प्रकृति में परिवर्तन से बदला मानसून

लगभग 70 करोड़ साल पहले ओर्कयन युग में विश्व के सबसे पुराने अरावली पर्वत का निर्माण हुआ था। अब इस विशाल पर्वत का सिर्फ कठोर पांतरित भाग ही अवशेष के प में बचा हुआ है। डेकन पठार के विस्तार के प में यह दिल्ली तक फैला है और उत्तर भारत के मैदान में जल विभाजक के प. में है। लगभग 50 करोड़ वर्ष पहले विशाल टेथिस भूसन्नति दलदली मैदान था, जिसका पूर्व से पश्चिम में लंबा फैलाव था, जो ऐशया भू-भाग के दो विशालपुराने खंड, डेकन और साइबेरियन के बीच था। 5 से 30 डिग्री अक्षांश पर स्थित टेथिस के मैदान में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक हवाएं, सामान्य ग्रहीय पवन बिना किसी बाधा के सालों भर प्रशांत महासागर की ओर से चला करता था।

वह प्रशांत के तटीय इलाकों में भारी बारिश का कारण बनता था। ये हवाएं इस महादेश के अंदर दूर तक जाती थी और भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल उत्तरी मैदान द्वारा अधिग्रहित क्षेत्र तक पहुंचती थी। यह अवस्था हवा में नमी की कमी, कम बारिश का कारण बनता था। उस वक्त यह क्षेत्र वर्तमान में अफ्रीका के सवाना घास के मैदान की ही तरह था। निश्चित प. से तब वहां दलदल के चारों ओर कुछ वन और तटीय इलाकों में मैंग्रोव भी थे। अकासिया अरेबिका और जेरोफाइट्स पौधों के जीवाश्म इस बात को साबित करते हैं।

हिमालय और नदियां आज से लगभग 4.5 करोड़ साल पहले इयोसिन काल में हिमालय के उत्थान के साथ समस्थैतिक संतुलन बनाये रखने के लिए, दक्षिणी आधार पर का अवशिष्ट मैदान डूब गया, जिससे छिछले लंबे गे का निर्माण हुआ। जिसे भू-विज्ञान की दृष्टि से इंडो-गंगा-ब्रह्मा सागर कहा जाता है। हिमालय का उत्थान पच्छाम बादलों की ऊंचाई तक हो गया था, जहां छोटे-छोटे बर्फ के टुकड़ों थे बाद में यह विशाल बर्फ से ढंक गया, जो विशाल जलाशय के प में काम करने लगा। किनारों पर बर्फ के लगातार पिघलने से भारी मात्रा में पानी का बहाव होने लगा। भू-गति के उत्तर प्रभाव के कारण भारी पर्वतीय वर्षा होने लगी। परिणामत विशाल नदियों का जाल बिछ गया, जिसमें भारी मात्रा में नव-निर्मित हिमालय के ऊपरी मुलायम परतों का अपरदन होने लगा। हिमालय को काट कर नीचे लाये इस मलबे में डेकन ब्लॉक से आने वाला अपेक्षाकृत कम मलवा भी मिल गया, जिससे इंडो-गंगा-ब्रह्मा समुद्र धीरे-धीरे भर गया और उत्तर भारत के मैदानी इलाके में तब्दील हो गया।

हिमालयन निक्षेप का एक भाग इसके आधार तल पर जमा होने लगा। इससे शिवालिक द्रोणी का निर्माण हुआ। कुछ और छोटे-छोटे उत्थान और सतत कटाव के कारण हिमालय अपने वर्तमान स्वप में है। उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम में फैला अरावली हमेशा मुख्य जल-विभाजक रहा है। मैदान के असमान विभाजन के कारण इसका काफी छोटा हिस्सा पश्चिम में है। जबकि सिर्फ एक हिमालयी नदी, सिंधु, जिसकी सहयोगी नदियां अधिकतर छोटी-छोटी हैं। यह नदियां पश्चिमी मैदानों से होकर अरब सागर में गिरती हैं। दूसरी ओर भारी संख्या में अपनी बड़ी सहायक नदियों के साथ गंगा और ब्रह्मपुत्र लंबे पूर्वी मैदानी भाग से होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। दोनों नदियां लगभग समान ऊंचाई से हिमालय के आधार में मैदान को काट कर समुद्र तल तक पहुंचती है। सिंधु की तुलना में गंगा को ज्यादा दूरी तय करनी पड़ती है।

परिणामस्वप सिंधु नदी में पानी का बहाव अपेक्षाकृत ज्यादा तेज होता है। इसलिए इसमें भार, कीचड़, बालू, कंकड़ को ढोकर ले जाने की क्षमता काफी अधिक होती है। खासकर कीचड़ पूरी तरह से सागर में चला जाता है, और सिर्फ भारी तत्व, जैसे- मोटा बालू और कंकड़ ही बच जाते हैं। कम बारिश के कारण इसके बेसिन में केवल इसके ज्वार मुख क्षेत्र को छोड़ कर कहीं भी बाढ़ नहीं आती है। दूसरी तरफ गंगा को बहुत सी सहयोगी नदियां हैं। वे भारी मात्रा में पानी और भार अपने साथ लेकर आती हैं। धीमी गति से बहनेवाली नदी मैदानी इलाकों के अपने लंबे रास्ते में बालू और कंकड़ जैसे भारी पदार्थो को नहीं ले जा पाती। इस कारण इन सारे तत्वों का जमाव उसका बहाव क्षेत्र में होने लगता है। इससे इसका बहाव क्षेत्र उत्तरोत्तर छिछला होता गया है। अब विशाल सहयोगी नदियों द्वारा लाये गये पानी के अलावा इसके खुद के स्रोत से आने वाला अपार पानी इस नदी में संभलता नहीं है और बाढ़ का कारण बनती है, जो दोनों ओर बड़े भू-भाग पर कीचड़ फैला देती है। सिंधु नदी का मैदान जिसका ऊपरी सतह बालू और कंकड़ों से भरा पड़ा हैं, उसके नमी धारण करने की क्षमता बेहतर नहीं है, वहीं अगम्य चिकनी मिट्टी वाली ऊपरी सतह के कारण गंगा के मैदान में नमी धारण करने की भरपूर क्षमता है।

परिणामस्वप गंगा के मैदानों में वानस्पतिक आच्छादन काफी गहरा और सघन है। लेकिन सिंधु नदी के सूखे हुए बलुआही मैदानी इलाकों में वनस्पति कम हैं और यह उजाड़ है। सिंधु नदी के मैदान की छोटी नदियां सरस्वती, लूनी इत्यादि को अपरदित निम्न अरावली से बरसात का काफी कम पानी मिलता है। कुछ दूर जाने के बाद ये बालू में गायब हो जाता है। इनमें से कुछ नदियां पहले से ही मृत हो चुकी हैं और कुछ मरने के कगार पर हैं। इस तरह मरुस्थलीय घास का मैदान वाला सिंधु का मैदान धीरे-धीरे पूरी तरह शुष्क बलुआही रेगिस्तान में बदलता जा रहा है। हिमालय और इसकी शाखाओं द्वारा पारंपरिक व्यापारिक हवाओं को पूरी तरह से रोक दिये जाने कारण सवाना वनस्पति का अस्तित्व समाप्त हो गया। वहीं दूसरी ओर गंगा के मैदान के नमी भरे चिकनी मिट्टी वाले इलाके घने सदाबहार मिश्रित वनों से भरे रहने के कारण छायादार और ठंडा रहता है।

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के रिटायर्ड लेक्चरर और रॉयल जियोग्राफ़िकल सोसाइटी ऑफ़ लंदन के फ़ेलो हैं)

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading