण अंग है। इन विधियों के अन्र्तगत भूमि को सघन आच्छादन प्रदान करने वाली फसलें जैसे दलहन फसलें, पट्टीदार खेती, वानस्पतिक बांध, चारागाह विकास तथा वनीकरण इत्यादि कार्य सम्मिलित है।

क- समस्त कृषि कार्य ढाल के विपरीत दिशा में करें जिससे अधिक से अधिक वर्षा जल खेत में ही अवशोषित हो जाये तथा नमी में वृद्धि हो

।ख- फसल बोने के 20-25 दिन बाद पंक्तियों के बीच में कूड़ बना दें जिससे अधिक से अधिक पानी रूके।

ग- भूमि की गहरी जुताई करें जिससे नीचे की कड़ी परत टूट जाये तथा जल अवशोषण एवं भण्डारण बढ़ जाये।

घ- जीवांश खादें जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद आदि का प्रयोग करें।

ड़- दलहनी फसलों की शुद्ध अथवा मिश्रित खेती करें।

च- मेड़ों पर बुआई करके नालियों में जल संचयन करें।

छ- वर्षा आधारित खेती के लिये संस्तुत प्रजातियों, फसल पद्धति एवं वैज्ञानिक तरीकों को अपनायें।

ज- सह-फसली एवं मिश्रित खेती अपनायी जाये।

झ- कम अवधि वाली फसलें बोनी चाहिये जिससे दो फसल ली जा सके।

त- मृदा में नमी की कमी को देखते हुये पौधों की संख्या कम कर दें।

थ- मानसून समय से हो तो उस स्थिति में मक्का, मूँगफली, धान, ज्वार एवं अरहर आदि फसलें बोये।

द- जब मानसून देरसे आये तो उस स्थिति में बाजरा, अरहर, उर्द, मूँग, तिल आदि फसलें बोयें।

ध- जब मानसून जल्दी चला जाये या सूखे की स्थिति हो तो ऐसी स्थिति में ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी फसलों को नमी बचाने हेतु चारे के लिये काट लें और वर्षा होने के तुरन्त बाद राई, कुसुम, चना, जौ आदि बोये जिससे एक फसल प्राप्त हो सके।

न- बहुत कटे-फटे ढालू क्षेत्र जो फसलोत्पादन के लिये उपयुक्त नही है वहाँ वन, कृषि वानिकी, फलदार वृक्ष एवं घास आदि का रोपण करें।

ट- तालाब, बंधा एवं गड्ढों में जलसंचित करके अतिरिक्त आय के लिये मछली पालन एवं सिंघाड़ा आदि की खेती करें।

ठ- जो क्षेत्र खेती के योग्य, चारे की कमी एवं भू-क्षरण से अधिक प्रभावित होते है उसमें वन चारागाह विकसित करें जिसमें वानिकी वृक्षों के साथ घास जैसे अंजन, जनेवा, सुडान, हाथीघासव, गिनी आदि उगायें। इसके साथ ही साथ भूमि उर्वरता बढ़ाने हेतु स्टाईलो, सिटेरो, ग्वर आदि घासें लगायें।

2- अभियांत्रिक विधियाँ -

इन विधियों के अंतर्गत भूतिम कटाव, भूमि की टोपोग्राफी, ढाल, वर्षा की सघनता के आधार पर आवश्यकतानुसार समोच्च रेखीय बंधियों का निर्माण, सबमर्जेंस बंधियाँ, पेरिफेरल बंधियाँ, मार्जिनल बंधियाँ, अवरोध बांध, जल भराव बांध, जल संचयन तालाब, समतलीकरण एवं पक्के जल निकास संरचनाओं का निर्माण वर्षा जल का संचयन तथा नियमन करने के लिये किया जाता है।

‘‘खेत का पानी खेत में, खेत की मिट्टी खेत में,

गाँव का पानी गाव में, गाँव की गिट्टी गाँव में‘‘

‘‘धरा के तीन अधिपति- भूमि, जल, वनस्पति‘‘

उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने के सूत्र

भूमि एवं जल का संरक्षण एवं प्रबंधन करते हुये फसलोत्पादन एवं उत्पादकता तीन तरह से बढ़ाया जा सकता है -

1- फसल आच्छादन बढ़ाकर

प्रायः उत्तर प्रदेश के समस्त जिलों में रबी के मुकाबले खरीफ में क्षेत्राच्छादन कम होता है तथा इसी प्रकार खरीफ के मुकाबले जायद में फसलों का आच्छादन बहुत ही कम होता है। खरीफ एवं जायद में भूमि एवं जल का संरक्षण एवं प्रबंधन कर अधिक क्षेत्राच्छादन द्वारा उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। रबी में क्षेत्राच्छादन लगभग 118 लाख हे0 खरीफ में क्षेत्राच्छादन लगभग 128 लाख हे0 और जायद में क्षेत्राच्छादन मात्र 08 लाख हे0।

2- फसल सघनता बढ़ाकर

वर्तमान में फसल सघनता मात्र 153 प्रतिशत है जिसे भूमि एवं जल संरक्षण विधियाॅ अपनाकर अधिक नमी संरक्षण के माध्यम से एक फसली क्षेत्र को दो फसली क्षेत्र में तथा दो फसली क्षेत्र को तीन फसली क्षेत्र में बदलकर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।

3- प्रति इकाई उत्पादकता (कु0 प्रति हे0) बढ़ाने के उपाय -1. खेत की तैयारी गर्मियों में गहरी जुताई करें।
2. भूमि शोधन।
3. उच्च उत्पादकता/ हाईब्रीड प्रजाति के बीज का प्रयोग।
4. बीज शोधन, बीज जनित रोगों से बचाव के लिये फंजीसाइड, इन्सेक्टिसाइड एवं राईजोबियम कल्चर से बीज शोधन।
5. मृदा परीक्षण।
6. समय से बुवाई।
7. मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित उर्वरकों का प्रयोग।
8. क्रांतिक अवस्थाओं पर एवं निश्चित मात्राओं में सिंचाई।
9. आईपीएम/ आईपीएमएन का प्रयोग।
10. समय से कटाई एवं मड़ाई।
11. वैज्ञानिक/ उचित भंडारण।
12. कृषि विपणन।

प्रदेश में भूमि एवं जल संरक्षण कार्यक्रम

1- केन्द्र पुरोनिधानिक परियोजनायें -

अ. राष्ट्रीय जलागम विकास कार्यक्रम।
ब. बाढ़ोन्मुखी गोमती/ सोन जलागम विकास कार्यक्रम।
स. सेंगर/ रिंद नदी वर्षा जल संचयन।
द. कृष्णी नदी के जलागम में जल संभरण की योजना।
2- राज्य पुरोनिधानित परियोजनायें अ. थारू उप जनजाति विकास कार्यक्रम।
ब. किसान हित योजना।
स. वर्षा जल संचयन एवं प्रभावी जल प्रबंधन।
द. कुशल जल प्रबंधन।
य. भूमि सेना योजना।

3- नाबार्ड सहायतित परियोजनायें -

अ. आरआईडीएफ-11ए 12 एवं 13
ब. जलागम विकास निधि (डब्ल्यूडीएफ)
4- बाहृय सहायतित परियोजनायें -अ. उत्तर प्रदेश भूमि सुधार कार्यक्रम।

5- जिला योजनायें

अ. एसआरवाई, नरेगा आदि।

6- अन्य:

टिकाऊ खेती के माध्यम से सम्यक उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने हेतु प्रदेश में आत्मा, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन चलाई जा रही है।

संकलन/प्रस्तुति

नीलम श्रीवास्तवा,महोबा बुंदेलखंड,उत्तरप्रदेश
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