प्रकाश में छुपा घुप्प अंधेरा

12 Aug 2010
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कुछ समय पहले तक यह धारणा थी कि परमाणु कचरे को समुद्र में डाल दिया जाएगा। लेकिन अब यह तथ्य सामने आया है कि रेडियो एक्टिव पदार्थ समुद्री जीवों में प्रवेश कर जाते हैं और खाद्य चक्र के माध्यम से वे फिर मनुष्य के शरीर में पहुंच जाते हैं।अमेरिका और हमारे देश के बीच हुए परमाणु समझौते को 123 परमाणु समझौता कहा जाता है। यह नाम अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम की एक धारा से लिया गया है। जिस तरह ये तीन अंक इस समझौते के साथ जुड़े हैं, उसी तरह समझौते को उचित ठहराने व इसे खारिज करने के लिए भी तीन कारण गिनाए जा रहे हैं। समर्थकों की सारी बहस इस समझौते से जुड़ी विदेश नीति में छिपे भाव को लेकर है। इसका विरोध कर रहे लोगों को लगता है कि यह देश के परमाणु हथियार कार्यक्रम को प्रभावित करेगा। इसका समर्थन करने वालों का कहना है कि ऐसा नहीं है। हम परमाणु शस्त्रों पर काम जारी रख सकते हैं। कुछ मानते हैं कि इससे देश के आर्थिक लाभों को गति मिलेगी तो दूसरों को लगता है कि नहीं, वह कुंद होगी, तीसरी बात देश की प्रगति में ऊर्जा को लेकर है।

लेकिन देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए परमाणु शक्ति के उपयोग में कितनी बुद्धिमानी है- इस सवाल पर इन तीन कारणों से आगे जाकर कुछ बुनियादी बातों को सोचने-समझने वाले लोग बहुत कम ही हैं।

यह अपने आप में एक विचित्र बात है कि अमेरिका के साथ इस समझौते पर बातचीत शुरू करने के पहले देश में परमाणु ऊर्जा पर कोई बहस नहीं हुई। आखिर यह निर्णय किसने ले लिया कि हम सब परमाणु ऊर्जा की प्रतीक्षा में आतुर बैठे हैं? क्या अपने इस निर्णय के पक्ष में हमारे पास कोई ठीक आंकड़े मौजूद हैं? साधारण जनों की बात छोड़िए, वैज्ञानिक समुदाय भी परमाणु ऊर्जा के खतरों को भूल जाएगा, ऐसा नहीं सोचा था। और फिर हमारे पर्यावरणवादी क्या कर रहे थे? किसी ने भी पर्यावरण के आधार पर, ऊर्जा में छिपे खतरों के आधार पर इस समझौते की कहीं कोई आलोचना नहीं की है।

परमाणु युद्ध का भय तो सबको है। लेकिन परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाना भी उतना ही भयानक काम है- इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। इस तरह की ऊर्जा के खतरों से हम अभी भी बेखबर ही रहे हैं। हम इस बात को भूल जाते हैं कि एक परमाणु ऊर्जा संयंत्र उतना घातक हो सकता है जितना कि कोई परमाणु बम। ऐसा लगता है कि आज से बीस साल पहले रूस में घटित हुई चेरनॉबिल परमाणु बिजली घर की त्रासदी को हम भूल चुके हैं। (देखिए) गांधी-मार्ग नवम्बर-दिसंबर 2006) बहुत सारे लोगों ने आर्थिक आधार पर परमाणु ऊर्जा की इस बहस का समर्थन किया है। लेकिन क्या उन्होंने परमाणु संयंत्रों से होने वाले खतरों का लेखा-जोखा भी तैयार किया है?

कूड़े-कचरे को कैसे ठिकाने लगाएं- यह आज हमारे शहरों की एक बड़ी समस्या बन चुकी है। आज तो हमारी रसोइयों व दफ्तरों, कारखानों से निकलने वाला कूड़ा-कचरा ही हमारे लिए मुश्किल पैदा कर रहा है। फिर बिजली घरों से निकलने वाले परमाणु कचरे को हम कैसे ठिकाने लगाएंगे- क्या इसके बारे में हमने कुछ सोचा है? यह कोयले से चलने वाले बिजली घर से बिलकुल अलग बात है। वहां केवल राख निकलती है। पर परमाणु कचरे से हमेशा खतरनाक विकिरण निकलती रहेगी। क्या हमने इससे निपटने के रास्ते तलाश लिए हैं? क्या दुनिया के विकसित माने गए देश अमेरिका, फ्रांस आदि ने इस भयानक जहरीले कचरे को पूरी सावधानी, सुरक्षा से निपटाने का कोई रास्ता खोज लिया है?

असली बात तो यह है कि कोई भी परमाणु संयंत्र तोड़ा नहीं जा सकता। उसे कहीं स्थानांतरित भी नहीं किया जा सकता है। न उसे कबाड़ के रूप में बेचा ही जा सकता है। कड़वी सच्चाई तो यह है कि वे हमारी राजनैतिक मूर्खता के एक मजबूत गवाह के रूप में सदियों तक राक्षस की तरह खड़े रहने वाले हैं।कुछ समय पहले तक यह धारणा थी कि परमाणु कचरे को समुद्र में डाल दिया जाएगा। लेकिन अब यह तथ्य सामने आया है कि रेडियो एक्टिव पदार्थ समुद्री जीवों में प्रवेश कर जाते हैं और खाद्य चक्र के माध्यम से वे फिर मनुष्य के शरीर में पहुंच जाते हैं।

ऐसे में जब परमाणु संयंत्र से निकलने वाले कचरे को समुद्र में डाल दिया जाएगा तो उससे संभावित खतरों से निपटने के क्या उपाय होंगे? 123 समझौता परमाणु कचरे से उत्पन्न होने वाले इन खतरों के बारे में बिलकुल मौन है। प्रख्यात चिंतक ई.एफ. शुमाकर ने परमाणु ऊर्जा संयत्रों को ‘शैतानी चक्कियाँ’ कहा था।

किसी भी परमाणु संयंत्र की उम्र को लेकर वैज्ञानिक बहस करना की संयंत्र की उम्र 20 सालों की होती है या 30 सालों की- यह एक अनावश्यक-सा विषय हो जाता है। असली बात तो यह है कि कोई भी परमाणु संयंत्र तोड़ा नहीं जा सकता। उसे कहीं स्थानांतरित भी नहीं किया जा सकता है। न उसे कबाड़ के रूप में बेचा ही जा सकता है। कड़वी सच्चाई तो यह है कि वे हमारी राजनैतिक मूर्खता के एक मजबूत गवाह के रूप में सदियों तक राक्षस की तरह खड़े रहने वाले हैं। ऐसे बिजली घर हवा, पानी व जमीन में रेडियो एक्टिव विकिरण का भयानक जहरीला घोल उड़ेल कर हमारे पर्यावरण का और हमारे जीवन का सत्यानाश करते रहेंगे। ये बातें बहुत ही चिंताजनक हैं। इन पर हर हाल में सार्वजनिक बहस होनी चाहिए थी। पर इस बारे में न तो वाम के पास कोई उत्तर है न दक्षिण के पास!

आर्थिक विकास आज का सबसे लोक लुभावन मुद्दा है। चीन या अन्य एशियाई देशों की अपेक्षा हमारी धीमी विकास दर का मजाक उड़ाते हुए कभी इसे हिंदू विकास दर कहा गया था। और अब जब हम विकसित देशों की बराबरी करने की तैयारी में हैं या फिर उन्हें पछाड़ने की कोशिश में हैं तो हम इन्हीं रद्दी बातों में, शर्मनाक विषयों में, परमाणु ऊर्जा में राष्ट्र भक्ति, राष्ट्र गौरव देखने लग गए हैं।

आर्थिक विकास को उच्च स्तर पर पहुंचाने व उसमें स्थायित्व लाने के लिए जरूरी ऊर्जा केवल परमाणु ऊर्जा से ही आ सकेगी, यह एक घिसी-पिटी बहुत ही खतरनाक बात मानी जानी चाहिए। परमाणु ऊर्जा के समर्थक अक्सर इस तरह की ऊर्जा को जलवायु परिवर्तन की हमारी तमाम समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे दावा करते हैं कि ऐसी ऊर्जा जमीन के नीचे पाए जाने वाले ईंधनों की अपेक्षा ज्यादा शुद्ध होती है। लेकिन क्या इसके लिए यह उचित समय नहीं है कि हम जमीन के नीचे के ईंधनों के विकल्प के रूप में सौर व पवन ऊर्जा की तरफ भी थोड़ा बेहतर ध्यान देना शुरू करें।

परमाणु ऊर्जा से हासिल ऐसा विकास किस काम का होगा यदि वह अपने पीछे मानव के अस्तित्व के लिए ही खतरे पैदा करता हो? ऐसी बिजली, ऐसा प्रकाश भला किस काम को जो अपने पीछे कई पीढ़ियों तक भयानक विकिरण का खतरा, घुप्प अंधेरा छोड़ जाने का अचूक, अमिट नुस्खा लिख जाता हो।

लेखक सेना में सेवारत थे। अब वे सुरक्षा वैज्ञानिक के रूप में काम करते हैं। प्रस्तुत सामग्री डाउन टू अर्थ नामक पत्रिका पर आधारित है।

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