प्रशासन की समस्याएँ - वास्तविक चिंताए

27 May 2011
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खंडवा शहर की एक निम्न आय वाली बस्ती
खंडवा शहर की एक निम्न आय वाली बस्ती
संयुक्त राष्ट्र संघ की पीपीपी में अच्छे प्रशासन की दिग्दर्शिका में कहा गया है कि पीपीपी को सफल बनाने में प्रशासन की महती भूमिका है। पीपीपी से पूर्ण लाभ प्राप्ति के लिए,पीपीपी को समर्थ बनाने वाली संस्थाओं,कार्यपद्धति और प्रक्रियाओं को सही तरीके से स्थापित किया जाना आवश्यक है। इसका अर्थ इस प्रक्रिया में सरकारों को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में मदद करना और नागरिकों के साथ-साथ अन्य दावेदारों को भी शामिल करना है।

यह दिग्दर्शिका आगे कहती है कि अच्छा प्रशासन, सहभागिता, शालीनता, पारदर्शिता, जिम्मेदारी, निष्पक्षता और कार्यक्षमता जैसे व्यापक रूप से स्वीकार्य मूल सिद्धांतों को शामिल करता है। यहाँ मुद्दा यह है कि ये सिद्धांत सिर्फ कागजी हैं और अधिकांश परियोजनाओं में अमल में नहीं लाए गए हैं। इन्हीं कुछ सिद्धांतों पर हम विचार करेंगे जो व्यापक समुदाय के लिए गंभीर चिंता बने हुए हैं।

पारदर्शिता और जवाबदेही


पीपीपी परियोजनाओं की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्याओं में से एक है उनका प्रजातांत्रिक ढाँचे और समाज के नियंत्रण पर होने वाला प्रभाव है। इस प्रकार की परियोजनाएँ अपने वाणिज्यिक पक्ष तथा लाभोन्मुखी संचालन को आधार बनाकर गोपनीयता की माँग करती हैं और उसे प्राप्त भी करती हैं। परियोजना बनाते समय नागरिकों से बिरले ही विचार विमर्श किया जाता है। परियोजना के अंतिम निर्णय के बाद भी नागरिकों को परियोजना संबंधी जानकारियाँ प्राप्त करने में गंभीर परेशानियाँ आती हैं। ये बाधाएँ परियोजनाओं से सीधे प्रभावित होने वाले लोगों को परियोजना स्वीकृति के पक्ष में निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया सहित परियोजना संबंधी समस्त महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करने से रोकती हैं।

2006 की विश्व बैंक की रिपोर्ट में उस समय कहा गया था-‘‘बावजूद इस तथ्य के कि भारत में लगभग 90 पीपीपी परियोजनाएँ निर्माणाधीन और संचालन के दौर में हैं, सार्वजनिक रूप से ऐसी कोई सूचना सामग्री उपलब्ध नहीं है जो उनके बारे में सीधीसादी जानकारी भी दे सके’’।

उदाहरण के लिए नागपुर के एक ज़ोन में 24x7 जलप्रदाय की एक परीक्षणात्मक परियोजना को लें जहां परियोजना का क्रियांवयन तीव्र गति से हो रहा है परंतु उस क्षेत्र के लोगों से परियोजना की परिकल्पना के समय विचार-विमर्श की बात तो छोडि़ए उन्हें तो परियोजना संबंधी बुनियादी जानकारी भी नहीं है।

हम मौके पर वहाँ के स्थानीय लोगों से मिले तो उनका कहना था कि सार्वजनिक विचार-विमर्श और जागरूकता अभियान चलाया तो गया था परंतु वह ज्यादातर मात्र कागज़ी कार्यवाही भर था। इस प्रकार जनहित की परियोजना की जानकारियाँ और विवरण जो स्वाभाविक रूप से खुद पहल करते हुए ही दिया जाना चाहिए थी उसे सूचना का अधिकार कानून के तहत भी बड़ी परेशानियों, प्रयत्नों और पैसा खर्च करने के बाद प्राप्त किया जा सका है। तिरूपुर जलप्रदाय परियोजना की जानकारियाँ तो सूचना के अधिकार के तहत भी नहीं दी गई।

