प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

7 May 2018
0 mins read
Book cover
Book cover

गोकुल तो गोपालन करने वाले नर-नारियों का ग्राम था। सभी घरों के बालक-गण गो-वत्सों को लेकर वन में जाया करते थे। थोड़ा बड़ा हुआ कृष्ण बलरामजी के साथ वन में गायों को चराने जाने लगा। इन दो भाइयों के चरण-स्पर्श से ‘वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः।’ वृन्दावन अत्यन्त पवित्र हो गया। विश्व के साथ एकरूप हुए इन बालकों का स्पर्श धरती को भी पावन करता रहा। दूसरा भी एक महत्त्व का कारण था-श्रीकृष्ण के अधरों पर विराजमान उसकी मुरली। यह बाँसुरी भी सामान्य नहीं थी। इसका स्वर विश्वात्मा का स्वर था। बन्धुत्व की और समन्वय की इस संस्कृति ने अपनी साधना चलाई सृष्टि के चरणों में नतमस्तक होकर। सृष्टि को भोगवस्तु नहीं, गुरु मानकर, उसे प्रणाम करके भारतीय मनुष्य ने अपना आध्यात्मिक विकास करने का सोचा। वन में विचरण करते समय जीव-जन्तु, विविध प्राणी, पशु-पक्षी इन सबका परस्परावलम्बन और प्रेम सम्बन्ध देखा। विशेष रूप से वृक्षों की परोपकारी जीवन शैली ऋषि-मुनियों को आत्मौपम्य के जीवन-दर्शन तक ले गई। धरती और आकाश के त्रिविध आयामों में वृक्षों की स्थिति और गति रहती है।

सभी दिशाओं को स्पर्श करते हुए, वृक्ष धरातल के समूचे जीवन से सख्य जोड़ते हैं। सृष्टि यानी सहायक देवताओं का नित्य सेवा तत्पर समूह। इनकी प्रसन्नता यही धरती के जीवन का मुख्य आधार। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, सूर्य-चन्द्र, वर्षा इनके देवताओं के वृक्ष भी निश्चित किये जीवन साधकों ने। ये वृक्ष शुद्ध प्राणवायु, निर्मल जल, अन्न, पशुओं के लिये चारा, मानव के लिये वस्त्र-इन सभी जीवनावश्यक चीजों की चिन्ता वहन करने वाले संरक्षक प्रहरी ही बने। इन्होंने रोग-निवारण के लिये औषधियों का रूप धारण किया।

विश्राम की, छाया की व्यवस्था रखी। इनके बिना धरातल पर जीवन शुष्क, नीरस और कुरूप, विद्रूप हो जाता इसका भान महात्माओं को नित्य रहता आया। साहित्य, स्थापत्य, संगीत, नृत्य, शिल्प इत्यादि कलाओं का विकास एवं संस्कृति-सभ्यता के अंग-उपांग वनों के आश्रय से स्फुरित व वृद्धिगत हो गए। “आई, हैव नेवर सीन, ए पोएम ऐज ब्यूटीफुल ऐज ए ट्री” – “वृक्ष के समान सुन्दर अन्य कोई भी कविता मैंने नहीं देखी है।” ऐसा किसी आधुनिक अंग्रेज ने कहा है। यही दर्शन प्राचीन काल से भारत-वर्ष का रहा है। इसी के कारण यहाँ की संस्कृति वन-संस्कृति के रूप में ख्याति पा गई।

वैदिक ऋषियों से लेकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक के आध्यात्मिक और काव्यात्मक साहित्य के क्षेत्र में वनों का ऋण प्रणामपूर्वक मान्य किया गया। कालिदास-भवभूति जैसों ने अपने नायक-नायिकाओं का सुख-दुःख वनों की सहायता से चित्रित किया।

‘रघुवंश’ में कालिदास ने वनवासी राम-सीता-लक्ष्मण की मनःस्थिति का चित्रण किस तरह किया है!

एकैकं पारपं गुल्मं लतां वा पुष्प शालिनीम्।
अदृष्ट रूपां पश्यन्तीं रामं प्रपच्छ साSबला।।
रमणीयान् बहुविधान् पादपान् कुसुमोत्करान्।
सीता वचन संरब्ध आनयामास लक्ष्मणः।।
विचित्र बालुकाजलां हंस सारस नादिताम्।
रेमे जनकराजस्य सुता प्रेक्ष्या तटा नदीम।।


राज महल के बगीचे का ही नित्य दर्शन पाने वाली जनक-सुता के लिये वनवास का यह प्रथम परिचय था। एकेक वृक्ष का, पुष्पों से मण्डित गुल्मलताओं का कभी न देखा हुआ रूप उसे यहाँ आनन्द देता था। श्रीराम को वह इनके विषय में उत्कंठापूर्वक पूछती थी, परिचय पाती रही। रंग-बिरंगी सुगन्धित सुमनों से भरपूर उन वृक्षों के विषय में सीता पूछा करती हैं यह देखकर लक्ष्मण वे पुष्प लेकर उसे देता जाता था और सीता ने जब अद्भुत रीति से, जल से सुशोभित नदी देखी तब उसे कितना आनन्द हुआ था। उस नदी को हंस और सारस पक्षियों के कलरव से निनादित होती हुई उसने पाया-यह दर्शन उसके लिये कितना नया था।

रामचन्द्र को जनक नन्दिनी से वनों का परिचय निश्चित ही अधिक था। लेकिन चित्रकूट जैसे पर्वत के निकट का प्रवास और निवास उनके लिये भी नया ही था। यहाँ के अनुभव के विषय में उन्हें क्या लगता था।? अयोध्या के राजपुत्र के ऐश्वर्य के बाद यहाँ के कष्टदायी बनवास के अनुभव उन्हें चुभने वाले तो नहीं लगते थे? कालिदास उनकी मनःस्थिति का वर्णन करते हैं। माल्यवती नदी, अनेक पवित्रतीर्थ स्थान और रमणीय चित्रकूट का हिरन और पक्षियों से गूँजने वाला स्वरूप निकट से देखकर राम का मन अत्यन्त आनन्दित हुआ। अयोध्या नगरी से दूर प्रवास करते हुए आने से जो दुःख की अनुभूति उन्हें हुई थी वह कहाँ खो गई पता नहीं चला! सीता से राम कहते हैं- “कल्याणी! राज्य भ्रष्ट होने का, सभी सुहृदों के वियोग में जीने का दुःख इस मनोरम चित्रकूट गिरि को देखने पर बिल्कुल महसूस नहीं होता है!”

प्रकृति का प्रेम ही राम-सीता के वनवासी जीवन का स्थायी भाव था।

और चित्रकूट पर्वत पर बिताए जीवन का सबसे बड़ा आनन्ददायी आकर्षण था अनेक तापसों के आश्रम। क्या था इन आश्रमों का स्वरूप? ‘शरण्यं सर्व भूतानाम’। सभी भूतमात्रों के ये आश्रम आश्रय स्थान थे। यहाँ किसी भी प्राणी का किसी दूसरे प्राणी के साथ बैर नहीं था। ऐसे शान्त, निश्चिन्त, एकान्त स्थान में रहने वाले तपस्यारत जीवन-साधकों के लिये प्राचीन भारत में एक ही धुन रहती थी-जीवन की एकात्मता की हर क्षण-हर-पल अनुभूति। तब आनन्द के सिवा अन्य कुछ कैसे होगा यहाँ?

तुकाराम की परिभाषा में कहना हो तो- नर नारी बाले, अवधानारायण। ऐसे माझेमन! करी देवा ।।-(नर-नारी और बालकगण-सभी नारायण स्वरूप हैं- ऐसी अनुभूति मेरे मन को हो, यही वरदान, हे भगवान्, मुझे दे दो।)

और गुजरात के नरसी मेहता को कौन से दर्शन लुभाते थे? अखिल ब्रह्माण्डमां एक तू श्रीहरि।। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में तू एक ही व्याप्त हो न मेरे श्रीहरि?

जीवन की एकता ही प्राचीन काल में, मध्य काल में और आधुनिक समय में भारतीय साधक, सन्त, सन्यासियों की धुन का विषय था और सृष्टि में सबसे अधिक वृक्ष ही इस धुन के साथ जुड़े हुए थे।

भवभूती के ‘उत्तर रामचरित’ में भी राम और सीता के प्रेम ने अपने हृदय में उछलते आनन्द का आवेग चारों ओर के जल-स्थल-आकाश में फैला दिया है। राम जब गोदावरी नदी के निकट तट पर फिर एक बार पहुँचे तब उनकी वह पुरानी स्मृति जागृत हो गई- ‘यत्र द्रुमा अपि मृगाअपि बान्धवा मे!’ तब वृक्ष और हिरन भी मेरे निकट के व्यक्ति (मेरे परिवार के सदस्य ही बन गए थे।)

सीता का पुनः विच्छेद होने पर पुरानी निवास-स्थली राम को दुःख दिये बिना नहीं रह सकी थी। मैथिली ने अपने कर-कमलों से स्वयं लाए हुए नदी के जल से, हरे, कोमल तृणांकुरों से वृक्ष, पक्षी और हिरनों का पालन किया था। इन सबको यहाँ देखकर पाषाण पिघलकर उसका जलवत रस हो वैसी मेरे हृदय की अवस्था हो गई है। ऐसा उद्गार वे प्रकट करते हैं।

सृष्टि के लिये यह निकटता की, प्रेम की भावना रामराज्य के अनेक उन्नत आयामों में से एक महत्त्वपूर्ण आयाम को प्रकाशित करती है। सभी भूतमात्रों के हित की चिन्ता रामराज्य में की जाती थी। निसर्ग प्रकृति से एकरूप होने की श्रीराम की वृत्ति अन्तिम प्रयाण के समय भी व्यक्त हुई है। सागर के क्षितिज स्पर्शी, आकाश-स्पर्शी स्वरूप में उनका देह लय पा गया। और सीता? वह तो भूमि-कन्या ही थी। अयोनी सम्भवा थी वह। उसके पावित्र्य की साक्ष एकबार अग्नि ने दी और आखिर में भूमाता ने दुभंग होकर अपनी कोख में इस दुर्दैवी कन्या को स्थान दिया तब भी उसकी पवित्रता की ही साक्ष्य दी थी। प्रकृति के साथ मानव का सम्बन्ध मात्र निकटता का नहीं, पूर्ण एकरूपता का है, वह यहाँ के साहित्य और संस्कृति ने अनेक बार दिखा दिया है।

श्रीकृष्ण के जीवन में इस महान विभूति की विश्व के साथ की एकात्मता अद्भुत रूप में अनेक बार प्रकट हुई है। अर्जुन के प्रेम के कारण गीता के एकादश अध्याय में श्रीकृष्ण का विश्वरूप प्रकट हुआ। दशम अध्याय में विभूतियों के रूप में यह एकात्मता भिन्न तरीके से व्यक्त कराई गई है। ‘स्थावराणां हिमालयः’ ‘स्रोतसां जाह्नवी’, वृक्षों में सबसे अधिक प्राणवायु देकर प्रदूषण और प्राणघातक धुआँ पचाने वाला ‘अश्वत्थ’-पीपल का वृक्ष-ये सभी भगवत सत्ता के खास आविष्कार के रूपों में प्रसिद्ध हो गए। और आखिर में-

यच्यापि सर्व भूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्तिविना यत्स्यान्मयाभूतं सचराचरम्।।


अखिल भूतमात्रों के जो-जो बीज-उत्पत्ति के मूल-हैं वे मैं, ही हूँ, मेरे बिना चराचर सृष्टि में कुछ भी होना असम्भव है। यह कहकर कृष्ण अपनी एकात्मता की सिद्धि स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हैं। कहीं के भी साहित्य में इतनी स्पष्टता मुश्किल से प्रकट हुई होगी।

आधुनिक निकट के काल में प्रख्यात तत्त्वदर्शी जे. कृष्णमूर्ति जी ने अपनी निस्सन्दिग्ध अनुभूति करीब ऐसी ही भाषा में व्यक्त की है। ‘पहाड़ की चढ़ाई पर, पानी के कलश लेकर चलने वाली वह स्त्री मैं ही था।’ परन्तु ‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नं एकांशेन स्थितो जगत्।’ (इस सम्पूर्ण जगत को मेरे एक अंश मात्र से धारण करके मैं स्थित हूँ।) इस सीमा तक कहने की हिम्मत तो कहीं भी ढूँढकर मिल सकना मुश्किल है।

निश्छल प्रेम का अनुरागी बालकृष्ण अपना लालन-पालन करने वाली यशोदा मैया के लिये विश्व रूप में हुए बिना रह नहीं सका। और वह भी कैसे? मिट्टी खाने की बच्चों की आदत के बहाने में से! बलराम के साथ अनेक बच्चों ने मिलकर यशोदा माँ के पास जब ‘तुम्हारे लल्ला ने मिट्टी खाई है’, ऐसी शिकायत दर्ज की तब, ‘न माँ भक्षित वानम्ब सर्वे मिथ्याभिसंशिनः।’ ये सभी झूठ-मूठ का मुझ पर आरोप कर रहे हैं; ‘इनका कहना सही है ऐसा तुम्हें लगता हो तो मेरा यह खुला मुख देख लो न!’ ‘यदि सत्य गिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम्।’ यह भी बताकर कृष्ण मुख खोलकर दिखाने लगा! उसके मुख में मिट्टी के अंश अवश्य थे, लेकिन यशोदा ने क्या देखा उनके स्थान पर?

सां तत्र ददृशे विश्वं जगत् स्थानुश्च खं रिशः।
साद्रि द्वीपाब्धि भूगोलं सवाय्वाग्नींदु तारकम्।।


बालकृष्ण के मुख में चलित एवं स्थिर-उभय रूपों में अखिल विश्व-आकाश, अष्टदिशाएँ, पर्वत, द्वीप, महासागर, सम्पूर्ण भूगोल, वायु, अग्नि, चन्द्र, तारक-इन सबके सहित उसने देखा।

ऐसा यह अद्भुत बालक गोकुल-वृन्दावन के निसर्गरम्य परिसर में जल-स्थल, पशु-पक्षी, ग्वाल-बाल, माता-पिता, गोप-गोपी, पर्वत-वृक्ष इन सबके मध्य प्रेमलीला करता हुआ बड़ा हो रहा था। यह स्वाभाविक ही है। महापुराण भागवत में इस समय का सुन्दर, आनन्दपूर्ण चित्र व्यासदेव ने शब्दांकित किया है। यह वर्णन शतकानुशतकों से भक्तों के लिये, साधु-सन्त-सन्यासी-योगी-इन सभी के लिये दीप-स्तम्भ के समान ही बन चुका है। साधना जीवन में इसका आनन्द लूटते हुए कितने ही साधकों ने अपना विकास साधा है। इसमें वर्णन की हुई छोटी-छोटी कथाओं का अध्यात्म पर अर्थ भी कुछ साधकों ने प्रकाशित किया है। पर सूत्र सभी में एक ही गूँथा है : यह सम्पूर्ण विश्व श्रीकृष्ण की क्रीड़ा-स्थली तो है ही, लेकिन ये सभी रूप उसी के अन्तरात्मा के अनन्त आविष्कार हैं।

गोकुल तो गोपालन करने वाले नर-नारियों का ग्राम था। सभी घरों के बालक-गण गो-वत्सों को लेकर वन में जाया करते थे। थोड़ा बड़ा हुआ कृष्ण बलरामजी के साथ वन में गायों को चराने जाने लगा। इन दो भाइयों के चरण-स्पर्श से ‘वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः।’ वृन्दावन अत्यन्त पवित्र हो गया। विश्व के साथ एकरूप हुए इन बालकों का स्पर्श धरती को भी पावन करता रहा। दूसरा भी एक महत्त्व का कारण था-श्रीकृष्ण के अधरों पर विराजमान उसकी मुरली। यह बाँसुरी भी सामान्य नहीं थी। इसका स्वर विश्वात्मा का स्वर था। गतिशील विश्व नादात्मक होता है। वह वैश्विक नाद समूचे अस्तित्व के सामंजस्य का, एकात्मता का निदर्शक होता है। जीवन के स्वास्थ्य का भी वह प्रकट लक्ष्य होता है। ग्रीक तत्त्वज्ञ अरस्तू इसी को ‘दि म्यूजिक ऑफ दि कॉस्मोस’ कहता था। श्रीकृष्ण ने गाय-वत्सों को मोड़ लेने के लिये, ठीक राह पर चलाने के लिये, साथियों के रंजन के लिये और आनन्द की अभिव्यक्ति के लिये अपनी बाँसुरी पर वही नाद, वही स्वर आलापित किया। विश्व का वह प्राण तत्त्व था। सभी को आकर्षित करने वाला आनन्द बिन्दु था। सारा गोकुल-वृन्दावन का परिसर उस नाद से विभोर हो गया होगा, एकदम पगला गया होगा तो आश्चर्य नहीं है।

गोकुल-वृन्दावन के सभी ऋतुओं के वर्णन व्यासजी ने रसिकता से किये हैं। प्रकृति के विविध रूप अत्यन्त प्रेम से कृष्ण के खातिर सज-धजकर प्रकट होते थे। वन का ऐश्वर्य इन बालकों की बाट जोहता रहता था, नित्य ‘कुसुमित’ होकर। परन्तु शरत्काल में तो प्रकृति मानो अपने मूल स्वभाव में आती थी। इस समय का, गोप-गायों के साथ श्रीकृष्ण-बलराम की जोड़ी वन-प्रवेश करते वक्त का, मुरलीवादन का वर्णन करते हुए व्यासजी ने भाषाभिव्यक्ति का कमाल दिखाया है। गोपियों की वाणी प्रेमावेग के कारण कुछ भी व्यक्त कर नहीं पाती थी। व्यास देव ने ही उनकी ओर से ‘वेणुगीत’ में कुछ हद तक शब्द प्रकट किए हैं-

बहीपीडं नटवर वपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद् वासः कनक कपिशं वैजयंतींय मालम्।
रन्ध्रान् वेणोःअधरसुधया परयन्गोप वृन्दैः।
वृन्दारण्यं स्वपरं रमणं प्राविर्शद् गीत कीर्तिः।


मस्तक पर मयुरपुच्छ का मुकुट, गले में वैजयन्ती माला, कानों में सुन्दर कर्णिकार पुष्प, कमर पर कसा हुआ पीताम्बर ऐसा श्रीकृष्ण अधर पर विराजती मुरली में अमृत स्वर भरते हुये रमणीय वृन्दावन में प्रवेश करता है। मानो रंगमंच पर सजकर कोई नट-श्रेष्ठ हो पटक्षेप करता हुआ आया है। उसके पीछे चलने वाले गोप बालक उसकी अमर कीर्ति गा रहे हैं।

और यह वेणुरव है कैसा? ‘सर्वभूत मनोहरम्’ भूतमात्रों के चंचल मन का हरण करने वाला है। सभी के मन स्थिर शान्त, निश्चल हो गये हैं। अब गोपियों की वाणी प्रकट हो गई है। वेणुनाद के कारण सम्पूर्ण सृष्टि की अवस्था कैसी है गई है, इसके परस्पर का वर्णन कर रही है। मयूर पंख पसारकर नृत्य करने लगे हैं, तो गोवर्धन पर पक्षीगण स्तब्ध, शान्त हो चुके हैं।

अस्पदनं गतिमतां
पुलकस्तरूणाम् ।


और वृक्ष स्थिर होकर भी उनके बदन पर पुलक-रोमांच-खड़े हो गये हैं। इन रोमांचों का उठना यही बता देता है कि आसमान में उड़ने की इच्छा वृक्षों मेें स्फुरित हो गई है-वेणुनाद आनन्द की तीव्रता का आह्वान ही करता है सबके लिये। सबसे धन्यता उस परम कृष्ण भक्त गोवर्धन के लिये लगती है। तृण -जल-कन्द-मूल-फल-विश्रामस्थल-सभी की तैयारी करके वह गोपाल और गायों की राह देख रहा है। उसका सारा ऐश्वर्य इन बच्चों के लिये ही तो है।

आनन्दोद्रेक की मूर्ति बनी हुई मुरली अपने स्वरों के माध्यम से, एकात्म सृष्टि की अभिव्यक्ति का नृत्य ही मानो प्रकट कर रही है। इस नृत्य में सभी का आनन्दोत्सव है, विजयोत्सव है। इसमें पराभूत कोई भी नहीं होता। यहाँ तो है प्रेम का साम्राज्य, जो आक्रमण और आघात के बिना ही जीत लेता है सबको। समग्र सन्तुलन का विश्व का ऐश्वर्य इसमें से व्यक्त हो जाता है सहजता से !

इस मुरली-ध्वनि का स्वागत गोवर्धन पर्वत ने अपना सर्वस्व समर्पित करके किया है यह श्रीकृष्ण कैसे भूलेंगे ? भक्तों का ऋण चुकाना सम्भव नहीं, यह कृष्ण खूब जानतें हैं। लेकिन उनका सत्कार तो कर ही सकते हैं न ? इसलिये इन्द्र-यज्ञ की तैयारी करने वाले पिता और पितृतुल्य अन्य प्रौढ़ो से वे कहते हैंः अपना जीवनाधार तो गोवर्धनगिरी हैं । ‘नित्यं वनौकस्तात वनशैल निवासिनः।।’ हम तो हैं वनवासी, पर्वत के निवासी-हमेें इन्द्र-यज्ञ क्यों करना चाहिये? हम तो गाएँगे, वृक्ष-गोवर्धनगिरि इनका उत्सव मनाएँगे। इनकी प्रसन्नता के लिये यज्ञ करेंगे। सभी ने कृष्ण-वचन सुनकर एकमत से गोवर्धन-यज्ञ की तैयारी की । उत्सव मनाया गया। यज्ञ सम्पन्न हो गया। लेकिन इन्द्र को यह अपमान सहना और चुप रहना कैसे सम्भव था? एक सप्ताहभर वर्षा-तूफान ने गोकुल-वृन्दावन वासियों को त्रस्त कर दिया। इन्द्र का गर्व हरण करने के लिये ही तो यह युक्ति चलाई थी कृष्ण ने। सात दिनों के लिये अँगुली पर उठे गोवर्धन ने ही सबके लिये छाते का काम किया । इन्द्र को पराभव स्वीकार करना पड़ा। कृष्ण की सर्वात्मकता का परिचय उसे हुआ, वह नतमस्तक होकर अपना कर्तव्य नम्रता से निभाने लगा। ऐसी कितनी ही आनन्द लीलायें कृष्णावतार में घटित हुईं । विश्व में अहंकार से नहीं, नम्रता से, प्रेम से, सुयोग्य शक्तिओं के पूजन से सन्तुलन संभालना होता है यही कृष्ण लीला का रहस्य है ।

परन्तु कालीय नाग का प्रदूषण नम्रता से और प्रेम से दूर होने वाला नहीं था। यमुना के जल में विष-वमन करने वाले कालिया के कारण सारा गोकुल-वृन्दावन का जीवन अस्वस्थ हो गया था। पशु-पक्षी-ग्वाल-बाल त्रस्त हुये थे। आखिर कृष्ण ने कालिया नाग पर आक्रमण किया। उसके मस्तक पर काल-नृत्य ही किया इस छोटे गोपाल ने। विष पचाने की शक्ति केवल इस प्रेममूर्ति बालकृष्ण में ही थी। अन्याय-निवारण की शक्ति भी उसी में थी। कालिया का रमणीक द्वीप पर जाना पड़ा। गोकुल-वृन्दावन से उसका आतंक हटाकर दूर भगा दिया गया। अपने विषैले स्वभाव का परित्याग तो उसके लिये सम्भव नहीं था लेकिन अपनी गलती उसे कबूल करनी पड़ी और प्रायश्चित के रूप मेें पलायन स्वीकार करना पड़ा।

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading