प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण एवं पर्यावरण

स्वच्छ व स्वस्थ पर्यावरण के लिए यह नितांत आवश्यक है कि पारिस्थितिक तंत्र के प्रत्येक घटक का संतुलन बना रहे। यदि प्रकृति के किसी भी घटक में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है, वह पर्यावरण के लिए घातक हो सकती है। प्रत्येक नवीनीकृत संपदा स्वयं के नवीनीकृत हेतु एक निश्चित प्राकृतिक चक्र पर निर्भर रहती है, इसकी भी कुछ सीमाएं होती हैं, यदि इसके संरक्षण की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो यह भविष्य में समाप्त भी हो सकती हैं।

मनुष्य अपनी सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पृथ्वी पर ही निर्भर है। जीवन के लिए आवश्यक समस्त तत्व पृथ्वी पर ही विद्यमान हैं, अतः समग्र मानव जाति का विकास इन्हीं तत्वों पर आधारित है। इनके अभाव में मानव जाति व अन्य जाति व अन्य जीव-जंतुओं के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर ये समस्त आवश्यक तत्व प्राकृतिक स्रोत कहलाते हैं। वायु, जल, भूमि, पेड़-पौधों, खनिज पदार्थ तथा सूर्य का प्रकाश आदि महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत हैं।

प्राकृतिक स्रोत के अंतर्गत दो प्रकार की संपदाएं आती हैं-
नवीनीकृत प्राकृतिक संपदाएं (Renewable Natural Resources) – जल, वायु, वन, सूर्य का प्रकाश।

अनवीनीकृत प्राकृतिक संपदाएं (Non-Renewable Natural Resources) – कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस व कीमती धातुएं।नीनीकृत संपदाओं से तात्पर्य है जिनका पुनः चक्रण किया जा सके व अनवीनीकृत संपदाएं वे हैं जिनका पुनः चक्रण नहीं किया जा सकता। अतः स्पष्ट है कि प्रकृति में विद्यमान अनवीनीकृत संपदाएं का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है।

पर्यावरण से तात्पर्य जीवधारियों के आस-पास के वातावरण से है, जिसमें वह निवास करते हैं। इसके अंतर्गत वायु, जल, प्रकाश, मृदा, पेड़-पौधे, समुद्र एवं समस्त जीव-जंतु आ जाते हैं। पर्यावरण पर विस्तृत चर्चा करने से पूर्व पृथ्वी के पारिस्थितिकी-तंत्र की संक्षिप्त चर्चा करना अनिवार्य है, जिससे पर्यावरण पर व्यापक प्रकाश डाला जा सके।

पारिस्थितिकी-तंत्र के दो महत्वपूर्ण घटक हैं-
जैविक घटक – (Biotic Components)
अजैविक घटक (Abiotic Components)

भूमंडल का समस्त जैविक समुदाय जैसे-जीव-जंतु या पेड़-पौधे अजैविक घटकों (अकार्बनिक व कार्बनिक) से क्रियात्मक रूप से संबद्ध रहते हैं।

जैविक समुदाय तथा अजैविक समुदाय (निर्जीव परिस्थितियां) में पारस्परिक क्रिया व पदार्थों का आदान-प्रदान होता रहता है। इनमें पारस्परिक निर्भरता बनी रहती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो दोनों मिलकर एक ऐसा स्थायी तंत्र बनाते हैं, जो मशीन की तरह कार्य करता है। इसे ही पारिस्थितिकी-तंत्र (Eco-system) कहते हैं। Eco-system शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टेन्सले के अनुसार, ‘प्रकृति में उपस्थित सजीवों (पेड़-पौधों एवं जीव-जंतु) एवं निर्जीवों की परस्पर या आपस की क्रियाओं के परिणामस्वरूप बनने वाला तंत्र पारिस्थितकी तंत्र (Ecosystem) कहलाता है।’

इस प्रकार किसी स्थान विशेष के जैविक घटक (Biotic Components) व अजैविक घटक Abiotic Components) की परिस्थितियों का योग पर्यावरण कहलाता है।

किसी भी पारिस्थितिकी-तंत्र में जैविक व अजैविक घटक के अलावा अपघटक (मृतोपजीवी) (Decomposers or Saprophytes) का कार्य भी महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि ये मृत जीवों के शरीर का अपघटन करके अपना पोषण करते हैं तथा जटिल कार्बनिक यौगिकों को सरल यौगिकों में परिवर्तित करते हैं। इस प्रकार ये किसी भी पारिस्थितिकी-तंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

(क) अजैविक घटक (Abiotic Components) इसके अंतर्गत-
1. अकार्बनिक घटक (Inorganic Components)- मृदा, जल, वायु, प्रकाश, खनिज तत्व आदि।
2. कार्बनिक घटक (Organic Components)- कार्बोहाईड्रेट, प्रोटीन्स, लिपिड्स, अमीनो अम्ल आदि।
3. भौतिक घटक Physical Components)- जलवायु, ताप, प्रकाश, सौर ऊर्जा। पृथ्वी पर मुख्यतः दो प्रकार के पारिस्थितकी-तंत्र पाए जाते हैं-

