परिवर्तन की पीड़ा

16 Jun 2018
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भारत में बाढ़ से तबाही
भारत में बाढ़ से तबाही


पर्यावरण के बिना हमारा अस्तित्व सम्भव नहीं है। विश्व पर्यावरण दिवस हमें इसके बारे में सोचने और समझने का मौका देता है। लेकिन पर्या वरण के बारे में एक दिन नहीं बल्कि रोज सोचे जाने की जरूरत है क्योंकि हालात बेहद खराब हैं। अगर साल 2017 और इस साल के पाँच महीने को देखते हुए ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का खिताब देना पड़े तो निश्चित रूप से मैं यह खिताब मौसम को दूँगी और मेरे लिये साल का ‘फेस’ होगा किसान।

दरअसल, देश में किसान ही है जो असामान्य बारिश से लेकर सूखे तक मौसम के तमाम उतार-चढ़ाव का सबसे बड़ा पीड़ित है। हम उस दौर से गुजर रहे हैं जब बाढ़ के समय सूखा और सूखे में बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं। यह निराशाओं का दौर है। अब वक्त आ गया है कि हम इसे मान्यता दें ताकि तेजी से बेहतर समाधान पेश किया जा सके।

मौसम की सुर्खियाँ अक्सर खबरों की भीड़ में गुम हो जाती हैं। मौसम की खबरों से वंचित रहने के तीन कारण हैं। पहला यह कि बदलाव को अब तक मान्यता नहीं मिली है। मौसम का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक अपने चारों तरफ की दुनिया से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। अनिश्चितता के कारण वे जोखिम नहीं लेना चाहते। दूसरा, हमारे पास उन आवाजों को सुनने का कोई माध्यम नहीं है जो विज्ञान द्वारा स्थापित नहीं हैं। इस वजह से परिवर्तन के सबसे बड़े पीड़ित किसानों की अनदेखी हो रही है। यह भी तथ्य है कि जलवायु परिवर्तन जैसे शब्दों से वे अनजान हैं।

साधारण शब्दों में कहें तो उनके लिये मौसम बदल रहा है और उन पर इसकी मार पड़ रही है। तीसरा, मौसम की सुर्खियाँ अक्सर इसलिये भी सुनाई नहीं देती क्योंकि इसका शोर तभी मचता है जब मध्यम वर्ग और शहर इससे प्रभावित होते हैं। खबरों में आने के लिये किसानों को या तो मरना पड़ता है या कुछ गम्भीर कदम उठाने पड़ते हैं। इस तरह के घटनाक्रम रोजमर्रा का हिस्सा हैं लेकिन ये खबरें दूर-दराज के क्षेत्रों और लोगों से जुड़ी होती हैं इसलिये उनकी खबरें, हमारी खबरें नहीं बन पातीं।

लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिये मेरी नजर में साल 2017 की सबसे प्रमुख सुर्खी हमारे शहरों की जहरीली और प्रदूषित हवा नहीं है। यह बुरी खबर जरूर है। लेकिन यह मौसम में हो रहे विनाशकारी बदलाव की आधी भी नहीं है। यह बदलाव भारत के ग्रामीण इलाकों में व्यापक स्तर पर असन्तोष और तकलीफ के लिये जिम्मेदार है।

मध्य प्रदेश में 6 जून, 2017 को जब छह किसान बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग को ताकि अर्थव्यवस्था और खुद को सम्पन्न कर सकें। इनसे हुए उत्सर्जन ने आज मौसम को विनाशकारी बना दिया है।

2017 और इस साल के पाँच महीने विरोधाभासों से भरे हैं। 2018 तो और कष्टदायक होने वाला है। गौर करने वाला सवाल यह है कि बम्पर उत्पादन के बाद भी कृषि संकट का सामना क्यों करना पड़ रहा है? अब भी किसान परेशान क्यों हैं? ऐसा इसलिये है क्योंकि उन्हें अपने उत्पाद का मूल्य नहीं मिल रहा है। गौरतलब है कि किसानों को बम्पर उपज कई बुरे मौसम और नुकसान के बाद मिली है। कायदे से उनके घाटे की भरपाई इस बम्पर उत्पादन से हो जानी चाहिए थी और उनका कर्ज चुक जाना चाहिए था लेकिन सच्चाई इससे उलट है। देश के ज्यादातर हिस्सों में हालात बुरे ही हैं।

किसान खेती के लिये कर्ज लेता है, बुवाई करता है, श्रम में निवेश करता है लेकिन खराब मौसम उनकी फसल तबाह कर देता है। यह खराब मौसम अत्यधिक बारिश, बहुत कम बारिश, बहुत ठंड, बहुत गर्मी, अचानक ओलावृष्टि के रूप में आता है और जानलेवा साबित होता है। इस तरह की घटनाएँ अनियमित नहीं हैं बल्कि ये अब नियमित हो चुकी हैं।

ऐसे तमाम मुद्दे हैं। हमें इस बदलाव को मान्यता देनी होगी तभी हम पूर्वानुमान को व्यवस्था में जगह दे पाएँगे और सूचनाओं का वितरण होगा। इस वक्त हम पर्याप्त कदम नहीं उठा रहे हैं और देर भी कर रहे हैं। किसी खास मौसमी घटना पर हमारा ध्यान भी जाता है तो कई वैज्ञानिक नजरिए से ओझल हो जाती हैं। हमें मौसम के अतिरिक्त खतरे से निपटने के लिये काफी कुछ करना होगा, साथ ही भोजन पैदा करने की लागत को भी कम करना होगा। आज खाद्यान्न की कीमत अनियमित है।

सरकार भरसक कोशिश करती है कि इसकी कीमत कम रहे क्योंकि इसकी बढ़ी कीमतें उपभोक्ताओं को नाराज कर सकती हैं। सरकार खाद्यान्न की सबसे बड़ी खरीदार भी है। भारत का खाद्यान्न खरीद कार्यक्रम व्यापक और महत्त्वपूर्ण भी है। यह अकाल को दूर रखने में मददगार है। सरकार जन वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्यान्न का वितरण करती है। लेकिन क्या इसका यह मतलब निकाला जाये कि खरीद की कम कीमत रखना उचित है?

दूसरी ओर किसान हैं जिन्हें न केवल लाभकारी मूल्य चाहिए बल्कि उन्हें फसलों के नुकसान की भरपाई की भी दरकार है। यह नुकसान उनकी गलतियों से नहीं होता बल्कि मौसम की मार से होता है। देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में सुधार की जरूरत है ताकि इसमें केवल इनपुट लागत को ही शामिल न किया जा सके बल्कि मौसम से होने वाले नुकसान की भरपाई का भी प्रावधान हो।

शाकाहार बना मांसाहार

साल 2017 में मांसाहार पर चर्चाएँ बहस के केन्द्र में रहीं। तर्क दिये गये कि पवित्र समझे जाने वाले बोवाइन जैसे गोवंश को मांसाहार के लिये बूचड़खानों में नहीं भेजना चाहिए। यह मुद्दा बहुत भावनात्मक और असहनशीलता से जुड़ा है। किसानों की पहले से डगमगा रही अर्थव्यवस्थाओं से इसे जोड़कर नहीं देखा गया। भारत में मवेशियों पर स्वामित्व भूमि के स्वामित्व से बड़ा है। कहने का मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था में कृषि से अधिक योगदान मवेशियों का है। फसलों को खोने की स्थिति में मवेशी ही उनके जीवनयापन का सहारा होते हैं। ये आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन्हें गरीबों का बीमा भी कहा जा सकता है।

हम पशुओं का मूल्य किसानों से नहीं छीन सकते। इनसे उन्हें दूध, खाद, मांस और चमड़ा मिलता है। अगर आप उनसे ये चीजें छीन लेंगे तो आप उन्हें सम्पत्ति से वंचित कर देंगे। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि मांस का उत्पादन पर्यावरण के लिहाज से अच्छा है। आँकड़े दूसरी ही तस्वीर पेश करते हैं। वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का योगदान 15 प्रतिशत है और इसका आधा मांस उत्पादन से आता है। जमीन और पानी के उपभोग में भी इसकी बड़ी हिस्सेदारी है।

एक अनुमान के मुताबिक विश्व की 30 प्रतिशत भूमि (बर्फ से गैर आच्छादित) मनुष्यों के लिये नहीं बल्कि पशुओं के लिये भोजन उगाने में प्रयोग की जाती है। 2014 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की ओर से किये गये अध्ययन में पाया गया कि प्रति व्यक्ति 10 ग्राम मांस खाने से प्रतिदिन 7.2 किलो कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। शाकाहार से यह उत्सर्जन 2.9 किलो था।

इस मुद्दे पर चल रही बहस के दोनों पहलुओं को देखने की जरूरत है। हमें विलासिता और अस्तित्व के लिये जरूरी मांस के उपभोग में अन्तर स्पष्ट करना होगा। यह चर्चा की जानी चाहिए कि कितने मांस का उत्पादन किया जाये और कितना उपभोग किया जाये। मांस उत्पादन का पर्यावरण की बर्बादी से घनिष्ठ सम्बन्ध है। मांस के उत्पादन के लिये भूमि के बड़े हिस्से का उपयोग होता है, वन नष्ट होते हैं ताकि पशुओं के चरने की जगह उपलब्ध हो सके और रसायनों का भी इस्तेमाल होता है। इस पर निश्चित रूप से बहस होनी चाहिए।

मांस के उपभोग को भी निर्धारित करने की आवश्यकता है। यह भी तथ्य है कि मांस लोगों के लिये प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। पोषण की दृष्टि से यह अहम है। लेकिन यह भी तथ्य है कि आज मांस खासकर लाल मांस विश्व में स्वास्थ्य में असन्तुलन की एक बड़ी वजह है। ऐसा एंटीबायोटिक की मौजूदगी के कारण है। एक वैश्विक आकलन में पाया गया है कि एक अमेरिकी प्रतिवर्ष 122 किलो मांस का उपभोग करता है। यह प्रोटीन की जरूरतों का पूरा करने के लिये आवश्यक मांस से औसतन 1.5 गुणा अधिक उपभोग है। इसे बहस के केन्द्र में होना चाहिए।

हमें नहीं पता कि भारतीय कितना मांस खाते हैं। असल आँकड़े उपलब्ध ही नहीं है। एक सरकारी गणना के अनुसार, 70 प्रतिशत गैर शाकाहारी हैं लेकिन इसका सैम्पल साइज बहुत छोटा है। सबसे अहम बात यह भी कि गैर शाकाहारी कि परिभाषा में अंडे भी शामिल हैं। भारत में मध्यम वर्ग के विस्तार के साथ उनकी खाद्य संस्कृति में सम्पन्न भोजन शामिल होगा। इससे उद्योगों को गति मिलेगी लेकिन यह पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं होगा। इसलिये अब जरूरी है कि शाकाहार और मांस खाने की मात्रा पर चर्चा की जाये।

जरूरी है कि हम ऑर्गेनिक और स्वस्थ भोजन के फायदों को सीखें। हमें भोजन परम्परा की विभिन्नता को समझने की जरूरत है। साथ ही यह भी जैविक भिन्नताओं के बीच कैसे इसका विकास हुआ और पोषण के लिये यह कितना जरूरी है। 2018 और उसके बाद इस पर चर्चा होनी चाहिए लेकिन बिना हिंसा और तोड़फोड़ किये।

शहरी-ग्रामीण विभेद

यह कहना गलत होगा कि शहरी भारत मौसम में बदलाव या प्रदूषण से बराबर प्रभावित नहीं है। इस मामले में ग्रामीण और शहरों में कोई भेद नहीं है। लेकिन एक बात साफ है कि आवास, जल, सीवेज, कचरा और प्रदूषण जैसे शहरी संकट ग्रामीण क्षेत्रों में दिक्कतें पैदा करेंगे। मौसम की मार से परेशान ग्रामीण रोजगार के लिये शहरों का रुख करेंगे। भारत की शहरी आबादी पिछले दशकों में बेतहाशा बढ़ी है।

शहर और गाँव एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। शहर भी मौसम में बदलावों से उतने ही प्रभावित हैं। चंडीगढ़ में 21 अगस्त, 2017 तक कम बारिश हुई थी लेकिन इसके बाद 12 घंटों में ही रिकॉर्ड तोड़ 115 एमएम बारिश हो गई। दूसरे शब्दों में कहें तो चंद घंटों में ही वार्षिक मानसूनी बारिश का 15 प्रतिशत पानी बरस गया। बंगलुरु में भी पहले पानी नहीं बरसा लेकिन जब बरसा तो इतना बरसा कि शहर डूब गया। यहाँ एक दिन में 150 एमएम बारिश हो गई जो वार्षिक मानसूनी बारिश का करीब 30 प्रतिशत था। माउंट आबू में दो दिन में ही आधे मानसून से अधिक बारिश हो गई। 2017 में हैदराबाद से चेन्नई तक यही कहानी रही।

इससे कई परेशानियाँ पैदा हुईं। हमारा जल प्रबन्धन दोषपूर्ण है। हम बाढ़ प्रभावित जमीनों पर निर्माण कर रहे हैं, अपने जलस्रोत नष्ट कर रहे हैं और जलमार्गों को अवरुद्ध कर रहे हैं। खराब मौसम के बीच इन हालातों ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं। हमें पता है कि क्या करना चाहिए। देरी का कोई कारण नहीं है। समय के साथ जलवायु परिवर्तन में तेजी ही आएगी। मौसम और बारिश की अनिश्चितताएँ और बढ़ेंगी, नतीजतन बर्बादियों के दायरे का विस्तार ही होगा। 2018 की चुनौती छोटे-छोटे जवाबों से आगे बढ़ने की है।

यह प्रत्यक्ष है कि वायु प्रदूषण शहरों में हमारा दम घोंट रहा है। यह स्पष्ट तौर पर समझ लेने की जरूरत है कि वायु प्रदूषण अकेले दिल्ली की समस्या नहीं है। समुद्री क्षेत्रों से दूर स्थित ज्यादातर शहरों में ऐसे हालात हैं। दिल्ली और उत्तर भारत के शहर ठंड के कारण प्रदूषित हैं क्योंकि इस मौसम में नमी प्रदूषकों को अपनी जद में ले लेती है। दिल्ली इसलिये भी प्रदूषित है क्योंकि कोई निगरानी तंत्र नहीं है जो बता सके कि हवा कितनी जहरीली है। एक-दो जगहों को छोड़ दिया जाये तो दूसरे शहर भी प्रदूषण की निगरानी नहीं करते। ये शहर निगरानी नहीं करते, इसका मतलब यह नहीं है कि वे प्रदूषित नहीं हैं।

स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण का हिचकिचाहट भरे छोटे उपायों से मुकाबला नहीं हो सकता। इसके लिये क्रांतिकारी उपाय करने होंगे। इसके लिये जरूरी है कि भारत स्वच्छ ईंधन की दिशा में आगे बढ़े, चाहे वह स्वच्छता के साथ उत्पादित बिजली हो या प्राकृतिक गैस। भारतीय शहरों को गतिशीलता में बदलाव करना होगा ताकि हम लोगों को चला सकें, कारों को नहीं। छोटे-मोटे परिवर्तनों की नहीं बल्कि आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। 2018 की यही चुनौती है।
 

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