प्रकृति प्रेम : एक माह बाद मनाई जाती है दीपावली

13 Dec 2015
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इस क्षेत्र में लोगों की प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण बाबत कितनी समृद्ध संस्कृति है। यहाँ दीपावली को मनाने का ढंग लोगों ने अपने रोज़मर्रा की जिन्दगी से जोड़े रखा है। यहाँ के लोग पहले अपनी खेती-किसानी के कामों से निपटकर दीपोत्सव की तैयारी करते हैं। उनकी तैयारी में सिर्फ पकवान होते हैं जो पकवान इन्हीं दिनों ही बनते हैं। किसानी का काम खत्म हो गया तो खेत भी इस दीपावली के दौरान खाली-खाली ही होते हैं। खेतों की मेड़ पर उग आई बेवजह के खर-पतवार और खेतों में फसल के बाद छूट गई नाकाम की चीजों को भी एक खेल के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यमुना घाटी का भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्वरूप समतुल्य है मगर कागजों में यमुनाघाटी को क्रमशः तीन जनपदों टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून से जाना जाता है। इस भूभाग में उत्तरकाशी के नौगाँव, पुरोला, मोरी, देहरादून के चकराता, कालसी व विकासनगर तथा टिहरी का थत्यूड़ विकास खण्ड आते हैं।

यहाँ निवास करने वाले लोगों की सांस्कृतिक व सामाजिक मान्यताएँ एकरूपता में ही है। यही नहीं हिमाचल प्रदेश के कूल्लू, शिमला, सिरमौर आदि क्षेत्रों में भी यमुनाघाटी के जैसे ही सांस्कृतिक समानताएँ हैं। अर्थात इन क्षेत्रों में दीपावली का पर्व एक माह बाद यानि दिसम्बर माह में उन्हीं तिथियों को मनाया जाता है।

ज्ञात हो कि यहाँ कोई पटाखे नहीं फोड़े जाते, कोई ऐसा आयोजन नहीं होता जिससे प्रकृति का क्षरण हो। यहाँ तो प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को खेल के रूप में आयोजित करना, पूजा करना, खिलौने के रूप में उपयोग में लाना, जंगल में चीड़ के पेड़ों से गिरी हुई सूखी टहनियों को एकत्रित करके मशाल बनाना, धान से निकलने वाले पुआल को एक विशाल रस्सी के रूप में तैयार करना वगैरह दृश्य इस क्षेत्र में एक माह बाद मनाई जाने वाली दिपावली में देखने को मिलते हैं।

यह दृश्य ऐसा संकेत करते हैं कि इस क्षेत्र में लोगों की प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण बाबत कितनी समृद्ध संस्कृति है। यहाँ दीपावली को मनाने का ढंग लोगों ने अपने रोज़मर्रा की जिन्दगी से जोड़े रखा है। यहाँ के लोग पहले अपनी खेती-किसानी के कामों से निपटकर दीपोत्सव की तैयारी करते हैं। उनकी तैयारी में सिर्फ पकवान होते हैं जो पकवान इन्हीं दिनों ही बनते हैं।

किसानी का काम खत्म हो गया तो खेत भी इस दीपावली के दौरान खाली-खाली ही होते हैं। खेतों की मेड़ पर उग आई बेवजह के खर-पतवार और खेतों में फसल के बाद छूट गई नाकाम की चीजों को भी एक खेल के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

होता ऐसा है कि लोग अपने-अपने खेतों में ऐसी फ़िजूल के खर-पतवार को इक्कठा करके दीपावली के दिन सभी गाँव के नौजवान-युवतियाँ जूलूस की शक्ल में गीत गाते हुए ढोल नगाड़ो की धुनों पर थिरकते हुए सामूहिक रूप से खेतों में फैल जाते हैं और जो खेतों में इक्कठा हुए खर-पतवार की ढांग होती है को आग देते हैं।

