प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण और कर्तव्य-बोध

प्रदूषण-रहित जल और शुद्ध वायु के बिना स्वस्थ जीवन की कल्पना व्यर्थ है। कल-कारखानों से प्रदूषित करने वाले रासायनिक तत्व जहां जल स्रोतों, नदियों, तालाबों और झीलों को प्रभावित कर रहे हैं, वहीं इनकी विशालकाय चिमनियों से उगलता विषयुक्त धुआं, गैस और रसायन वायुमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं। वैश्विक ताप का खतरा मुंह बाए खड़ा है। ओजोन परत गर्म से गर्मतर होते जा रहा है। परिणामस्वरूप मानव, पशु और अन्य जीवधारी प्राणियों के अस्तित्व और इनके स्वस्थ जीवन की अपेक्षाओं पर तुषारापात हो रहा है, किंतु विवशतावश हमें और उन्हें इन भयावह स्थितियों को स्वीकारना पड़ रहा है। प्रदूषण मुक्त पर्यावरण का अर्थ है-स्वस्थ स्पंदनयुक्त जीवन। पर्यावरण का सीधा-साधा अर्थ है- परिवेश। परिवेश, जो हम आस-पास देखते हैं, जिसके संसर्ग में हमारा जीवन-चक्र चलायमान है जो कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है, वे स्थितियां, जो हमारे जीवन को अनवरत् प्रभावित करती रहती हैं, इन्हें ही समग्र रूप से पर्यावरण के अंतर्गत रखा जाता है।

जब पर्यावरण की धारणा हमारे मानस-पटल पर उभरती है? तब हमारे सम्मुख सर्वप्रथम हमारा परिवेश और द्वितीय प्रकृति का परिदृश्य उभरता है। परिवेश से तात्पर्य हमारी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक स्थितियों से है। प्रकृति में क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा के सूत्र में हमारी पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु समाहित है।

आज के युग में जीवन के स्पंदन को गतिशील बनाए रखने के लिए आर्थिक समस्याओं का निराकरण मानव की मूलभूत आवश्यकता है। भोजन, वस्त्र और विश्रांति के लिए छत की उपलब्धता सुनिश्चित करना, श्रम-साध्य और दुष्कर कार्य है। पशु, पौधे, फसल, बाग-बगीचे, जंगल, नदी-तालाब, झील-समुद्र के संरक्षण का उचित ज्ञान हमारी जीवनचर्या को सुंदर और सुखद बनाने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं। आवश्यकता हमें सतर्क और सचेत रहने की है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अज्ञानतावश इन तत्वों का आवश्यकता से अधिक अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं, क्योंकि इनके दोहन का उपयोग आवश्यकतानुसार मितव्ययता से होगा तो ये तत्व स्वमेव अपनी क्षमता में वृद्धि के साथ हमारे लिए भी जीवन-नियामक सिद्ध होंगे, अन्यथा इनका दुरुपयोग और विवेकहीन दोहन हमारे लिए घातक और विनाशकारी हो सकता है। उदाहरण के लिए हम वन-संपदा को ही लेते हैं तो हमारा अनुभव बताता है कि वनों की अंधाधुंध कटाई मौसम और जलवायु में आई असंतुलित परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है।

ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक ताप की समस्या से क्या हम नहीं जूझ रहे हैं। पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि भारत ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए चिंताजनक है। आज शीतल-मंद, सुगंध पवन कवि की कल्पना होकर रह गई है। वनों की छाया की सुखद अनुभूति तपते मौसम में जन्म-जन्मांतर के शत्रुओं में भी मित्रता का भाव पल्लवित कर देती है।

रीतिकालीन महाकवि बिहारी ने ‘कहलाने एकत बहस अहि-मयूर, मृग-बाघ’ जैसी शंका का समाधान ‘जगत् तपोवन जस किया’ में देखते हैं। जहां अंगार-सी तपती हुई सृष्टि वनों की शीतल छाया में तपोवन-सा ऋषियों की मोहक शांत तप-स्थली का स्वरूप धारण कर लेती है। फलस्वरूप सर्प-मयूर और मृग-बाघ साधुवत निर्विकार भाव से विश्रांति मे दीख पड़ते हैं।

वनों की अनवरत कटाई ने जल-वर्षा पर भी अपना दुष्प्रभाव छोड़ना प्रारंभ कर दिया है। आज नदियों की धारा से कल-कल ध्वनि विलुप्त हो गई है। झरने का झर-झर संगीत न जाने कहां खो गया है? सूखती झीलों में अब नीली सुंदर गहरी आंखों की आभा नहीं दिखाई देती है। प्रातः संध्या अब पक्षियों का कलरव-गान मानसिक विश्रांति से दूर हो गया है।

पर्यावरण और पर्यटन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रदूषण मुक्त पर्यावरण के बिना पर्यटन की कल्पना बेमानी लगती है। पर्यटन व्यक्तित्व के विकास की एक निर्विवाद कड़ी है। पर्यटन के माध्यम से मानसलोक में जिन बिंबों का सृजन होता है, वे अनुभवजन्य और यथार्थ के करीब हुआ करते हैं, किंतु प्रकृति की सुरम्य वादियों से पर्यटन का आनंद विलोपित हो गया है।

बड़ी तीव्र गति से गिरता भूजल स्तर निम्नतर होता चला चला जा रहा है। जब हम ‘जल ही जीवन है’ की उक्ति को अकाट्य सत्य स्वीकारते हैं, जैसा कि कविवर रहीम ने भी कहा है, ‘रहीमन पानी राखिए, बिना पानी सब सून’ तब क्या हमारा दायित्व नहीं बनता कि हम इनके संरक्षण की चिंता को बुद्धि-विलास और ज्ञान-पिपाशा का एक अंग स्वीकार करें और इनके संरक्षण के उपाय के प्रति जन-जागरण अभियान का एक हिस्सा बनें।

प्रदूषण-रहित जल और शुद्ध वायु के बिना स्वस्थ जीवन की कल्पना व्यर्थ है। कल-कारखानों से प्रदूषित करने वाले रासायनिक तत्व जहां जल स्रोतों, नदियों, तालाबों और झीलों को प्रभावित कर रहे हैं, वहीं इनकी विशालकाय चिमनियों से उगलता विषयुक्त धुआं, गैस और रसायन वायुमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं। वैश्विक ताप का खतरा मुंह बाए खड़ा है। ओजोन परत गर्म से गर्मतर होते जा रहा है।

परिणामस्वरूप मानव, पशु और अन्य जीवधारी प्राणियों के अस्तित्व और इनके स्वस्थ जीवन की अपेक्षाओं पर तुषारापात हो रहा है, किंतु विवशतावश हमें और उन्हें इन भयावह स्थितियों को स्वीकारना पड़ रहा है। इन समस्याओं का हल, शासन, वैज्ञानिक एवं बुद्धिजीवियों द्वारा निकाला जा चुका है। आवश्यकता इन्हें ईमानदारी पूर्वक अपनाने की है।

पर्यावरण शुचिता-संरक्षण और प्रदूषण रोकने की गंभीर समस्या और समाधान की चिंता के अतिरिक्त हमें सामाजिक प्रदूषण के बढ़ते प्रभाव पर भी विचार करना नितांत आवश्यक है। सामाजिक प्रदूषण से तात्पर्य उन सामाजिक बुराइयों से है, जो सभ्य समाज मे त्याज्य और वर्जित हैं।

आज सामाजिक पर्यावरण पर प्रदूषण की दोधारी तलवार चल रही है। मानवता तथा व्यक्ति के पारिवारिक एवं आत्मीय संबंधों में लगातार विघटन और नकारात्मक भाव पल्लवित होते जा रहे हैं। समाज में भ्रष्टाचार, आतंकवाद, लूट-खसोट, व्यभिचारिता, दहेज-लोभिता, धार्मिक आडंबर, अंधविश्वास और धर्मांधता इत्यादि कुरीतियां अपने साम्राज्य में सतत् वृद्धि कर रही हैं।

इन परिस्थितिजन्य परिदृश्यों से लोगों के मन में अविश्वास की भावना का पल्लवन अनवरत् हो रहा है। राजनीतिक स्वेच्छाचारिता का बोलबाला हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इनसे छुटकारा पाना मरुभूमि के उस जल की भांति है, जो मृग-तृष्णा का पर्याय है। ऐसा कदापि नहीं है कि अधोगति की ओर अग्रसर सामाजिक प्रदूषण को मुक्त करने का कोई रास्ता ही नहीं बचा। दुर्गम परिस्थितियों के परिमार्जन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

सकारात्मक सोच और प्रबल इच्छाशक्ति का अस्त्र हमें इस द्विविधा से मुक्त करा सकता है। कृष्णकुमार भट्ट ‘पथिक’ के शब्दों में ‘इतिहास के’ पृष्ठ आगे बढ़ते हैं, मौसम बदलता है, आम आदमी के आस्था और विकास का परिमार्जन होता है। सीधा और सरल तथ्य यह है कि लोग नकारात्मक लोगों की अपेक्षा उन लोगों के प्रति अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करें, जो सकारात्मक प्रवृत्ति के हैं। उन लोगों को गले लगाएं, जो अपने जीवन में दूसरों को प्रोत्साहित करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को समझने और सद्विचारों को उर्ध्वगति प्रदान करने वाले हों, आशावान, ऊर्जावान और उत्साही हों।

आलोचक वृत्ति वाले चिड़चिड़े, व्यंग्यात्मक, निराशावादी, जीवन से ऊबे हुए, खिन्न चित्त वाले और हताश प्रवृत्ति वालों से हमें दूर रहना होगा, तभी हम सामाजिक प्रदूषण के इस महासागर को लांघकर एक सुखमय, सुरम्य और सामाजिक प्रदूषण मुक्त समाज की कल्पना कर सकते हैं।

सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करने में साहित्यकारों, धर्म-रक्षकों और समाज सेवियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सामाजिक पर्यावरण के विसंगति युक्त प्रदूषण की ध्वनियां हमें दुष्यंत कुमार के हिंदी गजलों मे सुनाई देती हैं। उन्होंने बड़े ही मार्मिक शब्दों में सामाजिक पर्यावरण को चीथड़े में लिपटे हुए देखा और कहा है, “कल नुमाइश में मिला था वह चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा कौन था, कहने लगा मैं हिंदुस्तान हूं।”

अंत में यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि पर्यावरण का क्षेत्र असीमित है। पर्यावरण का उद्देश्य व्यापक है। इसके महत्व को किसी परिधि विशेष में रखकर नहीं आंका जा सकता। इनके संरक्षण के लिए विभिन्न संगठनों और पर्यावरणविदों द्वारा सुझाए गए उपायों को ग्रहण करना और अमल में लाने में ही हमारा और विश्व का कल्याण संभव है।

संजय जनरल स्टोर्स,
तारबाहर रेलवे फाटक,
बिलासपुर (छ.ग.)

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