प्रकृति का रोमांच है बरखा

धान रोपने की तैयारी में जुटा कृषक
धान रोपने की तैयारी में जुटा कृषक
मानसून शब्द भारत के बाहर से आया हुआ लगता है। बाहर से आया हो या देशज हो, ध्यान में आते ही बादलों की गड़गड़ाहट और मूसलाधार बारिश का दृश्य और आवाज मन पर छा जाती है। भारतीय साहित्य मेघ और वर्षा से भरा है। घोर ग्रीष्म-ताप के बाद वर्षा आती है। वर्षा तब आती है जब ग्रीष्म जग को बेहाल किए रहता है। इतनी जरूरत होती है जगत को वर्षा की कि न हो तो जीवन दूभर हो जाए। जीवन जल का पर्यायवाची शब्द है और बादल का एक नाम पर्जन्य भी है। पर्जन्य या परजन्य अर्थात जो दूसरों के लिए हो, परोपकारी हो। कवि धनानंद ने कहा है -
'पर कारज देह को धारे फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौं।'

भारतीय वाङ्‌मय के आदि साहित्य ऋग्वेद में पर्जन्य देवता की जो स्तुति की गई है उसमें उनका हितकारी किंतु भीषण पराक्रमी रूप चित्रित किया गया है। वह वृषभ के समान पृथ्वीतल की औषधियों को गर्भ धारण करा देते हैं। वृक्षों को गिरा देते हैं, जगत को त्रस्त विकंपित कर देते हैं। वह असुरों पर वज्र प्रहार करते हैं तो निरपराध भी भय से कांप उठते हैं। विद्युत चमकती है तो वह शक्तिशाली घोड़ों पर सवार तीव्रगति से यात्रा करते हुए कशाघात करते हैं। वस्तुतः यह वैदिक ऋषि का देखा और अनुभूत वर्षा दृश्य है जो जितना कल्याणकारी है उतना ही दुर्दांत, भीषण एवं पराक्रमी। महाभूत के वेग और शक्ति का काव्य बिंब है। बादल के ऐसे दुर्दांत रूप का चित्रण कुछ-कुछ निराला के 'बादल राग' में मिलता है। निराला के 'बादल राग' में शक्ति और गति का स्रोत भारत की सुप्त शक्ति है जिसे वह जगाना चाहते हैं लेकिन नाद योजना और शब्द संहति मानो ऋग्वेद से उठा ली गई है।

प्रकृति के रोमांच को अपने परों पर धारण करने को उत्सुक मोरप्रकृति के रोमांच को अपने परों पर धारण करने को उत्सुक मोर'कंपित जंगम नीड़ विहंगम, ऐ न व्यथा पाने वाले, ऐ अटूट पर टूट छूट पड़ने वाले उन्माद' निराला का बादल वज्र गर्जन करने वाला है। जिनका खजाना बंद है और संतोष क्षुब्ध है वे अंगना - अंग से लिपटे भी बादल के वज्र गर्जन से कांप रहे धनी वज्र गर्जन से बादल ! सच्ची बात तो यह है कि भारत के किसी ऐसे बड़े कवि की कल्पना भी करना मुश्किल है जिसने बादल पर अच्छी कविता न लिखी हो (अपवाद मिलेंगे तो शायद उर्दू के अनेक बड़े कवि) उसका कारण बादल और भारत की धन-धान्य संपदा का अन्योन्याश्रित संबंध है। अब भी भारत की संपत्ति का सबसे बड़ा स्रोत कृषि है और कृषि वर्षा पर निर्भर है। प्राचीन भारत के श्रेष्ठ कवि कालिदास ने मेघ के बारे में यक्ष से कहलाया है-

‘त्वश्या यत्रं कृषिफलभतिभ्रूविलासै न भिज्ञै
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदबधू लोचनै पीयमानः।’


‘भौंहों के चालन की कला से अनभिज्ञ ग्रामवधुएं अपने प्रीति-स्निग्ध आंखों से तुम्हें ऐसे निहारेंगी मानों तुम्हें लोचनों से पी रही हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि खेतों की फसल का दारोमदार तुम्हारे ऊपर है। तुम्हारे आने का वे ऐसा हार्दिक स्वागत करेंगी कि उनकी हृदय की भावना आंखों से छलक आएगी।’ कालिदास ने बादल और आंखों का अद्भुत बिंब-श्लेष किया है लेकिन यहां उसकी चर्चा बहुत प्रासंगिक नहीं होगी। कालिदास ने मेघ को श्रवण सुभग भी कहा है। श्रवण सुभग यानी जो अपनी ध्वनि से ही हृदय पर अधिकार कर ले। मेघ की ध्वनि तो श्रवण सुभग है और उसका वर्ण नीलमेघ। आप मेघ के नील-वर्ण के प्रति भारतीय मानस की आसक्ति का अनुमान केवल इस बात से ही कर सकते हैं कि राम और कृष्ण दोनों का वर्ण नीलमेघ है। तुलसी ने राम-नीलांबुज श्यामल कोमलांग और कृष्ण तो घनश्याम ही हैं। भारतीय मानस इससे बढ़कर मेघ के प्रति और क्या कृतज्ञता व्यक्त कर सकता था कि उसने अपनी संस्कृति के प्रतिमान विष्णु रूपों को उसी के वर्ण रूप में गठित किया।

बादल की यह अप्रतिम प्रियता केवल, रूप वर्ण या शीतलता के ही कारण नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि प्रियता का मूल कारण बादल और कृषि का अन्योन्याश्रित संबंध है। बादल नहीं तो फसल नहीं, अन्न नहीं। तुलसीदास राम के भक्त थे लेकिन अन्न का महत्व कम नहीं आंकते थे। भूख, महामारी, बेरोजगारी पर बहुत लिखा-पेट की आग बड़वाग्नि भी अधिक है। फिर बताया कि यह आग राम की कृपा से ही बुझाई जा सकती है। पेट की आग बुझाने वाले राम काले बादल घनश्याम हैं - 'तुलसी बुझाइ आगि राम घनस्याम ही ते ।'

बारिश के इस मौसम में किसानों का दूसरा घर होते हैं खेतबारिश के इस मौसम में किसानों का दूसरा घर होते हैं खेतसो बादल राम-कृष्ण का रूप वर्ण ही नहीं है। वह भूख की आग बुझाने वाला राम-विष्णु का अवतार भी है। खेती, फसल का सौंदर्य अद्भुत अनुपमेय है। खेत में बीज का उगना, धान, गेहूं, गन्ने, साग, सब्जियों, फलद वृक्षों, पुष्पों, ओषधियों का उगना, पौधों का हवा में लहराना, उनकी गंध के झोंके- कितने प्राणदायक होते हैं। वे जीवन के साक्षात सौंदर्य रूप हैं। उन्हें प्रकृति के ही रूप में ग्रहण किया जाता है। किंतु धान, गेहूं या अन्य खाद्य वनस्पतियां शुद्ध प्रकृति नहीं हैं वे प्रकृति जैसी लगती हैं। क्योंकि उन्हें पर रूप मनुष्य ने दिया है। धान, गेहूं, फल, सब्जियां मनुष्य श्रम करके, पसीना बहा करके पैदा करता है - खेत गोड़ता, बीज बोता है, रोपता है - और फिर नाना प्रकार के अन्न प्राप्त करता है। कृषि की खास बात यह है कि कृषि संस्कृति (ऐग्री कल्चर) ऐसी संस्कृति है जो प्रकृति की ही तरह बनी रहती और वैसी ही लगती है। अन्य उद्योग रूप न तो इतने सुंदर होते हैं और न इतने जीवनरक्षक। वस्त्र, शस्त्र, वास्तु, भवन, मोटर कार आदि बनाने वाले साधन यंत्र न इतने सुंदर ही हैं, न इतने प्राणदायक। वे तो पर्यावरण दूषक हैं। कृषि ऐसी उत्पादन संस्कृति है जो अधिकतम उपयोगी भी और साथ पर्यावरण मित्र, स्वास्थयवर्द्धक भी।

इसीलिए किसान अपने श्रम जल से सींची और पैदा की हुई फसल को देखकर संतान को देखने जैसा प्रसन्न होता है। सुधी जन इस श्रम में बादल की भूमिका समझते हैं। बादल सिर्फ रूप सुंदर या श्रवण सुभग ही नहीं है। वह जीवनदायक, जीवनरक्षक है, अन्नदाता भी है इसीलिए हमारे कवि उस पर इतना रीझे हैं। हमारे त्यौहार, पर्व, उत्सव वर्षा और फसलों से जुड़े हैं। यह शुभ संयोग ही है कि भारत को स्वतंत्रता मिलने वाली तिथि 15 अगस्त वर्षा ऋतु में ही पड़ने वाली तिथि है।

केदारनाथ अग्रवाल ने लिखा है।
“खेतवा के अंचरा परसि रहे बदरा”
मोरे मन हियरा फहरि रहे बदरा।’


तो बाब नागार्जुन ने मेघ संगीत में मेघ कुछ इस तरह प्रकट होता है-
‘धिन-धिन धा धमक-धमक-मेघ बजे।
दामिनि वह गई दमक- मेघ बजे
दादुर का कंठ खुला- मेघ बजे
धरती का हृदय खुला- मेघ बजे
पंक बना हरिचंदन- मेघ बजे
हलका है अभिनंदन- मेघ बजे।’


सूरदास द्वारा अभिव्यक्त कृष्ण की जीवन लीला में व्रज में इंद्र के कोप का एक प्रसंग आता है जिसमें वर्षा का विनाशकारी रूप प्रकट होता है– जयशंकर प्रसाद के ‘कामायनी’ महाकाव्य या गैब्रियल गर्सिया मार्क्वेज के उपन्यास ‘एक सौ वर्ष का एकांत’ जैसा वर्षा प्लावन! लेकिन सूरदास के उस वर्षा वर्णन में भी नाद और गति का संयोग है। मेरे देखे सूरदास ने बादलों की गतिविधि का सर्वोत्तम चित्रण कृष्ण के जन्मोत्सव के प्रसंग में किया है। सूरदास ने यमुना, कुंज और वर्षाकालीन बादल-तीनों एकत्र कर दिए हैं। तीनों हर्षित, पुलकित और कृष्ण जन्मोत्सव में शामिल हैं। सूर के इस चित्र पर डॉ. रामविलास शर्मा की टिप्पणी उद्धृत न करना पाठकों को वंचित करना होगा -

'गरजत कारे भारे जूथ जलधर के' वह भी यमुना के श्याम जल पर धरती से आकाश तक प्रकृति पुलकित है और उसकी पुलक फूट पड़ी है। उसकी सघनता में। सूखे बादलों की फोटो नहीं खींची, कृष्ण जन्म पर गोपी-ग्वालों और नृत्य-मदन के साथ उन्हें भी यमुना के जल पर पुलकित दिखाया है। सावन-भादों से अधिक प्रकृति को कभी रोमांचित देखा है! (मित्र संवाद) आगे चलकर डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रकृति की अंध इच्छा की बात की है। 'प्रकृति की अंध इच्छा' अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अर्थगर्भित शब्द-संयोग है। यह जड़ के चेतन होने के प्रयास की स्थिति का वक्तव्य है। प्रकृति अंधी है लेकिन वह हमें उल्लसित या उदास होती दिखाई पड़ती है। प्रकृति का सर्वाधिक उल्लसित रूप और आचरण वर्षा में दिखलाई पड़ता है। जलद में। जलद जल वर्षण से प्रकृति को कितना हरा-भरा कर देते हैं। सावन के महीने का प्रभाव कालिदास के विरही मेघ ने झेला था। व्याकुल तो वह आषाढ़ के प्रथम दिवस से ही हो गया था किंतु सावन में वह अत्यंत अधीर हो उठा - 'सावन के महीने में परत-दर-परत के समान सजी हुई मेघमाला से आकाश भर जाता है, पहाड़ों पर नाचने वाले मयूर हर मेघ निःस्वन के ताल पर छमाछम नाचते हैं और नीचे धरती कंदली पुष्पों से गमगमा उठती है। सावन में धरती पर आसमान उतर आता है इसीलिए सावन के महीने को संस्कृत में नभस कहते हैं' (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) यानी सावन धरती को आकाश बना देता है या यों कहें दोनों का इतना मिलना हो जाता है कि धरती और आकाश दोनों को अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है। निराला ने लिखा है - 'आकाश बदल कर बना महीं।'

बचपन में, गांव में बरसात का रूप अलग ही होता था। अनुभव भी विचित्र हैं। महानगरीय अनुभवों से अलग-भिन्न। महानगरों में तो आदमी मौसम से बचता रहता है। जाड़े में सर्दी से, गर्मी में ताप से, बरसात में भीगने से। उसे प्रकृति से, मौसम से डर लगा रहता है। महानगर के औसत, खाते-पीते आदमी को लगता है कि गर्मी, जाड़ा, बरसात उसे बीमार कर देंगे। बीमारी उसके शरीर में बाद में आती है पहले उसके मन में आती है। निस्संदेह कुछ कवि इस बीमारी को पहचानते भी हैं। नए कवि इब्बार रब्बी की ये पंक्तियां दिल्ली में भी वर्षा में भीगने का माहात्म्य अंकित करती हैं -

'वर्षा में भीगकर महान हो गया
गल गई किताबें, इन्सान हो गया।'


गांव में हम आज के महानगरीय आचरण से बिलकुल उलटा आचरण करते थे - आंधी आने पर आम बटोरने जाते थे, बरसात होने पर भीगते थे - कहा जाता था कि पहली बारिश में नहाने से दाद-खाज, फुंसी-फोड़े ठीक हो जाते हैं। सड़कों गलियों में जलधारा बहने लगती थी तो उसमें कागज की किश्तियां बना-बना कर छोड़ते थे। बरसात में भीगते हुए बाग में टपक कर गिरते हुए आमों को (चूसने वाले आम, कलमी नहीं) खाने का मजा ही और है। किसी साल मेरे गांव के पास बहने वाली नदी बूढ़ी राप्ती में बाढ़ आ जाती थी। पानी गांव तक पहुंच जाता था। गांव के पुराने लोग कहते गंगा मइया आई हैं। औरतें शाम को लोटे में जल भर कर या दूध भरकर उन्हें गाती हुई फूल चढ़ाने जातीं।

बरसात में धान के खेतों से हवा के झोंकों में अलौकिक गंध आती है। हरे-हरे पौधों में हवा लहरें उठाती हैं, लगता है, वे खेत न हों, हरे जल के हिलोरे मारते हुए तालाब हों। वर्षा में सबसे प्रसन्न किसान होते हैं। उनके श्रम के दिन आ जाते हैं। वे श्रमफल, खेती फसल की आशा में इतना भर जाते हैं कि धीर परिश्रम करते हुए भी पुलकित रहते हैं। वर्षा में गीत सबसे ज्यादा गाए जाते हैं। आल्हा, कजली झूला तो वर्षा के ही गीत हैं। वर्षा का एक पक्ष और भी है। बरसात के किसान जितना ज्यादा व्यस्त होते हैं, गांव-कस्बे के दुकानदार, छोटे व्यापारी उतना ही निठल्ले। बरसात में आने-जाने की व्यस्तता कम हो जाती है। खेतिहर अपने काम में लग जाते हैं इसलिए दुकानदारी कम हो जाती है। तब दुकानदार या अन्य व्यापारी घर में बैठे-बैठे या तो गाना-बजाना करते हैं, आल्हा चैती सुनते हैं या पढ़ते-लिखते हैं। हमारे समय में दुकानदार ज्यादातर राधेश्याम, रामायण, किस्सा हातिमताई, आल्हाखंड, तोता-मैना, बेताल पचीसी, चंद्रकांता उपन्यास, भूतनाथ आदि पढ़ते थे। शाम को एक आदमी लालटेन जलाकर पढ़ता मोहल्ले भर के लोग सुनते।

बारिश से बचने की जुगत भिड़ाती बालाबारिश से बचने की जुगत भिड़ाती बालामेरा गांव हिमालय की तलहटी में है। पहाड़ पर वर्षा होती तो दिखलाई पड़ती। पहाड़ पर उगे हुए पेड़ बरसात में धुंधले हो जाते। वर्षा निकल जाती तो निखर उठते। बरसात के बाद तो प्रकृति मानो स्नान करके निखर उठती है। इस दृश्य पर हमारे प्राचीन कवि कालिदास का एक कालजयी श्लोक है। जिसका अर्थ है- पार्वती ने विवाह का मंगल स्नान किया। विशुद्ध गात्रा पार्वती ने पतिगृह जाने योग्य वस्त्र धारण किए। ऐसी शोभित हुईं जैसे पर्जन्य जलाभिषेक के उपरांत प्रफुल्ल काशों (पुष्प) वाली पृथ्वी। पहाड़ से वर्षा हमारे गांव आती हुई दिखलाई पड़ती। मैदान की दूसरी ओर से मानों घोड़ों की फौज चली आ रही हो। वह बढ़ती आती। फिर टपाटप बूंदें और फिर घनघोर वर्षा बरसात में खाये जाने वाले व्यंजन, पकवान होते हैं। गुलगुले, अंदरसे खासतौर पर बनाए जाते हैं। कई सब्जियां जिनका उपयोग गांव वाले ही जानते हैं।




बरसात सुहावनी तो होती है लेकिन बरसात में खासतौर पर गांवों, कस्बों में कीचड़ गंदगी भी बहुत हो जाती थी। बीमारियां भी। मच्छर भी और सांप बहुत निकलते थे। सभी सांप विषैले नहीं होते थे लेकिन उनसे डर तो लगता था। बाढ़ आती तो सांपों के बिल में पानी भर जाता। वे इधर-उधर जगह ढूंढ़ते। कभी-कभी तो सांप पेड़ों पर लटकते मिलते। सो बरसात में सब कुछ अच्छा ही नहीं होता। कुछ ऐसा भी होता खासतौर अभावग्रस्त जन के लिए जो असुविधाजनक होता। मानसून, वर्षा, बादल, नदियां, जलाशय, समुद्र हमारी जल संपदा की समृद्धि हैं। इस समृद्धि में हमारी अपार सांस्कृतिक संपदा भी शामिल है मसलन, मियां की मल्हार, मेघ मल्हार, कजरी, झूला आदि। अब विकास की अंधी दौड़ में जल-संकट मंडरा रहा है। हमारे देशवासियों को इन स्थितियों से निपटने की जुगत करनी पड़ेगी। हमें बादल कितना देते हैं- उनका दान संभालने की योग्यता हमें अर्जित करनी है।

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