1. स्थलीय,
2. जलीय।

सभी पारिस्थितिकी-तंत्रों की ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत सूर्य है-(ख) जैविक घटक (Biotic Components)- के अंतर्गत-उत्पादक (Producers) – हरे पौधे, शैवाल
उपभोक्ता (Consumers) – जीव-जंतु।
अपघटक (Decomposers)- जीवाणु (Bacteria), कवक (Fungi) आदि।

जैसा कि हम सभी जानते हैं पृथ्वी के 71 प्रतिशत भाग में जल व 29 प्रतिशत भाग में स्थल है। स्थल का कुछ भाग पर्वत, पठार, हिमाच्छादित व वनाच्छादित है तो कुछ भाग मरुस्थल का भी है। सभी स्थलों का अपना-अपना पारिस्थितिकी-तंत्र है। साथ ही समुद्र व अन्य जलीय भागों का पारिस्थितिकी-तंत्र भी है, जो स्थलीय पारिस्थिकी-तंत्र से पृथक है।

यदि वायुमंडल में उपस्थित गैसों की प्रतिशत मात्रा पर नजर डालें तो हमें ज्ञात होता है कि नाइट्रोजन 78 प्रतिशत, ऑक्सीजन 21 प्रतिशत व कार्बन-डाइऑक्साइड 0.03 प्रतिशत व अक्रिय गैसों की मात्रा लगभग 1 प्रतिशत है। पर्यावरण में जैविक घटक के अंतर्गत आने वाले उत्पादक-हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्या द्वारा सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में CO2 और H2O की सहायता से कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते है। इस प्रक्रिया में जीवनदायिनी ऑक्सीजन गैस बाहर निकलती है, जो मानव जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार पेड़-पौधे पृथ्वी मंडल से CO2 गैस ग्रहण कर प्रकृति में गैसों का संतुलन बनाए रखने में हमारी मदद करते हैं। मनुष्य अपनी तमाम भोजन संबंधी आवश्यकताओं के लिए पेड़-पौधों पर आश्रित है। पेड़-पौधे मनुष्य की खाद्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ ऑक्सीजन चक्र, कार्बन डाइऑक्साइड चक्र व नाइट्रोजन चक्र का संतुलन बनाए रखने में सहायता करते हैं व जल-चक्र को सतत् बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

पारिस्थितिकी-तंत्र में जहां एक ओर, जल, वायु पेड़-पौधे व सूर्य का प्रकाश, नवीनीकृत प्राकृतिक संसाधन (Renewable Resources) हैं, वहीं दूसरी ओर कोयला, प्राकृतिक गैसें तथा पेट्रोलियम एवं खनिज आदि अनवीनीकृत प्राकृतिक संसाधन (Nonrenewable Resources) भी हैं।

स्वच्छ व स्वस्थ पर्यावरण के लिए यह नितांत आवश्यक है कि पारिस्थितिक तंत्र के प्रत्येक घटक का संतुलन बना रहे। यदि प्रकृति के किसी भी घटक में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है, वह पर्यावरण के लिए घातक हो सकती है। प्रत्येक नवीनीकृत संपदा स्वयं के नवीनीकृत हेतु एक निश्चित प्राकृतिक चक्र पर निर्भर रहती है, इसकी भी कुछ सीमाएं होती हैं, यदि इसके संरक्षण की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो यह भविष्य में समाप्त भी हो सकती हैं।

जल संसाधन (Water Resources)


जैसा हम सभी जानते हैं जल ही जीवन है। इसके अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज पर्यावरणीय असंतुलन के कारण विश्व के कई देशों में खतरा उत्पन्न हो गया है। कहीं अतिवृद्धि के परिणामस्वरूप भीषण बाढ़ जैसे हालात उत्पन्न हो गए हैं तो कहीं अनावृष्टि से अकाल जैसे हालात हैं। तमाम वैज्ञानिक शोध इस ओर इशारा कर रही है कि यदि मनुष्य ने समय रहते जल संरक्षण की ओर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले वर्षों में मीठे जल (पीने योग्य पानी) के लिए संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। आज भूमिगत जल स्रोत का स्तर बड़ी तेजी से नीचे जा रहा है। अतः इसके संरक्षण की ओर ध्यान देने की जरूरत ज्यादा है। इसके लिए मानव द्वारा भिन्न उपाय किए जा सकते हैं-

वर्षा के जल को पोखर तथा तालाब इत्यादि के माध्यमों से अथवा बांध आदि द्वारा एकत्र कर रखा जाना चाहिए।
जल प्रदूषण को रोकने हेतु ठोस व कारगर कदम उठाए जाने चाहिए।

वायु संसाधन (Air Resources)


वायु एक ऐसा संसाधन है, जिसके अभाव में मनुष्य व कोई भी जीव-जंतु जीवित नहीं रह सकता। पेड़-पौधे O2 तथा CO2 गैसों की प्रकृति में संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। अतः वायु के संरक्षण हेतु हमें ज्यादा-से-ज्यादा पेड़-पौधे लगाने चाहिए। इसके साथ ही वायु संरक्षण हेतु निम्न उपाय किए जाने चाहिए।

प्रदूषण मुक्त वाहनों का प्रयोग।
ऐसे कल-कारखानों की स्थापना, जो कम-से-कम वायु प्रदूषण करें।
कारखानों की चिमनियां ऊंची बनाई जाएं।
वायु प्रदूषण फैलने वालों के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्यवाही की जाए।

वन संसाधन (Forest Resources)


मनुष्य को स्वस्थ वातावरण प्रदान करने में वनों का महत्वपूर्ण योगदान है। जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है पेड़-पौधे प्रकृति में गैसों का संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ वर्षा कराने में भी सहायक होते हैं। इसके साथ ही वे दुर्लभ जीव-जंतुओं का आवास भी होते हैं। अतः इनका संरक्षण अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य अपने जीवन की खाद्य आवश्यकताओं के अलावा इमारती लकड़ियां, औषधि तथा ईंधन आदि के लिए वनों पर ही निर्भर रहता है। अतः वनों के संरक्षण हेतु इनकी अंधाधुंध कटाई पर रोक लगाई जानी चाहिए और ज्याद-से-ज्यादा वन लगाए जाने चाहिए तथा जनता को इसके संरक्षण हेतु प्रेरित व प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।


मृदा संसाधन (Soil Resources)
पृथ्वी की ऊपरी उपजाऊ सतह को मृदा या मिट्टी कहते है। वनों के कटाव तथा अत्यधिक वर्षा एवं पशुओं की अनियंत्रित चराई आदि से इसका ह्रास होता है। मृदा संरक्षण हेतु यह आवश्यक है कि वनों के कटाव को रोका जाए, क्योंकि पेड़-पौधों की जड़े मृदा को बांधकर रखती है। मृदा संरक्षण हेतु पशुओं की चराई पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। मृदा को विषाक्त होने से बचाने हेतु कम-से-कम कीटनाशकों व उर्वकों आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए, ताकि मृदा कम-से-कम प्रदूषित हो। रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर कंपोस्ट खाद आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए।

पृथ्वी पर उपस्थित अनवीनीकृत प्राकृतिक संपदा की बात की जाए तो खनिज के साथ इसके अंतर्गत ऊर्जा प्राप्ति के स्रोत कोयला, पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैसें इत्यादि आती हैं। इन्हें जीवाश्म ईंधन भी कहा जाता है, क्योंकि इनका निर्माण पादप एवं जंतुओं के अवशेष से हुआ है। इनके निर्माण में हाजरों वर्ष लग जाते हैं। अतः इन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग सूझ-बूझ व बुद्धिमानी से किया जाना चाहिए। इसी प्रकार पृथ्वी में उपस्थित खनिज भंडार तथा कीमती धातुओं का नवीनीकरण भी नहीं होता, प्रयोग के साथ-साथ इनके भंडार समाप्त होते जा रहे है। अतः अत्यंत सावधानीपूर्वक इनका उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि खनिजों के निर्माण की प्रक्रिया बहुत धीमी है। अतः इसके संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो भविष्य में ये भंडार समाप्त हो जाएंगे।

पर्यावरणीय प्रदूषण हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार मानव ही है। इसका महत्वपूर्ण कारण तेजी से बढ़ता नगरीकरण व औद्योगीकरण है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तेजी से वनों का विनाश करता जा रहा है। जिस तेजी से वनों का ह्रास हो रहा है, उसकी तुलना में वृक्षारोपण कम हो रहा है। पारिस्थिकी-तंत्र के महत्वपूर्ण घटक पेड़-पौधों के ह्रास के कारण वायुमंडल में गैसीय असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है, जिससे Co2 की प्रतिशत मात्रा बढ़ने के कारण ग्लोबल वार्मिंग जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है। ध्रुवीय प्रदेशों की बर्फ पिघलने से समुद्री जल-स्तर में बढ़ोतरी देखी गई है, परिणामस्वरूप सुनामी जैसे हालात पैदा हुए हैं। अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि भी पर्यावरणीय असंतुलन का एक महत्वपूर्ण कारण है। संसाधन सीमित होने व जनसंख्या बढ़ने के कारण भी पर्यावरण में असंतुलन जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः इसके नियंत्रण हेतु ठोस उपाय किए जाने चाहिए।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं स्वस्थ व स्वच्छ पर्यावरण निर्माण हेतु हम सभी को अपनी-अपनी जिम्मेदारियां ईमानदारी से निभानी चाहिए। यद्यपि इसके संरक्षण हेतु सरकारी प्रयास किए जा रहे हैं व कानून भी बनाए गए हैं, फिर भी हमें नैतिक रूप से इसमें अपना सहयोग प्रदान करना चाहिए। यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाली पीढ़ियों के लिए गंभीर संकट पैदा हो जाएगा।

शासकीय उं.मा. विद्यालय हरदीकला, टोना, विकासखंड-बिल्हा, जिला-बिलासपुर (छ.ग.)

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