प्रकृति की जीवंतता और संवैधानिक अधिकार

22 Feb 2014
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हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में तो पेड़ पौधों एवं जानवरों का काफी महत्व दर्शाया गया है। कई अवसरों पर पेड़ पौधों की पूजा की जाती है तो कई जानवर तो भगवान के वाहन भी हैं। अतः हमारे देश में इन्हें संवैधानिक अधिकार प्रदान करने हेतु ज्यादा गहराई से सोचा जाना चाहिए। हमारे यहां वन, वन्यजीव एवं पर्यावरण सुरक्षा हेतु कई कानून एवं अधिनियम हैं परंतु उनके कोई संवैधानिक अधिकार नहीं हैं। जीवों के अधिकार का कानून लागू होने पर यह संभव है कि पेड़ों को काटने पर हत्या का मामला दर्ज हो। दुनियाभर के देशों में मनुष्य को कई कानूनी एवं संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं, परन्तु पेड़, पौधों एवं जंतुओं के कोई अधिकार नहीं हैं। पेड़-पौधों एवं जंतुओं का जीवन मनुष्य के रहम या दया भाव पर ही चलता है। यह कैसा आश्चर्यजनक विरोधाभास है कि जो पेड़-पौधे एवं जन्तु अपने पर्यावरण के साथ-साथ इस पृथ्वी को मनुष्य के रहने लायक बनाते हैं, उनके अपने कोई अधिकार नहीं है। इस विरोधाभास को कम करने के लिए कुछ वर्षों पूर्व दक्षिण अमेरिका के दो देश बोलीविया एवं इक्वाडोर ने प्रकृति प्रेम की मिसाल कायम करते हुए पेड़ पौधों एवं जंतुओं को सुरक्षा प्रदान करने हेतु संवैधानिक अधिकार प्रदान करने की व्यवस्था प्रदान की है। 165 सदस्यीय संविधान समिति ने इसे एक वर्ष की मेहनत से तैयार किया एवं 70 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने इस पर सहमति प्रदान की।

इस संविधान में “प्रकृति के अधिकार’’ नाम से एक अध्याय है। जिसमें स्पष्ट बताया गया है कि ’’पेड़ पौधों एवं जंतुओं को भी मनुष्य के समान जीवित रहने, विकास करने एवं अपनी उम्र को पूरा करने का नैसर्गिकअधिकार है एवं लोग, समाज एवं शासन प्रशासन की यह जिम्मेदारी है कि वे पेड़-पौधों एवं जंतुओं के अधिकार का ध्यान रख उन्हें सुरक्षा प्रदान करें। इस संविधान का दुनियाभर के पर्यावरण एवं प्रकृति प्रेमियों ने सम्मान व स्वागत करते हुए तथा इसे अभूतपूर्व बताते हुए जैवविविधता संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण बताया है। यह भी बताया गया है कि व्यावहारिक रूप से इसके लागू होने पर कुछ परेशानियां संभावित हैं। परंतु उनके अनुसार इसमें संशोधन कर इसे अधिक प्रभावशील बनाया जाएगा।

वैसे जंतुओं की बात छोड़ दें तो पेड़-पौधों में जीवन की उपस्थिति भारतीय मूल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य जगदीशचंद्र बोस पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। पेड़-पौधों में उपस्थित पर्ण हरिम (क्लोरोफिल) की रासायनिक रचना मानव रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन से काफी समानता दर्शाती है। दोनों ही चार पायरोल रिंग के बने होते हैं। क्लोरोफिल में मेग्नेशियम पाया जाता है, जबकि हीमोग्लोबिन में आयरन (लोहा) होता है। क्लोरोफिल कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करता है, जबकि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन (प्राणवायु) का। हिमोग्लोबिन विघटित होकर हीमेटिन बनाता है तो वहीं दूसरी ओर हिमेटाक्सीलान केम्पोचिएनम नामक वृक्ष से प्राप्त हिमेटाक्सीलिन का रंग प्रारंभ में रंगहीन व कणीय होता है। परंतु प्राणवायु के संपर्क में आकर रक्त की तरह लाल हो जाता है एवं इसे भी हीमेटिन कहते हैं।

मानव के समान ही पेड़-पौधों का जीवन भी सूर्य से जुड़ा होता है और उससे प्रभावित होता है। चयापचीय क्रियाएं (मेटाबोलिक एक्टिविटी) दिन में तेज व रात को धीमी होती है। मनुष्य की भांति पेड़-पौधे रात को सोते तो नहीं हैं परंतु इमली, शिरीश एवं पुआड़ा की पत्तियां रात के समय मुरझाकर सोने का आभास जरूर देती हैं। पौधों के वृद्धिकारक हार्मोन ऑक्सीन की उपस्थिति मानव मूत्र में भी देखी गई है। इसी प्रकार ईस्टोजन हार्मोन खजूर एवं अनार के बीजों में देखा गया है। मनुष्य एवं पौधों दोनों में विकसित नर व मादा अंग पाए जाते हैं तथा यह प्रजनन के बाद बच्चे एवं बीज को पैदा करते हैं। सोचने समझने एवं संवेदनशीलता प्रदान करने वाले तंत्रिका संस्थान का पौधों में अभाव होता है। परन्तु विस्कोंसीन वि.वि. के वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पूर्व इलेक्टोमायोग्राफ की मदद से छुईमुई के पौधे पर प्रयोग कर यह बताया कि स्पर्श करने पर इसकी पत्तियों का सिकुड़ना सूक्ष्म स्तर पर तंत्रिका संस्थान के होने का आभास देता है।

कुछ प्राचीन ग्रंथों में वृक्षों को मानव के बराबर माना गया है। उपनिषद में प्राचीन फल, फूल, तथा वृक्षों को ताकतवर मानव बताया गया है। वृक्षों की पत्तियां, छाल, काष्ठ व रेशों की तुलना क्रमशः मानव के फेफड़ों, मांस, हड्डी एवं बल से की गई है। उपरोक्त सारी समानताएं यह दर्शाती है कि पेड़-पौधे मनुष्यों से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। इसलिए उन्हें संवैधानिक अधिकार दिया जाना आवश्यक है।

हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में तो पेड़ पौधों एवं जानवरों का काफी महत्व दर्शाया गया है। कई अवसरों पर पेड़ पौधों की पूजा की जाती है तो कई जानवर तो भगवान के वाहन भी हैं। अतः हमारे देश में इन्हें संवैधानिक अधिकार प्रदान करने हेतु ज्यादा गहराई से सोचा जाना चाहिए। हमारे यहां वन, वन्यजीव एवं पर्यावरण सुरक्षा हेतु कई कानून एवं अधिनियम हैं परंतु उनके कोई संवैधानिक अधिकार नहीं हैं। जीवों के अधिकार का कानून लागू होने पर यह संभव है कि पेड़ों को काटने पर हत्या का मामला दर्ज हो। संयुक्त राष्ट्र संघ को भी चाहिए कि वह मानव अधिकार घोषणापत्र के साथ-साथ प्रकृति के अधिकार का भी कानून बनवाए एवं सदस्य देशों में इसका पालन भी करवाए।

कुछ ही महीनों बाद देश में संसदीय चुनाव होने वाले हैं क्या कोई राष्ट्रीय दल इस संबंध में सोचेगा?

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