ऐसा भी ख्याल रखा जाता है कि इस आग से कहीं और नुकसान ना हो इसलिये नवयुवक-युवतियों के ये जूलूस तब तक गाते-बजाते, नाचते रहते हैं जब तक वह जलकर राख न हो जाये। फिर उसी रूप में वापस गाँव के सामूहिक आँगन में पहुँचते हैं यानि तब तक सबेरा होने लग जाता है। ऐसा जश्न लोग दीपावली के अवसर पर गाँव-गाँव में तीन दिन तक मनाते हैं।

कुल मिलाकर त्योहारों का जश्न भी लोगों की जिन्दगी से जुड़ा है। कह सकते हैं कि त्यौहारों को मनाने की जो परम्परा इस क्षेत्र में है वह समृद्ध कही जा सकती है।

देश भर में दीपावली के त्योहार को लोग ‘राम’ के संघर्ष और कहानी से जोड़कर मनाते हैं यानि की नवम्बर के माह में। परन्तु यमुना घाटी के सम्पूर्ण क्षेत्र में दीपावली के मनाने का रिवाज राज्य के अन्य भागों की अपेक्षा भिन्न है तथा अनूठा भी है।

यहाँ पर दीपावली को लोग एक माह बाद यानि दिसम्बर के माह में उन्हीं दिनों जो दिन नवम्बर के माह में दीपावली के लिये तय हुआ था के दौरान ही मनाते है। इस त्योहार को लोग अलग-अलग नामों से जानते हैं और मनाने का ढंग भी भिन्न है।

देहरादून के जौनसार-बावर (कालसी, विकासनगर, चकराता विकास खण्ड) में एक माह के बाद मनाई जाने वाली दीपावली को ढिपसा, दियांई कहते हैं तो वही नौगाँव, मोरी, पुरोला व थत्यूड़ विकासखण्डों में लोग इस दीपावली को बग्वाल नाम से जानते हैं। परन्तु नौगाँव विकासखण्ड की पट्टी बनाल में इस दीपावली को ‘देवलांग’ नाम से जानते हैं।

जबकि नौगाँव विकास खण्ड की ही मुगंरसन्ती पट्टी, गोडर-खाटल पट्टियों में दिसम्बर माह में मनाई जाने वाली दीपावली को सामान्य रूप में बग्वाल ही कहते हैं। मगर यहाँ दीपावली के तीसरे दिन जो कार्यक्रम देखने को मिलता है उसे वे लोग बॉर्त कहते हैं।

यह एक प्रकार से प्रतिस्पर्धात्मक होता है जिसका दृश्य रस्सा-कस्सी जैसी होती है। इन क्षेत्रों में नवम्बर मास के बजाय दिसम्बर मास में दीपावली मनाने के कुछ कारण भी हैं।

लोग बताते हैं कि नवम्बर माह में किसानों की फसल खेतों व आँगन में समेटने बाबत बिखरी पड़ी रहती है। जिस कारण लोग खेती किसानी के कार्यों में व्यस्त रहते हैं। इस वजह से भी दीपावली को मनाने का समय लोग अपनी सुविधा अनुसार दिसम्बर के माह में तय करते हैं। जो कालान्तर में एक प्रकार से परम्परा बन गई।

यही नहीं एक माह बाद इन क्षेत्रों में आयोजित होने वाली दीपावली के पर्व पर और कई कहानियाँ भी जुड़ी हैं। एक समय टिहरी रियासत में वीर माधोसिंह भण्डारी को नवम्बर माह की दीपावली के दिन राज दरबार जाना पड़ा और वापस घर आने में वीर माधोसिंह भण्डारी को देर हो गई।

इस कारण रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को दीपावली के अवसर पर अनुपस्थित पाकर दीपावली को अगले माह में धूमधाम से मनाने का निर्णय लिया। जनश्रुति है कि वीर माधोसिंह भण्डारी भी एक माह बाद ही दिसम्बर माह की अमावस्य में ही घर में वापस लौटा। इसी दिन इस क्षेत्र में दीपावली के त्योहार का भव्य आयोजन किया गया। तब से अब तक यह तारतम्य लोगों की परम्परा बन गई।

दीपावली के अवसर पर ‘देवलांग’


लोकश्रुति के अनुसार शिवपुराण व लिंगपुराण में श्रेष्ठता को लेकर आपस में प्रतिस्पर्धा होने लगी और ये दोनों एक दूसरे के वध करने पर आमादा हो गए। इस विद्रुप वातावरण को देखकर सभी सृष्टि के देवी-देवता व्याकुल हो उठे और शिवजी से शान्त माहौल बाबत प्रार्थना करने लगे।

शिवजी देवताओं की इच्छानुसार विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग के रूप में दोनों के मध्य खड़े हो गए। इसी बीच आकाशवाणी हुई कि तुममें से जो इसके आदि और अन्त का पता कर सकेगा वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्मा जी ऊपर की ओर उड़े एवं विष्णु जी नीचे की ओर। वे कई वर्षों तक पता करते रहे परन्तु जहाँ से खोज में निकले थे अन्त में वहीं पहुँचे।

अन्ततः दोनों देवताओं ने स्वीकार किया कि उनसे ऊपर भी कोई और श्रेष्ठ है। जिस कारण वे दोनों उस ज्योतिर्मय स्तम्भ को श्रेष्ठ मानने लगे।

इस लोकोक्ती से यमुनाघाटी के नौगाँव विकासखण्ड के अर्न्तगत बनाल पट्टी में लोग दिसम्बर माह की अमावस्य को आयोजित होने वाली दीपावली के पर्व को देवलांग नाम से मनाते हैं। जिसे वे साक्षात ज्योर्तिलिंग भी मानते हैं। यही वजह है कि लोग सांकेतिक ज्योर्तिलिंग अर्थात देवलांग की पूजा अर्चना भी करते हैं। इस क्षेत्र में देवलांग को बनाने का अनूठा रिवाज है।

एक माह पूर्व लोग अपने आस-पास के जंगल में एक देवदार का सीधा, लम्बा-सुडौलनुमा पेड़ की खोज करते हैं। दिसम्बर माह की दीपावली के दिन उस पेड़ को स्थानीय अनुसूचित जाति के लोग जड़ सहित ऊखाड़कर ले आते हैं। इस कार्य को वे भूखे पेट निभाते है। पेड़ गाँव में पहुँचने के पश्चात लोग उनका तिलक अभिषेक करके स्वागत करते हैं।

बनाल पट्टी के गैर गाँव में इस पेड़ को गाड़ने व खड़ा करने के दृश्य को देखना ही अतिआकर्षक का केन्द्र है। बनाल पट्टी के दो दर्जन से अधिक गाँव के लोग लोक परम्परानुसार दो भागों में बँट जाते हैं जिन्हें साँठी व पाँसाई नाम से जाना जाता है। ये लोग इतने लम्बे पेड़ को हाथ में लिये हुए डण्डो से खड़ा करते हैं और जहाँ इस पेड़ को गाड़ने के लिये गढ्डा बनाया होता है बिना हाथ लगाये गाड़ देते है।

इसके पश्चात अलग-अलग गाँवों से पहुँचे लोग जूलूस की शक्ल में ढोल, गाजे-बाजो के साथ गीत गाते हुए, हाथ में जलती हुई मशाल लिये हुए प्रांगण में पहुँचते हैं जहाँ पर उक्त पेड़ गाड़ा हुआ होता है। इस पेड़ को ही देवलांग कहते हैं। साँठी व पाँसाई नामों से विभक्त हुए लोगों में देवलांग की चोटी को छूने के लिये प्रतिस्पर्धा होती है।

चोटी को छूने के लिये जो करतब देखने को मिलते हैं वह बहुत ही मनोरम व रोमांचक दृश्य है। चोटी स्पर्श करने के पश्चात हाथ में लिये मशाल से देवलांग को आग दी जाती है। इसके बाद सभी एकत्रित लोग हारूल, तांदी व रासौं नृत्य गाकर, नृत्यकर एवं चूड़ा, गुड़, तिल, बाँटकर रात भर जश्न मनाते हैं।

