परंम्पराओं से ही संभव स्वस्थ पर्यावरण का स्वप्न

10 Jun 2022
0 mins read
परंम्पराओं से ही संभव स्वस्थ पर्यावरण का स्वप्न,फोटो - iisd
परंम्पराओं से ही संभव स्वस्थ पर्यावरण का स्वप्न,फोटो - iisd

भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम' का चिंतन किया गया है‚ जिसके अंतर्गत संपूर्ण पृथ्वी की व्याख्या परिवार के रूप में की गई है। पृथ्वी पर सभी प्रकार के जीवन का आधार एक ही है एवं इनका अधिकार भी बराबर है। ये एक–दूसरे के पूरक भी हैं‚ और एक दूसरे पर निर्भर भी। इसी प्रकार पर्यावरण के संतुलन में सबकी अपनी–अपनी भूमिका होती है। प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में पर्यावररण संरक्षण की महत्ता रही है। मानव की प्रगति उसके आसपास के पर्यावरण और प्रकृति के अनुरूप ही हुई है। प्राचीन भारतीय मनीषियों एवं विद्वानों को ज्ञात था कि जगत के समस्त प्राणियों का जीवन पर्यावरण पर ही निर्भर करता है। इसलिए उन्होंने सदैव प्रकृति के संरक्षण हेतु चिंतन किया। 

प्राचीन धाÌमक ग्रंथों‚ वेदों‚ पुराणों में श्लोकों एवं ऋचाओं के माध्यम से प्रकृति की महिमा का बखान किया गया है। वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत की जलवायु वर्तमान की अपेक्षा अधिक संतुलित थी। आर्यों का धर्म प्रकृति से ही जुड़ा था। वे आकाश के देवता सूर्य‚ वरुण ऋतुओं के नियामक देवता‚ वर्षा के देवता इंद्र की दैवीय शक्ति के रूप में उपासना करते थे। संपूर्ण प्राणियों का जीवन इन्हीं प्राकृतिक शक्तियों द्वारा संचालित होता है। ऋग्वेद में वÌणत ‘पृथ्वीः पूः च उर्वी भव' जिसका अर्थ है ‘समग्र पृथ्वी‚ संपूर्ण परिवेश परिशुद्ध रहे‚ नदी‚ पर्वत‚ वन‚ उपवन सब स्वच्छ रहें‚ गांव‚ नगर प्रत्येक जगह सभी के लिए विस्तृत और उत्तम परिसर प्राप्त हो‚ तभी स्वस्थ जीवन का सम्यक विकास संभव होगा'। ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘पशु–पक्षियों एवं जीव–जन्तुओं का आश्रय स्थान घने जंगल हैं‚ इसलिए वृक्षों को काटना निषिद्ध था'। इसी प्रकार यजुर्वेद के शांति पाठ मंत्र में ईश्वर से शांति बनाए रखने की प्रार्थना की गई है‚ जिससे जगत के समस्त जीवों‚ वनस्पतियों और पर्यावरण में शांति का भाव बना रहे।

प्राकृतिक तत्वों की उपासना

भारतीय संस्कृति में प्राकृतिक तत्व पृथ्वी‚ जल‚ अग्नि‚ वायु‚ सूर्य ही नहीं‚ बल्कि परंपरागत नदियां‚ वनस्पतियां‚ जलाशय‚ पशु–पक्षी‚ जीव–जन्तुओं‚ वृक्षों की उपासना की जाती थी। पीपल‚ नीम‚ तुलसी‚ वटवृक्ष आदि की पूजा का विधान पर्यावरण संरक्षण से ही संबंधित था जिसके द्वारा जीव जगत को शुद्ध प्राणवायु प्राप्त होता था। समस्त जीवों का मूल आधार पर्यावरण में ही निहित है। भारत में ऋषि–मुनि‚ आचार्य‚ कविगण ने आरंभ से ही पर्यावरण के महkव को स्वीकार किया है। समस्त वैदिक साहित्य‚ पुराणों एवं लौकिक साहित्य में पृथ्वी‚ आकाश‚ वायु‚ जल‚ जंगल आदि प्रकृति के घटक तत्वों तथा उनकी विशेषताओं का चित्रण सूIमता से किया गया है। 

प्राचीन भारतीय परंपरा में पर्यावरण की अपार उपयोगिताओं एवं इसके द्वारा प्राप्त स्वस्थ जीवन का रहस्य भी संकलित है। चरक संहिता में उल्लेख है कि शुद्ध वातावरण में उत्पन्न औषधियां शरीर को स्वस्थ एवं ओजपूर्ण बनाती हैं वहीं अशुद्ध पर्यावरण से प्राप्त औषधियां‚ अन्न‚ जल‚ आदि मानव शरीर पर विपरीत प्रभाव डालती हैं'। ‘रामायण' में भारत की प्रमुख नदियों का उल्लेख है जो स्मरण कराती हैं कि जल का जीवन में विशेष महkव है क्योंकि जीवन का आधार जल ही है। महाभारत में कहा गया है कि ‘फल–फूल वाले वृक्ष मनुष्य को तृप्त करते हैं। वृक्ष देने वाले अर्थात समाज हित में वृक्ष लगाने वाले परलोक में भी वृक्षों की रक्षा करते हैं'। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को वृक्षों का महkव बताते हुए कहते हैं कि ‘वृक्ष इतने महान होते हैं कि परोपकार के लिए ही जीते हैं। ये आंधी‚ वर्षा और शीत को स्वयं सहन करते हैं'। 

जैन एवं बौद्ध परंपराओं में पर्यावरण

जैन और बौद्ध साहित्य तथा प्राचीन परंपराओं ने पारिस्थितिक सद्भाव के साथ ही पर्यावरण के संरक्षण हेतु सिद्धांतों की स्थापना की। जैन धर्म के अनुसार ‘जो मनुष्य पृथ्वी‚ वायु‚ अग्नि‚ जल‚ वनस्पति के अस्तित्व को नहीं मानता‚ उनको नकारता है वह स्वयं को ही अस्वीकृत करता है क्योंकि वे इन तत्वों से जुड़ा हुआ है।' ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम' जैन ग्रंथ‚ तkवार्थ सूत्र का अर्थ है कि जीवों के परस्पर में उपकार हैं'। बौद्ध धर्म का मत है कि पशु–पक्षियों की हिंसा से पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है‚ इसलिए पंचशील के प्रथम शील में किसी भी प्राणी की हिंसा न करने का प्रावधान था। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र' में पर्यावरण संरक्षण हेतु सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा‚ जलाशयों तथा नहरों का निर्माण राज्य के निवासियों का कर्त्तव्य बताया है। कौटिल्य ने जलाशयों को अशुद्ध करने‚ वृक्षों को नष्ट करने एवं पशु हिंसा करने वालों के लिए दंड देने की नीतियों का निर्माण किया जिसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण से ही जुड़ा हुआ था। प्राचीन भारतीय विद्वानों को वषाç पूर्व ही ज्ञात था कि मनुष्य अपने क्षणिक सुख के लिए पर्यावरण का दोहन अवश्य करेगा जिससे सभी प्राणियों का जीवन संकट में पड़ सकता है‚ और वह स्थिति वर्तमान समय में सत्य प्रतीत हो रही है‚ जिसके लिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है। इस समय वैश्विक स्तर पर प्रदूषणयुक्त वातावरण‚ जीव–जन्तुओं की प्रजातियों का विलुप्त होना‚ जलवायु असंतुलन एवं तापमान में अत्यधिक वृद्धि का होना आदि जीवन के लिए संकटमय है जिस पर विचार करना ही न सार्थक होगा‚ बल्कि स्वस्थ पर्यावरण के निर्माण हेतु पुनः प्राचीन भारतीय संस्कृतियों और परंपराओं को अपनाना होगा। इसके लिए प्रत्येक मनुष्य को प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए व्यक्तिगत स्तर पर वृक्षारोपण‚ जल संरक्षण‚ जीव संरक्षण के प्रति जागरूक रहते हुए प्राकृतिक संसाधनों का सीमित प्रयोग करना होगा तभी संतुलित जलवायु एवं स्वस्थ पर्यावरण के सतत विकास का स्वप्न संभव होगा। 

(लेखिका ने मध्यकालीन भारत में पर्यावरण एवं प्रकृति संबंधी दृष्टिकोण विषय पर शोध अध्ययन किया है)

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading