परम ऊर्जाः चरम विनाश (भाग - 2)

इस प्रकार दूसरे चरण में परमाणु ऊर्जा आयोग की योजना प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन वाले रिएक्टरों से निकलने वाले काम आ चुके ईंधन का पुनरुपचार करके, उससे प्राप्त प्लूटोनियम के ईंधन से चलने वाले फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों को स्थापित करने की है। दुनिया में कुछ ही देशों में फास्ट ब्रीडर रिएक्टर हैं। कई विशेषज्ञों का मत है कि यह तरीका न तो सुरक्षित है, न आर्थिक दृष्टि से किफायती ही।

लेकिन हमारा परमाणु ऊर्जा आयोग इतना महत्वाकांक्षी है कि वह इस दूसरे चरण को ही सोपान बनाकर तीसरे चरण में प्रवेश करने की योजना बना रहा है। इसमें बड़े पैमाने पर थोरियम ईंधन से चलने वाले फास्टर ब्रीडरों की स्थापना की जाएगी। दूसरे चरण के प्लूटोनियम ईंधन वाले रिएक्टर न केवल बिजली पैदा करेंगे बल्कि थोरियम को यूरेनियम-233 में बदल देंगे। थोरियम सीधे ईंधन का काम नहीं दे सकता लेकिन यू-233 में बदल कर वह रिएक्टर का ईंधन बनेगा। अभी तक किसी भी देश ने यू-233 ईंधन वाले फास्टर ब्रीडर की स्थापना नहीं की है। इसलिए यह ऐसा काम है जिसे अपने ही दम करना होगा। लेकिन केरल और बिहार में थोरियम का विशाल भंडार है। परमाणु ऊर्जा आयोग को विश्वास है कि एक बार इस चरण तक हम पहुंच जाएं तो सैद्धांतिक रूप से देश परमाणु बिजली के मामले में मालामाल हो जाएगा।

केनडा ने भारत को भारी पानी देने का वादा किया था, पर 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट किए जाने के बाद वह अपने वादे से पीछे हट गया। उसने परमाणु संबंधी सहायता देना बंद कर दिया। इस कारण कोटा का दूसरा रिएक्टर बनकर तैयार होने के बाद भी महीनों तक बंद पड़ा रहा। आखिर भारी पानी रूस से आया। पर उसने केनडा से भी ज्यादा सुरक्षात्मक उपायों पर जोर दिया। मद्रास की पहली इकाई का काम शुरू होने में भी कई महीनों की देर हुई क्योंकि भारी पानी कम था इनमें से हरेक रिएक्टर में काम शुरू करने के लिए ही लगभग 250 टन भारी पानी लगता है।

परमाणु बिजली घरों का काम बड़ा ढीला-ढाला है- खासकर राजस्थान का। 1974-75 से 1979-80 तक के छह साल के भीतर संयंत्र का काम उसकी क्षमता का 40 प्रतिशत से भी कम रहा। मार्च 1982 में, ढक्कन के सिरे में दरार दिखाई देने पर संयंत्र को बंद ही करना पड़ा। अखबारों ने लिखा कि संयंत्र हमेशा के लिए बंद होने वाला है। लेकिन अधिकारियों ने इसका खंडन किया। उसकी समस्याओं की जांच करने के लिए नियुक्त एन.बी.प्रसाद समिति की रिपोर्ट प्रकाशित ही नहीं की गई।

परमाणु ऊर्जा आयोग का कहना है कि यह दौर सीखने का था। इसलिए परियोजनाओं में देरी और भूल-चूक अनिवार्य थी। पर अब यह दौर खत्म हो गया है। इसके सबूत के तौर पर बताया जाता है कि मद्रास 1 में व्यावसायिक स्तर पर काम शुरू होने के छह महीने के भीतर 65 प्रतिशत क्षमता से काम होने लगा है और तुतिकोरिन संयंत्र में भारी पानी का उत्पादन होने लगा है। भावी परमाणु बिजली घरों के डिजाइन में कुछ परिवर्तनों की गुंजाइश अभी से देख ली गई है, इसलिए नए बिजली घर अब तेजी से खड़े किए जा सकेंगे।

लेकिन इस पर सबको विश्वास नहीं हो रहा है। भूतपूर्व ऊर्जा-मंत्री और देश की दीर्घकालीन ऊर्जानीति की रूपरेखा बनाने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा गठित ऊर्जा सलाहकार समिति के अध्यक्ष के.सी. पंत ने परमाणु ऊर्जा आयोग और उसके लक्ष्यांकों के बारे में भी भारी शंकाएं व्यक्त की थीं। श्री पंत खासकर भारी पानी के उत्पादन की खामियों को लेकर चिंतित थे और उनका मानना है कि आयोग भारी पानी प्रौद्योगिकी में अपनी क्षमता साबित नहीं कर सकेगा।

लेकिन परमाणु ऊर्जा आयोग इतना शक्तिशाली है कि आज तो किसी की शंका-अशंका का या टीका-टिप्पणी का उस पर कोई असर नहीं होता दिखता। वह अबाध गति से बढ़ रहा है। उसके बोझिल लक्ष्य ही भविष्य में कभी उसके पांव थका दें तो अलग बात है।

परमाणु विखंडन के द्वारा भरोसेमंद, स्वच्छ, सुरक्षित और सस्ती बिजली को असीम प्रमाण में पैदा करने का सपना, सपना ही रहने वाला है। दावे और वायदे चाहे जो हों वास्तविकता यही है कि पिछला दौर संकट का रहा है। परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा शुरू की गई हरेक परियोजना पर्यावरण के लिए बेहद भारी पड़ रही है। हरेक परियोजना का लक्ष्यांक भ्रामक ही साबित हुआ। हरेक का मूल आकार छिन्न-विच्छिन हो गया और उसका खर्च भी मूल बजट से कई गुना ज्यादा पाया गया।

लेकिन परमाणु ऊर्जा आयोग इससे बिलकुल इनकार करता है। उसकी नजरों में ये समस्याएं मामूली हैं, अस्थायी हैं और इन्हें दूर करना कठिन नहीं है। पर इन मामूली व अस्थायी समस्याओं को दूर तो किया नहीं जा सका है। देश के परमाणु कार्यक्रम की मुश्किलों को समझने के लिए तारापुर के बिजलीघर को जरा टटोलें।

टाइम्स ऑफ इंडिया के मुख्यपृष्ठ पर 9 मई 1983 को एक खबर छपी थी कि तारापुर परमाणु बिजलीघर के कर्मचारी रेडियमधर्मिता के शिकार हो गए हैं, उन पर मान्य प्रमाण से अधिक असर हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया था कि तारापुर संयंत्र ने रेडियमधर्मी प्रदूषण में कई विश्व रेकार्ड तोड़े हैं और 300 से ज्यादा लोगों में इस प्रदूषण का असर 5 रेम (विकिरण के प्रभाव को नापने वाली इकाई) की सीमा से ज्यादा मात्रा में पाया गया है। रेम विकिरण की मात्रा, शरीर पर उसके दुष्प्रभाव को नापने की ईकाई है। रेडियम एब्सारशन-डोज या रेम एक वर्ष में 4 रेम से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

12 मई को आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष श्री सेठना ने एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया। उन्होंने रिपोर्ट के प्रमुख मुद्दों से या उसमें बताए गए विकिरण की खास तफसीलों से इनकार तो नहीं किया, लेकिन बताया कि तारपुर संयंत्र के कर्मचारियों पर गामा रेडिएशन (विकिरण) का असर जरूर है, पर इससे कोई खतरा नहीं है।

निस्संदेह तारापुर देश का सर्वोत्तम परमाणु संयंत्र है। तारापुर संयंत्र परमाणु बिजलीघरों में मुकुटमणि माना जाता है। यह अन्य दो-राजस्थान के कोटा परमाणु बिजलीघर और मद्रास परमाणु बिजलीघर से आधी से भी कम लागत पर बिजली तैयार कर रहा है। हालांकि तारापुर संयंत्र की क्षमता का उपयोग भी कभी 50 प्रतिशत से आगे बढ़ा नहीं है, फिर भी उसमें लगभग लगातार बिजली का उत्पादन हो रहा है। राजस्थान में, सौम्यतम शब्दों में कहें तो, उत्पादन नियमित नहीं होता है!

लेकिन हमारा यह ‘मुकुटमणि’ काम के यानी बिजली उत्पादन के लिहाज से दुनिया में सबसे ज्यादा निकम्मा माना गया है। इसे संसार का सबसे ज्यादा प्रदूषित परमाणु बिजलीघर माना जाता है। अन्य देशों में इसी डिजाइन के सभी संयंत्र बंद हो चुके हैं। इसमें प्रति इकाई उत्पादन क्षमता के हिसाब से उन संयंत्रों से 25 से 45 प्रतिशत तक कम बिजली पैदा होती रही। इसका प्रति यूनिट उत्पादन खर्च (रुपयों में) उनकी अपेक्षा कहीं ज्यादा बैठता था। तारापुर की एक और विशेषता यह है कि वह सबसे छोटा है और इसीलिए सबसे ज्यादा महंगा रिएक्टर है। प्रति यूनिट स्थापित क्षमता के हिसाब से इतना महंगा रिएक्टर अमेरिका ने दुनिया के किसी भी अन्य देश के लिए न तो बनाया, न बेचा है। अन्य देशों में टिकाए गए ऐसे रिएक्टरों में से सबसे ज्यादा खराब संचालन तारापुर का ही रहा है। वह अपने कर्मचारियों से-वाटेज और ऊर्जा निर्माण दोनों दृष्टियों से- जो कुछ वसूल करता है, कुल मानवीय रेम के हिसाब से नापने पर वह दुनिया में सबसे ज्यादा बैठता है। इस प्रकार तारापुर पर कुछ को गर्व भी हो सकता है और बहुतों को शर्म भी आ सकती है।

अपना माल खपाने के लिए उतारू पश्चिमी यूरोप के परमाणु उद्योग के लिए तारापुर एक वरदान बन सकता है। एक दस्तावेज के अनुसार पश्चिम-जर्मनी की कंपनियां तारापुर की ही श्रेणी के रद्द किए गए गुंड्रियोर्मीजिन नामक रिएक्टर की घटिया तकनीक और कल-पुर्जे परमाणु ऊर्जा विभाग को बेचने के लिए उधार बैठी हैं। फ्रांस की कंपनियां भी परमाणु निर्यात की संभावनाओं की खोज में लगी हुई हैं।

परमाणु बिजली के समर्थक हमेशा यही कहते रहे हैं कि परमाणु बिजलीघर से डरने की कोई बात नहीं है। वे तो बिलकुल निरापद हैं। एक लेख में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष कहते हैं: ‘जब से मोटर कार आई है, तब से उसने संसार के 2.5 करोड़ लोगों की जान ली है। लेकिन परमाणु उद्योग के शुरू होने के बाद संसार भर में विकिरण के कारण मौत होने की एक घटना नहीं हुई।

यह बात सही नहीं है। अगर मोटरगाड़ियां खतरनाक हैं तो उसका अर्थ यह नहीं कि परमाणु रिएक्टर खतरनाक नहीं होते। यह तो जोखिमों और विपदाओं के नतीजों से खिलवाड़ हुआ। भोपाल कांड में मरने वालों से कई गुना ज्यादा लोग सड़क पार करते हुए मरे हैं, लेकिन इससे भोपाल कांड का समर्थन तो नहीं होता।

परमाणु ऊर्जा वांछनीय है या नहीं, इसकी जांच करने के लिए बिजली उत्पादन में रुपयों की लागत के अलावा मानवीय रेम की मात्रा की परख भी एक कसौटी हो सकती है। प्रति मेगावाट/साल के हिसाब से मानवीय रेम को नापकर देखा गया है कि तारापुर की ऊर्जा की मानवीय लागत दुनिया-भर में सबसे ज्यादा है। आज यहां प्रति मेगावाट क्षमता पर लगभग 100 मानवीय रेम है। लेकिन अमेरिका में मोटे तौर पर 1.2 मानवीय रेम/मेगावाट है।

परमाणु उर्जा आयोग के अध्यक्ष कहते हैं: जब से मोटर कार आई है, तब से उसने संसार के 2.5 करोड़ लोगों की जान ली है। लेकिन परमाणु उद्योग के शुरू होने के बाद संसार भर में विकिरण के कारण मौत होने की एक भी घटना नहीं हुई। भोपाल कांड में मरने वालों से कई गुना ज्यादा लोग सड़क पार करते हुए मरे हैं, लेकिन इससे भोपाल कांड का समर्थन तो नहीं होता।तारापुर की डिजाइन बना था सन् 60 में बिजलीघर का काम भी उसी समय चालू हो गया था। उसके कुछ साल बाद दुनिया के परमाणु उद्योग में सुधार और परिवर्तन के दो बड़े दौर आए। एक तो 1970 के आसपास और दूसरा अमेरिका में थ्री माईल आइलैंड नामक एक बिजलीघर की दुर्घटना के बाद। नए परिवर्तनों ने अमेरिका और उत्तरी यूरोप में सुरक्षा व्यवस्था तथा जांच के स्तर को सुधारने के लिए मजबूर किया। इस हिसाब से तो किसी भी दूसरे देश में तारापुर संयंत्र एकदम बंद किर दिया गया होता। ऐसे कुछ रिएक्टरों को बंद किया भी गया- हालांकि वे तारापुर की तुलना में कम हानिकारक थे।

तारापुर संयंत्र से बिजली तो जो कुछ मिलेगी सो ठीक ही है, पर न जाने कितने लोग परमाणु देवता की बेदी पर चढ़ाए जाएंगे। देश का कामधेनु बताई गई यह योजना फिलहाल तो परमाणु प्रदूषण की, विकिरण की हुंकार लगा रहे सांड की तरह बन गई है।

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