परिवेश पर्यावरण और प्रदूषण नियंत्रण


अर्थशास्त्री उत्पादन तथा खपत के गौण प्रभावों को ‘बाह्य प्रभाव’ मानते हैं। इस मान्यता का भावार्थ यह है कि वायु, जल तथा प्राकृतिक संसाधन इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं कि उनका कोई मूल्य ही नहीं है। किन्तु अब यह विचार बनता जा रहा है कि किसी को यह ‘मूल्य’ चुकाना होगा। इस समय तैयार किए जा रहे राष्ट्रीय आंकड़ों में पर्यावरण संरक्षण के खर्च तथा प्राकृतिक संसाधनों के क्षय और विनाश को शामिल नहीं किया जाता क्योंकि इसमें बाजार का लेन-देन सम्मिलित नहीं होता जनमत तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों को प्रभावित करने के लिये भौतिक परिवर्तन के सूचकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिनमें परिवर्तन की गति एवं दिशा का विश्लेषण हो।

आर्थिक विकास तथा प्रदूषण की रोकथाम में कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है, इसलिये प्रदूषण की रोकथाम तथा नियंत्रण के प्रयासों में सबसे अधिक ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि इस प्रकार का सम्बन्ध किस तरह कायम और सुदृढ़ किया जाए। इस समस्या की विशालता का एहसास बढ़ने के साथ ही इस बारे में नया दृष्टिकोण विकसित हुआ है। परन्तु सार्वजनिक चिन्ता के महत्त्वपूर्ण विषय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया और देश में पर्यावरण प्रदूषण में निरंतर वृद्धि हो रही है।

प्रदूषण के अनेक कारण हैं। वायु प्रदूषण के मामले में हमारे प्रमुख शहर विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में से हैं। वातावरण की जाँच से पता चलता है कि शहरों में खासकर गर्मियों के महीनों में वायुमण्डल में नाइट्रोजन आक्साइट तथा अन्य दूषित तत्व निर्धारित मानकों या सीमा से कहीं अधिक मौजूद हैं। वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं ताप बिजली घरों से निकलने वाला सल्फर डाइक्साइड और वाहनों से निकलने वाला कार्बन मोनोक्साइड उद्योगों में ऊर्जा के बढ़ते हुए इस्तेमाल से वायु प्रदूषण में वृद्धि हो रही है।

वर्तमान स्थिति


ऐसा अनुमान है कि देश के भूजल संसाधनों का तीन-चौथाई भाग प्रदूषण से प्रभावित है। नदियों के पानी की गुणवत्ता की जाँच से मालूम हुआ है कि बड़े नगरों से गुजरने के बाद से नदियों का पानी प्रदूषित हो जाता है। कृषि में उर्वरकों तथा फसल के बचाव के लिये कीटनाशक दवाओं के अधिकाधिक उपयोग के कारण भूजल दूषित हो जा रहा है। जल प्रदूषण का दुष्प्रभाव मानव स्वास्थ्य तथा प्राकृतिक संतुलन पर पड़ रहा है।

अवशिष्ट रसायन पदार्थों को वायु तथा पानी में निकासी पर प्रतिबंध के कारण खतरनाक रसायन पदार्थों को भूमि में डाल दिया जाता है। रसायन उद्योगों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों की मात्रा में हर वर्ष बढ़ोत्तरी होती जा रही है। दुर्घटनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं। बेंजेडीन जैसे विषैले (टॉक्सिक) रसायनों का पता लगाया गया है और उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, किन्तु ऐसे और अनेक रसायन हैं जिनका अभी तक अध्ययन नहीं किया जा सका है और रसायन भण्डारों से बहने वाले खतरनाक पदार्थों से पानी दूषित होता रहता है। जहरीले रसायनों से होने वाले खतरों से बचाव इस समय सरकार तथा लोगों की मुख्य चिन्ता है।

औद्योगिक क्षेत्रों में जो एक और समस्या सामने आ रही है, वह प्रदूषण करने वाले उद्योगों का घनी आबादी वाले स्थानों पर केन्द्रित होना। इससे पर्यावरण और तेजी से दूषित होता है। इस दिशा में जो कुछ किया जाना चाहिए उसकी तुलना में बहुत कम किया जा रहा है।

नीतिगत समस्याएँ


लोग अब बिगड़ते हुए पर्यावरण पर चिन्ता व्यक्त करने लगे हैं। प्रदूषण कोई छिपने वाली स्थिति नहीं है। आर्थिक प्रगति में तेजी आने के साथ-साथ उसके प्रदूषण सम्बन्धी दुष्प्रभाव में वृद्धि होती जा रही है। समस्या की व्यापकता के कारण प्रदूषण की रोेकथाम पर लागत भी बढ़ रही है। टेक्नोलॉजी की उपलब्धियों के फलस्वरूप पर्यावरण की जो क्षति हुई है, उससे प्रगति की अवधारणा तथा इसकी भावी दिशा पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है। लोगों में बढ़ती हुई चेतना को देखते हुए राजनीतिक क्षेत्र में भी पर्यावरण को प्रमुख स्थान मिलने लगा है तथा उद्योग भी यह मानने लगे हैं कि आने वाले वर्षों में पर्यावरण एक मुख्य मसला रहेगा।

पर्यावरण सम्बन्धी नीति में विभिन्न समस्याएँ जुड़ी हैं क्योंकि इसका सम्बन्ध एक साथ नैतिकता (भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा कर सकने की स्थिति बनाना), न्याय (शक्तिशाली तत्वों को मनमानी करने से रोकना), वितरण (लाभ तथा लागत का असर विभिन्न वर्गों पर पड़ता है) और जन-स्वास्थ्य (प्रदूषण तथा बीमारियों के बीच संभावित सम्बन्ध) से है। पर्यावरण सम्बन्धी त्रुटियों के परिणाम कई वर्षों बाद सामने आते हैं और कुछ दुष्प्रभाव तो एकदम अनिश्चित होते हैं, जबकि कुछ दुष्प्रभाव अलग-अलग समय के बाद अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं। इनसे होने वाली क्षति को पूरा करना असंभव है। टेक्नोलॉजी की स्थिति और सामाजिक संगठन भी इस मामले में निर्णायकों के क्षेत्र को सीमित कर देते हैं।

समस्या की व्यापकता तथा इसके कारणों व प्रभावों की जटिलता को देखते हुए पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं के दीर्घकालीन समाधानों का पता लगाने तथा उन्हें लागू करने के बारे में एक दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाना एवं प्राथमिकताएँ निश्चित करना आवश्यक है। इस तथ्य की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है कि यह क्षति कोई घटना नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया है और इसे सुधारने में समय लगता है।

समस्याएँ


इन उद्देश्यों को नीतिगत रूप देने में दो समस्याएँ सामने आती हैं। पहली तो यह है कि सरकारी तंत्र इस समस्या से निपटने में सक्षम नहीं है, क्योंकि इसका सम्बन्ध लगभग सभी विभागों से है। दूसरी समस्या यह है कि पर्यावरण सम्बन्धी प्रभावी नीतियों से लोगों के आचरण में परिवर्तन तो अवश्य आता है लेकिन उसे सिद्धान्त रूप में तो स्वीकार किया जाता है, किन्तु व्यावहारिक धरातल पर उसका विरोध होता है।

पर्यावरण सम्बन्धी नीति अब तक आदेश और नियंत्रण की परम्परागत पद्धति पर आधारित रही है। इस तरह की नियमन नीति के दो पहलू हैं। पहला पहलू है पर्यावरण के बारे में मानक निर्धारित करना और सरकारी एजेंसियों तथा कानून के जरिए उन पर अनिवार्य रूप से अमल कराना दूसरा यह कि पर्यावरण सम्बन्धी कानूनों में ‘प्रदूषण फैलाने वाला कीमत चुकाए’ सिद्धांत को लागू करने का प्रावधान है। इसका उद्देश्य है कि प्रदूषण की रोकथाम के उपायों का खर्च वही उठाए जो प्रदूषण पैदा करता है। प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम इसलिये सफल नहीं हुए, क्योंकि प्रदूषण पैदा होने के बाद उपाय करने पर बल दिया गया।

यह नियंत्रण प्रणाली जिस रूप में विकसित हुई है, उसमें दो मुख्य दोष हैं पहला यह कि कानूनों तथा कार्यक्रमों के वर्गीकरण में पर्यावरण की समस्या के बुनियादी कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया है। इनमें प्रदूषण की रोकथाम की बजाए प्रदूषण के माध्यमों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इससे प्रदूषक तत्वों को एक माध्यम से हटाकर दूसरे माध्यम की ओर मोड़ देने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। कानूनी प्रक्रिया जाँच, प्रबंध, मुकदमे आदि की कार्यवाइयों में बुनियादी उद्देश्य ओझल हो जाता है।

दूसरा दोष यह है कि अनिवर्य मानकों में एक जैसी सीमाएँ लागू की जाती हैं। इन मानकों को लागू करना तो सरल होता है किन्तु इन्हें कैसे लागू किया जाए, इस बारे में सीमित सम्भावनाएँ होती हैं। प्रदूषक को कम पानी इस्तेमाल करने, उसे फिर से काम में लाने, कम अवशिष्ट पदार्थ पैदा करने अथवा नई टेक्नोलॉजी अपनाने के लिये कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

औद्योगिक इकाइयाँ प्रदूषक तत्वों के एक स्थान पर इकट्ठी होने वाली मात्रा को कम करके भी निर्धारित मानकों का पालन कर सकती हैं। यह इन तत्वों को थोड़ा-थोड़ा करके छोड़ने तथा पानी और वायु में उन्हें बहुत हल्का करके मिलाने से संभव है। वातावरण में खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ अनेक उद्योग हैं, प्रदूषण की कुल मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है। जिन उद्योगों में जैसे कि विषैले रसायन, कोई मानक निर्धारित नहीं किए गए हैं, उनमें प्रदूषण पर कोई नियंत्रण नहीं हैं। इसके परिणामस्वरूप लोकहित मुकदमों में बढ़ोत्तरी हो रही है क्योंकि लोगों को मजबूर होकर अदालतों की शरण लेनी पड़ती है। प्रदूषण को रोकने की कारगर व्यवस्था का अध्ययन करने के लिये यह जरूरी है कि विशिष्ट पर्यावरण मानकों के सम्बन्ध में चल रही बहस पर फिलहाल ध्यान न दिया जाए।

प्राथमिकताएँ


प्रदूषण की रोकथाम की कोई नीति तैयार करना तथा उसे क्रियान्वित करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसमें इस बारे में आम सहमति की आवश्यकता है कि क्या किया जाए, कैसे किया जाए और उसकी लागत कौन दे। सामान्य सिद्धांतों पर तो सहमति है, किन्तु पर्यावरण संरक्षण के वास्तविक क्रियान्वयन में राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक यथार्थ पर आधारित कई मामलों में कठिन चुनाव करना पड़ता है। समस्या यह है कि प्रदूषण फैलाने वाला जो व्यक्ति क्षति पहुँचाता है, वही उसकी लागत का बोझ नहीं उठाता। और फिर यदि वर्तमान मानकों को ही बनाए रखा जाए तो आर्थिक प्रगति के साथ प्रदूषण में वृद्धि होना अनिवार्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि पर्यावरण का मौजूदा स्तर कायम रखने के लिये भी अनेक क्षेत्रों में और कड़े मानक तय करने होंगे।

आर्थिक दृष्टि से यह दलील दी जाती है कि प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाने से औद्योगिक इकाई की लागत बढ़ जाएगी। नई टेक्नोलॉजी के आधार पर तैयार किए गए मानकों के पालन में पुराने संयंत्रों को कठिनाई होती है। इसके अलावा औद्योगिक योजनाकारों तथा विशेषज्ञों में इस सम्बन्ध में चेतना का अभाव है।

बड़ी संख्या में आम लोगों को भी प्रदूषण के कारणों तथा प्रभावों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। सरकार की सहभागिता की आवश्यकता और उसके रूप के बारे में भी मतभेद हैं, क्योंकि पर्यावरण लागत का बोझ प्रायः गरीबों पर पड़ता है। प्रदूषण के बारे में चिन्तन के नए ढंग से पर्यावरण संरक्षण के और कारगर उपाय नहीं ढूँढे जा सकते हैं।

इसके लिये बहु-विभागीय दृष्टिकोण विकसित करने और पर्यावरण कार्यक्रमों को समग्र नीतियों से जोड़ने की आवश्यकता है।

नीति सम्बन्धी तत्व


ऊर्जा और सामग्री के उपयोग पर आधारित तथा संसाधन उन्मुखी विकास की नीति के फलस्वरूप पर्यावरण में बिगाड़ आया है। सरकार तथा उद्योगों ने जो समाधान निकाले हैं, वे मुख्य रूप से अल्पकालिक हितों पर आधारित रहे हैं। नए दृष्टिकोण में पर्यावरण तथा उद्योग के प्रति समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की व्यवस्था है।

अब प्रदूषण के नियमित नियंत्रण के बजाय पर्यावरण संसाधनों के प्रबंध पर ध्यान देने का सिद्धान्त विकसित करन होगा। पर्यावरण सम्बन्धी तात्कालिक समस्याओं को हल करने के साथ-साथ निवारक तथा एहतियाती नीतियों को अधिक प्राथमिकता देनी होगी। उत्पादन तथा पुनः उपयोग की विधियों के जरिए प्रदूषण नियंत्रण किया जाएगा क्योंकि इससे बहुत कम अवशिष्ट पदार्थ पैदा होंगे।

नई स्वच्छ टेक्नोलॉजी का विकास तथा इस्तेमाल भी आवश्यक है। इनमें नई उभरती हुई मेम्बरेन टेक्नोलॉजी तथा जैव टेक्नोलॉजी शामिल हैं। इन सब नीतियों को सभी स्तरों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया से जोड़ना भी बहुत जरूरी है। ऐसा करके ही दीर्घकालीन नीति के बारे में हम राष्ट्रीय आम सहमति प्राप्त कर सकते हैं।

संसाधनों का लेखा-जोखा


संसाधनों के विवेकसम्मत उपयोग पर ध्यान देने के लिये संसाधनों का लेखा जोखा रखा जाना चाहिए। भावी उत्पादन के बारे में राष्ट्रीय आंकड़ों में कमी का अनुमान लगाने के लिये भी संसाधनों के लेखे जोखे को शामिल करना आवश्यक है। इससे पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों को विकास नीति निर्धारण के साथ और अधिक प्रत्यक्ष रूप से जोड़ा जा सकेगा।

अर्थशास्त्री उत्पादन तथा खपत के गौण प्रभावों को ‘बाह्य प्रभाव’ मानते हैं। इस मान्यता का भावार्थ यह है कि वायु, जल तथा प्राकृतिक संसाधन इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं कि उनका कोई मूल्य ही नहीं है। किन्तु अब यह विचार बनता जा रहा है कि किसी को यह ‘मूल्य’ चुकाना होगा। इस समय तैयार किए जा रहे राष्ट्रीय आंकड़ों में पर्यावरण संरक्षण के खर्च तथा प्राकृतिक संसाधनों के क्षय और विनाश को शामिल नहीं किया जाता क्योंकि इसमें बाजार का लेन-देन सम्मिलित नहीं होता जनमत तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों को प्रभावित करने के लिये भौतिक परिवर्तन के सूचकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिनमें परिवर्तन की गति एवं दिशा का विश्लेषण हो।

इस प्रकार हम प्रदूषण नियंत्रण तथा आर्थिक विकास के टकराव को कम कर सकते हैं और ऐसी उत्पादन प्रक्रिया को बढ़ावा दे सकते हैं जो पर्यावरण संतुलन की से भी स्वीकार्य हो।

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