इस आयोजन में यमुनाघाटी के लगभग 100 से भी अधिक गाँव के ग्रामीण सम्मिलित होते हैं। अब तो इस आयोजन को देखने बाबत दूर-दराज के लोग सम्मलित हो रहे हैं।

साँठी और पाँसाई क्या है


वरिष्ठ साहित्कार दिवंगत राजेन्द्र सिंह राणा ‘नयन’ ने अपनी किताब ‘यमुनाघाटी की उपत्याकाएँ’ में साँठी और पाँसाई का जिक्र महाभारतकाल से की है। वे लिखते हैं कि यमुनाघाटी के लोगों ने तत्काल पाण्डवों और कौरवों को महाभारत युद्ध में सहयोग किया होगा। इसलिये साँठी का मतलब साठ यानि पाण्डवों का सहयोगी दल और पाँसाई का मतलब पाँच सौ यानि कौरवों का सहयोगी दल।

साँठी एवं पाँसाई थोक (ग्रुप) में बँटने वाले गाँव क्रमशः ईड़क, सीड़क, थानकी, भानकी, छत्री, बिसाटगाँव, घण्डाला, गौल, अरूण, व्याँली, गैर, कोटी, भटाड़ी, गडोली, सीना, कुण्डिला, भद्राली, बखरेटी, पुजेली, कुणी, कुण्ड, कोटला, नत्थेड़ गाँव, सिशाला, काण्डा, बिगराडी, करनाली, जेस्टवाड़ी, पौड़ी, गुलाड़ी, झुमराड़ा, मठ, धौंसली, घुण्ड आदि।

ढीपसा और दियाई क्या है


जौनसार-बावर जनजाति क्षेत्र में ढीपसा का सम्बध रात में जो अलाव के रूप में जलाने का तरीका है उसे ढीपसा कहते हैं। अन्तर इतना है कि लोग दीपावली की रात्रि को जो हाथ मे लिये हुए मशाल होते है उन्हें अन्त में एक साथ इक्कठा करके जलाते हैं उसे ढीपसा कहते हैं। जब यह ढीपसा जलता है तो उस समय स्थानीय धान के चावल से बनी चूड़ा को आपस में लोग बाँटते हैं। तब तक रात खुल चुकि होती है। इसे दियाई या ढीपसा ही कहते हैं।

बग्वाल एवं बॉर्त एक अद्भुत दृश्य


बॉर्त का दृश्य सिर्फ व सिर्फ उत्तरकाशी के नौगाँव विकास खण्ड की मुंगरसन्ती, गोडर, खाटल पट्टियों में देखने को मिलता है। इन पट्टियों में लगभग 250 गाँव आते हैं। बॉर्त को लोग बबूल घास या धान के पुआल से एक मोटी व लम्बी रस्सी बनाते हैं। इस रस्सी को गाँव के अनुसूचित जाति के ही लोग बनाते हैं।

दीपावली के तीसरे दिन सम्पूर्ण गाँव के छोटे एवं बड़े पुरुष सायं को एकत्रित होकर इस रस्सी पर छोटे एक तरफ और बड़े एक तरफ प्रतिस्पर्धा के लिये तैयार होते हैं। रस्सा-कस्सी खेल की तरह इसमें जोर-अजमाइश तब तक करते हैं जब तक यह रस्सी टूट ना जाये। यह क्रम लगभग तीन से चार घंटे तक चलता है।

रस्सी टूटने के पश्चात सम्पूर्ण ग्रामीण और गाँव में आये हुए मेहमान एक दूसरे को चूड़ा बाँटते हैं। इस तरह रात भर तांदी गीत हारूल, रासौं आदि नृत्य चलता है। इस बॉर्त नाम के खेल को गाँव-गाँव में लोग कौरवों व पाण्डवों की कथाओं से जोड़ते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि बॉर्त तोड़ने का जो दृश्य होता है वह ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे समुन्द्र मन्थन हो रहा हो।

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