प्रकृति के नियमों में मनुष्य का हस्तक्षेप (Human interference in nature)

1 Oct 2016
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प्रकृति का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ मनुष्य न पहुँच सका हो, मानव ने अपने प्रयासों से प्रकृति की अनसुलझी गुत्थियों को भी सुलझा दिया है, उसके रहस्यों का उद्घाटन किया है, उसके पदार्थों, तत्वों व वस्तुओं का संयोजन कर उन्हें जीवन के लिये उपयोगी बनाया है। प्रकृति संबंधी सभी भ्रमों और मिथकों को तोड़कर साबित कर दिया है। मनुष्य के अंदर सच्ची लगन हो तो वह असंभव को भी संभव कर दिखाता है।

एक सुहानी सुबह, ज्यों ही सूरज की पहली सुनहली किरण ने धरती का स्पर्श किया, मनु और शतरूपा की संतान ने ऐसा अनुभव किया कि वह पाषाण तामाद्रि युगों को सहसा लाँघकर विज्ञान युग में आ पहुँची हैं। आज तक मनु पुत्र कितना असहाय था, कितना बेचारा था, प्रकृति रानी का वह क्रीतदास था, उसकी भृकुटी के संचालन मात्र से मनुष्य के प्राण पीपल पात की तरह काँपने लगते थे, किंतु आज तो वह सम्राट बन बैठा है। प्रकृति के विशाल साम्राज्य पर उसका एकाधिपत्य है क्योंकि उसने विज्ञान का महामंत्र साध लिया है। वह अब भिखारी बौना वामन नहीं वरन विराट भगवान है, वह जब चाहे विज्ञान की महाशक्ति से आकाश, पाताल और पृथ्वी तीनों लोकों को तीन डगों में माप सकता है।

विज्ञान महाप्रभु के गुणों का बखान करने में सहस्त्र जिह्वा शेषनाग भी संकोच करते हैं, वाग्देवी सरस्वती की वाणी भी शिथिल होने लगती है, तो मानव की बात कौन कहे, विज्ञान वह कामतरू है जिसकी छाया में हम अपने मनोवांछित फलों की प्राप्ति कर सकते हैं। मानव ने अपनी खोजी और जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण प्रकृति को धता बताकर विज्ञान रूपी एक ऐसा अलादीन का चिराग तैयार किया है कि उसको मलते ही सारे खजानों के द्वार आप ही खुल जाते हैं, आज मानव निरंतर अपने सपनों के संसार को साकार कर उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। अब कल्पित इन्द्रासन का सुख संसार हमारे चरणों पर समर्पित है, आज मानव ने धरती नाप ली, सागर छान लिया और एक लंबी छलांग लगाकर आकाश को भी चूम लिया।

आखिरकार सन 1969 में मनुष्य पहुँच गया चाँद पर उस बुढ़िया के पास जो सदियों से वहाँ बैठी चरखा कात रही थी लेकिन जब मनुष्य वहाँ पहुँचा तो वह बुढ़िया गायब हो गई, और उसके बदले हमें मिले चन्द्रमा के बारे में ठोस वैज्ञानिक तथ्य।

आज मानव विज्ञान की सहायता से प्रकृति के नियमों में फेरबदल कर निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसरित है और यह सही भी है, आज मानव ने कष्टप्रद यात्रा को सुखप्रद कर दिया है, रेलगाड़ी, मोटर, बस, स्कूटर, जलयान, वायुयान, हेलीकॉप्टर इत्यादि द्वारा हम कम समय में लंबी से लंबी दूरी चैन से तय कर सकते हैं। आज मानव अपने परिश्रम और प्रयास से जेठ की सघन दुपहरी में वातानुकूलित कक्षों में मसूरी तथा दार्जिलिंग का मजा ले सकते हैं। तथा भयानक शीतलहरी में ताप के द्वारा अपने कक्षों में बसंती बयार का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। जो कमरा भूतनाथ का अखाड़ा प्रतीत होता था आज आप उसमें प्रकाश पर्व मना सकते हैं। जहाँ आपका मन उदास हो रहा हो तो आप रेडियो, टेलीविजन की मधुर स्वर लहरियों द्वारा मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं यदि अपने किसी प्रेमी मित्र से बतरस लालची है तो एक नगर या एक राष्ट्र की बात कौन कहे यदि आप समग्र संसार से दूसरे छोर तक संपर्क स्थापित करना चाहें तो, मोबाइल और केबल आपकी सहायता के लिये हाजिर हैं। असाध्य से असाध्य रोगों का निदान मानव ने अपनी सूझ बूझ से ढूँढ लिया है।

यदि हम न्यूयार्क के ‘स्काई सक्रेपर’ में रहकर व्योम विहार का आनंद लेना चाहते हैं तो विज्ञान के विश्वकर्म करबद्ध खड़े हैं। यदि आप अपने सुंदर तन पर बेशकीमती मनमोहक कपड़ा धारण करना चाहते हैं तो मैनचेस्टर और अहमदाबाद की मिलें आपकी सेवा में तत्पर हैं, मतवाले बादल के सामने अब कुटज कुसुमों से पूजा करने का समय बीत गया, अब चाहें तो बादल को कैद कर स्वेच्छानुसार कार्य करा सकते हैं, सुना जाता है- ‘मांगहि वारिद देंहि जल रामचन्द्र के राज’ अर्थात रामचन्द्र के राज्य में मेघ से याचना करते ही जल मिलता था, किन्तु आज मानव निर्मित विज्ञान राज्य में तो नया बादल ही खड़ा किया जा सकता है, अगस्त्य ऋषि के श्राप के डर से विंध्याचल पर्वत झुक गया था, किंतु आज डायनामाइट के डर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ भी भीगी बिल्ली बन जाते हैं अत: आज निस्संकोच कह सकते हैं -

पूर्व युग सा आज का जीवन नहीं लाचार,
आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार,
यह समय विज्ञान का भ्रांतिपूर्ण समर्थ,
खुल गए हैं गूढ़ संसृति के अमित गुरू अर्थ।


एक युग था मनुष्य प्रकृति से भय खाता था, पहाड़ों के दुर्गम शिखर उसे डराते थे, नदियों का प्रवाह उसके साहस को चुनौती देता था, सागर की लहरें उसके मन में भय उत्पन्न कर सकती थीं पर आज प्रकृति के सम्पूर्ण ओर छोर पर मानव का ही आधिपत्य है, आज प्रकृति मानव की सहचरी और दासी दोनों बन गई है।

अभी तक मेरे द्वारा जो भी तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं वे सब मानव के विकास के द्योतक थे, क्योंकि मानव निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर है, और यही परिवर्तन उसे उन्नति दिलाता है यही परिवर्तन उसकी सफलता, सभ्यता तथा विकास का परचम लहराता है और यदि मानव को विकसित बनना है तो परिवर्तन आवश्यक है तथा परिवर्तन के लिये प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप अति आवश्यक है।

आज मानव के बिना ही संतान पैदा की जा चुकी हैं, परखनली शिशु को विज्ञान ने जन्म दिया, डा. हरगोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिक ने। जन्म के संबंध में निरंतर खोज की मानव ने अपने अथक प्रयास तथा जिज्ञासा के बल पर। पहले भेड का प्रतिरूप ‘डॉली’ का निर्माण कर समग्र विश्व को आश्चर्य चकित कर दिया और अब मानव क्लोन तैयार कर प्रकृति के शाश्वत नियम पर भी विजय हासिल कर ली है। नदियों के प्रवाह को रोककर उसे जीवनोपयोगी बना लिया है साथ ही नदियों में आने वाली बाढ़ के परिणामों से भी मानव समुदाय को बचाया है।

प्रकृति का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ मनुष्य न पहुँच सका हो, मानव ने अपने प्रयासों से प्रकृति की अनसुलझी गुत्थियों को भी सुलझा दिया है, उसके रहस्यों का उद्घाटन किया है, उसके पदार्थों, तत्वों व वस्तुओं का संयोजन कर उन्हें जीवन के लिये उपयोगी बनाया है। प्रकृति संबंधी सभी भ्रमों और मिथकों को तोड़कर साबित कर दिया है। मनुष्य के अंदर सच्ची लगन हो तो वह असंभव को भी संभव कर दिखाता है। अथक परिश्रम तथा कार्य के प्रति समर्पण ही प्रतिभा को जन्म देते हैं, इसी उक्ति को चरितार्थ करते हुए मनुष्य निरंतर विकासोन्मुख है। ईश्वर द्वारा निर्मित सभी प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ है मानव, मानव की चिंतन शक्ति, तर्क शक्ति तथा बुद्धि ने उसे अन्य प्राणियों से अलग किया है। मानवीय इतिहास के आरंभ होने के साथ ही मनुष्य ने सृष्टि के अनेक रहस्यों तथा क्रिया कलापों को सम्पन्न करने की चेष्टा की, इन्हीं प्रयासों दौरान ज्ञान - विज्ञान के नए द्वार खुलते चले गए।

बीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते उसने अनेक भौतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर नए-नए आविष्कारों से संसार को आश्चर्य चकित किया है, उसने संपूर्ण सृष्टि में परिवर्तन कर नया दृश्य उपस्थित किया है, उसे सभ्य तथा उन्नत बनाया है, यदि वह ऐसा न करता तो वह आज भी आदि मानव ही होता, इसलिए नएपन के लिये प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप आवश्यक है। कुछ पाने के लिये कुछ खोना ही पड़ता है, बिना खोए हुए, त्याग किए हुए भगवान भी प्रसन्न नहीं होते, इसलिए आज का भगवान विज्ञान है, आज के देवता वैज्ञानिक है, अर्थात सृष्टि की रचना के लिये थोड़ी बहुत कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। पहाड़ों पर चलना है तो सड़कें बनानी ही पड़ेंगी, सड़कें बनेगी तो पेड़ पौधों और चट्टानों को हटाना ही होगा, चट्टानें आप और हमसे तो हटेंगी नहीं तो इसके लिये डायनामाइट ही इस्तेमाल करना पड़ेगा और फलस्वरूप थोड़ा भूस्खलन तो होगा ही।

स्वच्छ पर्यावरण तथा स्वस्थ जीवन के लिये हमें पुरा-पाषाण काल में नहीं जाना चाहिए और न ही अपने सामाजिक जीवन में विज्ञान, टेक्‍नोलॉजी की उन्नति, प्रकृति और विकास को ताक कर रख देना चाहिए। अत: मानव की उन्नति एवं प्रगति के लिये प्रकृति के नियमों में मानवता का हस्तक्षेप उचित और आवश्यक है।

प्रकृति-संस्कृति रही कराह न मेरा रूप बिगारो रे …
विज्ञान-संस्कृति रही कराह के रहते रूप संवारो रे …


सम्पर्क


स्नेहा जोशी
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून



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