जब आम जनता परियोजना संबंधी जानकारियाँ और विवरण जानना चाहती है तो वह चाहती है कि सरकार और निजी कंपनियाँ समुचित रूप से पारदर्शी हों। परियोजना के कुछ दस्तावेज व जानकारियाँ स्पष्टतः व्यावसायिक और व्यापारिक गोपनीयता की दृष्टि से सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर रखे जा सकते हैं परंतु, यह परियोजना संबंधी गोपनीयता जनता के जानने के हक और जानकारियों के खुलासे की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। परियोजना अधिकारियों को पारदर्शिता और खुलेरूप से जानकारियाँ देने की व्यवस्था बनाए रखने हेतु सजग रहने की आवश्यकता है।

पीपीपी परियोजनाओं को इस आधार पर भी प्रोत्साहित किया जाता है कि वे तुलनात्मक रूप से सार्वजनिक ठेका व्यवस्थाओं से ज्यादा जवाबदेह होती हैं। मांट्रियल (कनाड़ा) की एक संस्था द्वारा किए गए शहरीकरण के एक अध्ययन ने पाया कि ‘‘कई निर्वाचन कार्यकालों के बराबर जीवनकाल होने के कारण, पीथ्री निर्वाचित प्रतिनिधियों की जवाबदेही सीमित कर देती है और उन्हें दैनिक संचालन के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है। सच्ची बात तो यह है कि कुछ लोग यही तो चाहते हैं’’।

तिरूपुर जलप्रदाय और मलनिकासी परियोजना का हमारा अनुभव दर्शाता है कि परियोजना संबंधी जानकारियाँ प्राप्त करना बहुत कठिन है। कंपनी द्वारा वास्तविक रूप में प्रतिदिन औसतन प्रदाय किए जा रहे पानी की मात्रा, उद्योगों, नगरपालिका और गाँवों में जलप्रदाय की समय सारिणी, परियोजना संचालन विवरण, अंशपूँजी विभाजन, वित्तीय नियोजन, ऋण व उन पर लगने वाले ब्याज, होने वाले खर्चों, अर्जित लाभ आदि से संबंधित मूल प्रश्नों का उत्तर तक हम परियोजनाकर्ता कंपनी से प्राप्त नहीं कर सके। अन्ततोगत्वा परियोजना संबंधी जानकारियों के लिए हमें सूचना का अधिकार कानून के तहत आवेदन करना पड़ा। इस पर कंपनी का कहना था कि वह सूचना का अधिकार कानून के दायरे में नहीं आती है और चूँकि वह सार्वजनिक अभिकरण नहीं है अतः जानकारियाँ देने को बाध्य नहीं हैं। यह पूरा परिदृश्य पीपीपी परियोजनाओं की पारदर्शिता और खुलेपन के बारे में गंभीर प्रश्न खड़े करता है।

प्राकृतिक गैस के क्षेत्र में भी विचार करें तो वर्तमान में वहाँ भी इसी प्रकार की विवादास्पद स्थितियाँ बनी हैं। न्यू एक्सप्लोरेशन लाईसेंसिंग पॉलिसी (एनईएलपी) के तहत जो अनुबंध हुए हैं उनमें ऐसी कई घटनाएँ हुई जो अनेक प्रशासकीय मुद्दों को उठाती हैं, जिनमें रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लिमिटेड के साथ कृष्णा गोदावरी बेसिन में किया गया अनुबंध भी शामिल है। हाल ही में प्राकृतिक गैस क्षेत्र के प्रशासन की कमियों से संबंधित इकॉनामिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली में छपे एक लेख के लेखकों अशोक श्रीनिवास और गिरीश संत ने कुछ चिंताओं का इसमें विश्लेषण किया है। अनुबंध प्रक्रिया की पारदर्शिता के मुद्दे पर वे लिखते हैं-‘‘एनईएलपी द्वारा किए गए अनुबंध, जो अरबों डॉलर मूल्य के हैं, की पारदर्शिता संबंधी गंभीर चिंताएँ हैं। पहली एनईएलपी की प्रोडक्शन शेयरिंग कान्ट्रेक्ट और नीलामी मूल्यांकन मानक सार्वजनिक नहीं थे और इसके बाद की गतिविधियों की जानकारियाँ भी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं थीं कि किस ब्लॉक में सफल निविदा किसकी थी और अंतिम प्रोडक्शन शेयरिंग कान्ट्रेक्ट क्या है’’।

बेहतर प्रशासन और पीपीपी के बारे में संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट लिखती है-‘‘पीपीपी निजीकरण नहीं है। पीपीपी के अंतर्गत सार्वजनिक सेवाप्रदाय करने की जवाबदेही सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा ही स्वीकार की जाती है। जबकि, निजीकरण के अंतर्गत यह जवाबदेही निजी क्षेत्र को हस्तांतरित हो जाती है (सार्वजनिक क्षेत्र मूल्य नियंत्रण संबंधी कुछ नियमन रख सकता है)। पीपीपी के अंतर्गत स्वामित्व का स्थानान्तण नहीं होता है और सार्वजनिक क्षेत्र जवाबदेह बना रहता है’’। यह पीपीपी के घोषित उद्देश्य कि निजी सेवाप्रदाता सीधे उपभोक्ताओं के प्रति जवाबदेह होता है इसलिए पीपीपी से सेवाप्रदाय बेहतर होगा, का विरोधाभासी है।

जनभागीदारी और सार्वजनिक नीति


पीपीपी परियोजनाओं में निर्णय लेने की व्यवस्थाएँ इस प्रकार की होती हैं कि उसमें नौकरशाही और निजी कंपनियों का काफी हस्तक्षेप होता है। ऐसी व्यवस्थाएँ परियोजना विकास तथा उसके क्रियांवयन पर जनता से विचार-विमर्श और आम सहमति की आवश्यकता की उपेक्षा करती हैं। आम सहमति की यह उपेक्षा अनेक बार जनसंगठनों के विरोध प्रदर्शनों और प्रतिरोध को जन्म देती है, जो अंततः परियोजना के प्रतीक्षाकाल (गेस्टेशन पीरियड) और लागत वृद्धि का कारण बनते हैं।

आम सहमति के महत्त्व को सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए भी नकारा नहीं जा सकता है। पीपीपी परियोजनाओं के लिए तो ऐसी सहमति और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इसमें निजी कंपनियाँ शामिल रहती हैं और सेवाप्रदाय का मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है। उपभोक्ता ही किसी सेवा के बारे में यह निर्णय लेने की बेहतर स्थिति में होते हैं कि उनके समुदाय के लिए उस सेवा की उपयोगिता कितनी है। वस्तुतः परियोजना का निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया में समुदाय का सहभाग सुखद स्थितियों का निर्माण करेगा क्योंकि समुदाय परियोजना को नकार देगा यदि संबंधित परियोजना उनकी आवश्कताओं और माँगों की पूर्ति करती है तो वह परियोजना के समर्थन में दृढ़ता से खड़ा रहेगा। ऐसी संभावना से परियोजना की जवाबदेही और विश्वास के साथ समुदाय के द्वारा लाभों और प्रभावों की स्वीकृति में भी वृद्धि होगी। यह प्रक्रिया सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं पर भी लागू होती हैं।

आम सहमति की प्रक्रिया प्रजातांत्रिक नियंत्रण व्यवस्था को यथावत रखती है और सुनिश्चित करती है कि परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए जन भागीदारी को हाशिए पर ढकेला नहीं गया है। चूँकि ऐसी परियोजनाओं में करदाताओं की बहुत बड़ी धनराशि लगी होती है, अतः यह सुनिश्चित करने के लिए कि परियोजना बिना अवरोधों के चलती रहे, जनता की भागीदारी बंधनकारी है। इससे यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि परियोजना स्थानीय आवश्यकताओं के प्रति जवाबदेह है।

पीपीपी के बारे में दूसरी बड़ी चिंता सरकार के कार्यकाल और सार्वजनिक नीति के बारे में है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पीपीपी अनुबंध सामान्यतः 20 से 30 वर्षों की समयावधि के होते हैं और इस दौरान नीति में परिवर्तन आवश्यक होने पर वे समस्याएँ पैदा कर सकते हैं। एक कार्यकाल के पश्चात नए निर्वाचित प्रतिनिधिगण अनुबंध की शर्तों को न तो बदल सकते हैं और न ही रद्द कर सकते हैं। इसका कारण यह है कि अनुबंध की शर्तों को बाद में बदलने या अनुबंध समाप्त करने पर निश्चित रूप से लागत में और ज्यादा वृद्धि होगी जिसका बोझ अंततः सार्वजनिक क्षेत्र को ही उठाना पड़ेगा।

एक उदाहरण है मैसूर की पीपीपी जलप्रदाय परियोजना का। इस परियोजना का कर्नाटक शहरी जलप्रदाय एवं मलनिकास बोर्ड (केयूडब्ल्यूएसडीबी) ने दिसंबर 2008 में जसको नामक कंपनी के साथ अनुबंध किया था। जब से यह परियोजना जसको को दी गई है तभी से वह शहर के कर्मचारी यूनियनों, शिक्षाविदों, विभिन्न स्थानीय समूहों और जनप्रतिनिधियों का विरोध झेल रही है। ये सभी लोग परियोजना का विरोध करते रहे हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। ऐसी भी खबरें हैं कि शहर के महापौर तक को मैसूर सिटी कॉर्पोरेशन (एमसीसी), केयूडब्ल्यूएसडीबी और जसको के बीच अनुबंध हस्ताक्षरित होने की जानकारी नहीं थी। ऐसी गोपनीय एवं भागीदारीविहीन प्रक्रिया के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान और विरोध प्रदर्शन किए गए हैं।

मांट्रियल (कनाड़ा) की संस्था की रिपोर्ट का सार इस प्रकार है-‘‘एक बात सुनिश्चित है कि पीथ्री परियोजनाएँ निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की जवाबदेही को सीमित करती है क्योंकि उन्हें दैनिक कामकाज के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। 1985 में हस्ताक्षरित और 2015 में समाप्त होने वाली 30 वर्षों के लिए अनुबंधित पीथ्री परियोजना में 2006 के अंत में चार वर्ष के लिए चुनी गई नगरपालिका परिषद को किसी भी प्रकार के बदलाव की छूट नहीं होगी’’।

जानकारी तक पहुँच


भारत से पहले जिन देशों ने बुनियादी ढाँचा विकास के लिए पीपीपी को अपनाया उन्होंने पीपीपी ढाँचे में जानकारी प्राप्ति, पारदर्शिता और जवाबदेही जैसे मूलभूत सिद्धांतों पर विशेष बल दिया। अर्थात, पारदर्शिता और खुलापन सभी सरकारी कार्यक्रमों की महती आवश्यकताएँ होनी चाहिए।

उदाहरणार्थ, तिरूपुर परियोजना के बारे में जानकारी के श्रोत केवल परियोजना एजेंसियाँ हैं जिनके पास मीडिया और व्यापक समाज के बतलाने के लिए सिर्फ अच्छी-अच्छी कहानियाँ हैं। इससे परियोजना की एकपक्षीय तस्वीर ही सामने आती है और परियोजना का तटस्थ मूल्यांकन नहीं हो पाता है।

इस पुस्तिका के लेखक ने परियोजना अधिकारियों से कई तरह से संवाद स्थापित करने की कोशिश की, जिनमें व्यक्तिगत भेंट, फोन संपर्क, पत्र-व्यवहार और ईमेल शामिल हैं। परंतु परियोजना अधिकारियों से कोई जवाब प्राप्त न हो सका। उनके कार्यालयों में गए तो उन्होंने हमें मिलने का समय नहीं दिया। वास्तव में एनटीएडीसीएल कार्यालय में संबंधित अधिकारी परियोजना के बारे में बात नहीं करना चाहते थे। जब सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत उन्हें आवेदन दिया तब कहीं जाकर वे जवाब देने को बाध्य हुए। जैसा कि पहले बताया गया है यह जवाब भी वैसा ही रूखा था। इस प्रकार की स्थिति पीपीपी के घोषित मूल सिद्धांतों पारदर्शिता और जवाबदेही को नकारती है।

जैसा कि विश्व बैंक का कथन है कि पीपीपी परियोजनाओं से जानकारी प्राप्त करने संबंधी मैदानी हकीकत बिल्कुल अलग हैं, बावजूद इसके कि ‘‘2005 से प्रभावशील सूचना का अधिकार अधिनियम जिसकी अपेक्षा है कि स्वतः ही जानकारियाँ उजागर की जाएँ और जनहित में व्यापक स्तर पर सूचनाएँ उपलब्ध करवाई जानी चाहिए’’।

तदुपरांत एनटीएडीसीएल के विरुद्ध तमिलनाडु के राज्य सूचना आयोग के समक्ष एक अपील प्रस्तुत की गई कि चूँकि इसमें सार्वजनिक संसाधनों का बहुत बड़ा निवेश है, यह एक लोक प्राधिकरण है और परियोजना के रूप में यह समुदाय के लाभ के लिए कार्य कर रही है, अतः इसे परियोजना संबंधी जानकारियाँ उजागर करनी चाहिए।

खंडवा शहर का एक बाजारखंडवा शहर का एक बाजार24 मार्च 2008 को तमिलनाडु के राज्य सूचना आयोग ने एनटीएडीसीएल को लोक प्राधिकरण घोषित करते हुए वांछित सूचना प्रदान करने और आयोग के आदेश की प्रतिपालन रपट 15 दिन में प्रस्तुत करने हेतु आदेशित किया। परंतु हमें एनटीएडीसीएल से आयोग के आदेश के एक माह बाद भी कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई। बाद में राज्य सूचना आयोग के आदेश के विरुद्ध एनटीएडीसीएल ने मद्रास उच्च न्यायालय में एक वाद प्रस्तुत कर आयोग के आदेश पर स्थगनादेश की माँग की। न्यायालय ने उस समय आयोग के आदेश पर स्थगन दे दिया था। पूरी सुनवाई के बाद न्यायाधीश श्री के॰ चंद्रू की एकलपीठ ने 6 अप्रैल 2010 को तमिलनाडु सूचना आयोग के आदेश को सही ठहराते हुए एनटीएडीसीएल को लोक प्राधिकारी माना और आवेदक को वांछित सूचनाएँ उपलब्ध करवाने का आदेश दिया। एनटीएडीसीएल ने इस आदेश के खिलाफ भी उच्च न्यायालय की डिविजन बेंच के समक्ष अपील की हैं। प्रकरण अभी भी उच्च न्यायालय में विचाराधीन है।

पीपीपी अनुबंधों को सार्वजनिक करने के संदर्भ में केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) दिनांक 3 सिंतबर 2009 का आदेश श्री नवरोज मोदी विरुद्ध मुम्बई पोर्ट ट्रस्ट, स्पष्ट करता है कि ‘‘अतः यह अत्यावश्यक है कि पीपीपी अनुबंध गोपनीयता की ओट बनाए रखने के बजाय पारदर्शिता अपनाएं।’’ केन्द्रीय सूचना आयोग ने योजना आयोग और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) से भी इस संबंध में परामर्श माँगा था और टीप दी थी –

‘‘हम प्रतिवादियों के इस तर्क से भी सहमत नहीं हैं कि पीपीपी अनुबंधों को सार्वजनिक करने से निजी पक्ष के लोग भविष्य में सरकार के साथ इस प्रकार के अनुबंध करने में हतोत्साहित होंगें। हमारे समक्ष रखे गए विचार बिना किसी प्रमाण के हैं जो बजाय किसी तथ्य के मात्र एक अनुमान लगते हैं। यह योजना आयोग और सीएजी दोनों के सुस्पष्ट कथनों के सम्मुख अर्थहीन है कि पीपीपी अनुबंधों को उजागर करने में कुछ भी अनुचित नहीं था और अनुबंधों को सार्वजनिक करने से स्पष्टतः जनहित की पूर्ति होती है।’’

केन्द्रीय सूचना आयोग ने आगे उल्लेख किया है -


‘‘हमने प्रतिवादियों के इस कथन पर गौर किया है कि इस प्रकार के पीपीपी अनुबंध उत्तरोत्तर बढ़ते हुए सामान्य हो जायेंगे। दूसरे शब्दों में, व्यावसायिक और बुनियादी ढाँचा विकास का अधिकांश भाग जो सरकार का काम है वह अब निजी संस्थाओं को सौंप दिया जाएगा, जो सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर विशिष्ट परियोजनाओं पर कार्य करेंगी। इन अनुबंधों में सरकार के वित्तीय और भौतिक संसाधनों को लगाए जाने के वादे होंगे। यदि पीपीपी मॉडल से परियोजना का क्रियांवयन न होता तो तब पूरा संचालन सरकार द्वारा चलाया जाता और उस पर सूचना का अधिकार अधिनियम लागू होता और सभी प्रकार की जानकारियाँ सार्वजनिक किए जाने योग्य होती। यह व्यर्थ का तर्क है कि जो काम पहले पूर्णतः सरकार द्वारा किए जाने से पारदर्शी थे वे अब पीपीपी के माध्यम से किए जाने के कारण अपारदर्शी हो गये। इसका मतलब पारदर्शिता को विपरीत दिशा में ले जाना होगा और जो जनहित के प्रतिकूल है।’’

समानता और सामाजिक न्याय


ऐसा भी देखने में आया है कि पीपीपी परियोजनाएँ निजी कंपनियों के सलाहकारों, अधिकारियों और वकीलों के वेतन और भत्ते बढ़ाकर समाज में असमानता को बढ़ाती हैं। इसका असर यह होता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन और हित लाभ कम हो जाते हैं और अक्सर निम्न वेतन श्रेणी के कर्मचारियों की बर्खास्तगी की नौबत आ जाती है, तब इन्हीं कर्मचारियों को निजी कंपनियाँ कम वेतन और बिना किसी हित लाभ के काम पर रख लेती हैं।

सेवा प्रदान करने के लिए दरें बढ़ाने के लिए जोर देने और बढ़ी हुई दरों को लागू करने से पीपीपी द्वारा दी गई सेवाएँ समाज के गरीब व पिछड़े वर्गों की पहुँच से भी दूर होती जाती हैं।

ओन्टारियो हेल्थ कोअलेशन की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘पीथ्री ने अपने प्रबंधकों के वेतन तथा महँगे सलाहकारों और वकीलों का पारिश्रमिक बढ़ाया है वहीं सामान्य कर्मचारियों के वेतन और सुविधाएँ घटा दी हैं और सेवाओं तक पहुँच को भी घटाया है, जिससे असमानता बढ़ी है। प्रजातांत्रिक नियंत्रण को व्यावसायिक गोपनीयता तथा निजी लाभ के प्रबंधन की भेंट चढ़ा दिया गया है। ऊँची दरों के कारण सेवा में कटौती हुई है और इसकी पहुँच कम हो गई है’’।

पीपीआईएएफ के अध्ययन ने भी पाया है कि जल एवं स्वच्छता के क्षेत्र में निजी भागीदारी के कारण रोजगार में कमी हुई है। इसमें कहा है कि-‘‘बिजली क्षेत्र की ही भाँति जल एवं स्वच्छता के क्षेत्र में भी निजी भागीदारी वाले उपक्रमों ने रोजगार में निरंतर कमी दर्ज करवाई है। यह निजीकरण दस्तावेजों द्वारा पूर्वानुमानित था और इसका सर्वाधिक प्रभाव पूर्णतः या आंशिक रूप से निजीकरण किए गए उपक्रमों में देखने को मिलता है’’।

विश्वसनीय निरीक्षण और नियमन प्रक्रिया की कमी


देश में पीपीपी को विकसित करने में सरकार को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वे भारत सरकार के एक दस्तावेज में दर्शाई गई है। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा जारी 2007-08 के आर्थिक सर्वेक्षण में पीपीपी को प्रोत्साहित करने में निम्न अवरोधकारी तत्व चिन्हित किए गए हैं-

1. नीति और नियामक संबंधी विषमताएँ, विशेषकर क्षेत्र विशेष से संबंधित नीतियों और नियमन में।
2. लम्बी समयावधि (दस वर्षों से अधिक)-के लिए अपर्याप्त वित्त अंशपूँजी और कर्ज दोनों के लिए।
3. पीपीपी प्रक्रिया संबंधी प्रबंधन में सार्वजनिक संस्थाओं और अधिकारियों की अपर्याप्त क्षमता।
4. निर्माता/निवेशक और तकनीकी विशेषज्ञों के रूप में निजी क्षेत्र की अपर्याप्त क्षमता।
5. निजी क्षेत्र को दी जा सकने वाली विश्वसनीय बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं की कमी।
6. जनता में पीपीपी की ज्यादा स्वीकृति की अपर्याप्त वकालत।’’

पीपीपी के नियमन में कम से कम केन्द्रीय वित्त मंत्रालय विषमताओं को स्वीकार तो करता है। यद्यपि इस संदर्भ में यह स्पष्ट नहीं है कि यह विषमताएँ अत्यधिक नियमन या बहुत कम नियमन की हैं। विश्व बैंक का इस बाबत नजरिया यह है ‘‘विकास के लिए बंधनकारी नियंत्रणों को हटाने में निजी क्षेत्र एक आवश्यक भागीदार है परंतु निजी क्षेत्र की इस भूमिका के लिए नीतिगत परिवर्तन आवश्यक हैं। इनमें भूमि, श्रमिक और वित्तीय बाजारों की कार्यप्रणाली में सुधार तथा नियंत्रणकारी नियमों को हटाना शामिल है’’।

इस संदर्भ में हमें सड़क विकास क्षेत्र को देखना चाहिए जिसमें भारत में सर्वाधिक पीपीपी परियोजनाएँ हैं। भारत सरकार की पीपीपी वेबसाईट पर उल्लेखित पीपीपी परियोजनाओं में सर्वाधिक 186 परियोजनाएँ सड़क विकास क्षेत्र की हैं जिन्हें पीपीपी परियोजनाओं की सफलता के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है।

भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचडीपी) जो कि राजमार्गों का नियामक भी है, के द्वारा संचालित कुछ पीपीपी परियोजनाओं के बारे में सीएजी की अंकेक्षण रिपोर्ट पर ध्यान दिया जाना चाहिए। रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु इस अवलोकन के साथ शुरू होते हैं –

‘‘मार्च 1998 और अप्रैल 2003 के बीच, 930 किमी सड़क जो कि लगभग 15% होती हैं, को एक नए तरीके जिसे पीपीपी कहा जाता है, से निर्माण करने की माँग की गई। ये सड़क परियोजनाएँ जिन्हें पीपीपी के तहत विकसित करना था, को 17 अलग-अलग परियोजनाओं में बाँट दिया गया, जिसमें से 9 बीओटी-टोल और 8 बीओटी-एन्यूईटी तरीके से निर्मित करनी थीं।’’

(बीओटी-टोल-पीपीपी परियोजनाओं को लागू करने का एक तरीका है बीओटी यानी बिल्ड, ऑपरेट, ट्रांसफर या बनाओ चलाओ और वापस करो। पीपीपी में सेवा प्रदाता को सेवा शुल्क वसूलने का अधिकार होता है। कंपनी हर व्यक्ति से पैसा वसूल कर निवेशित राशि और मुनाफा निकालती है। बीओटी-टोल तरीका कंपनियाँ वहाँ इस्तेमाल करती है जहाँ व्यक्तिगत सेवा शुल्क से ज्यादा आय की संभावना होती है। ज्यादा ट्राफिक वाली सड़कों पर कंपनियाँ इस तरीके के पक्ष में रहती हैं।

बीओटी-एन्यूईटी-ऐसी परियोजनाओं में जहाँ सीधे-सीधे व्यक्तिगत शुल्क से निवेश और मुनाफे की गुंजाइश कम हो वहाँ बीओटी-एन्यूईटी अनुबंध किया जाता है। इसमें कंपनियाँ सालाना आय का आंकलन कर यह राशि सरकार से वसूल करती हैं। ग्रामीण या कम ट्राफिक वाली सड़कों पर इस तरीके का इस्तेमाल किया जाता है।)

रिपोर्ट में आगे कहा गया है -


‘‘सरकार के लिए पीपीपी को एक वैकल्पिक वित्त और सेवाप्रदाय मॉडल के रूप में तय करने के बड़े कारण ‘समय पर’ और ‘कम खर्च में’ सेवाप्रदाय करने के अलावा यह विचार है कि इससे बजट के सीमित संसाधनों को बढ़ाया जा सकता है।’’

और

‘‘यह रिपोर्ट सरकार के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए परियोजना क्रियांवयन के विभिन्न पक्षों की पड़ताल करती है और आंकलन करती है कि क्या इन पीपीपी सौदों से निवेश का अच्छा लाभ (वेल्यू फॉर मनी) मिला है।’’

नियोजन के पहलू पर रिपोर्ट कहती है -


‘‘एनएचडीपी के प्रथम चरण की शुरूआत में प्राधिकरण ने कोई कार्पोरेट/रणनीतिक कार्ययोजना तैयार नहीं की थी, जिसके तहत परियोजना प्राथमिकताओं और समय-सारणी तैयार की गई हो और जो पड़ताल प्रक्रिया के लिए उपयोग में लाई जा सकती हों। उनकी समानांतर समीक्षा की अनौपचारिक व्यवस्था परियोजना पर्यवेक्षण का पर्याप्त आश्वासन नहीं दे सकी।’’

इस रिपोर्ट में दो परियोजनाओं की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट के बारे में कहा गया है कि इनमें डिज़ाइन, अनुमानित लागत और यातायात के अनुमान में कमियाँ पाई गई हैं। अंकेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि अनुबंधों को अनावश्यक रूप से लम्बी समयावधि तक बढ़ाया गया है जबकि उन्हें बहुत पहले ही समाप्त कर दिया जाना था और इनसे 121.63 करोड़ और 187.77 करोड़ का लाभ अनुबंधकर्ता कंपनियों को मिला है।

एस्क्रो एकाउंट की जाँच-पड़ताल और स्वतंत्र अंकेक्षकों की नियुक्ति जैसे मामलों पर सीएजी रिपोर्ट ने यह ध्यान दिलाया है कि प्राधिकरण ने महत्त्वपूर्ण नियंत्रक साधन का लाभ भी नहीं लिया।

एक लेख में कहा गया है कि ‘‘सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय राजमार्ग अभिकरण की अनियमितताओं के कारण सरकार को 384 करोड़ के राजस्व की हानि हुई’’।

सड़क क्षेत्र, जिसे भारत में पीपीपी के विकास और संचालन में अगुआ माना जाता है और जहाँ एक नियमन और निरीक्षण एजेंसी भी हैं, के बारे में यह एक निष्पक्ष और विश्वसनीय संस्था के द्वारा किया गया मूल्यांकन है। अब उन क्षेत्रों पर ध्यान दें जहाँ नियमन और निरीक्षण की कोई एजेंसी नहीं है। वहाँ निजी कंपनियों को खुली छूट होगी। हालांकि, महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि नियामक एजेंसी हो तो भी वह सामान्यतः सेवाधीन और सेवानिवृत्त नौकरशाहों से बनी होगी, तो क्या हम व्यावहारिक रूप से यह भरोसा कर सकते हैं कि ऐसी नियामक एजेंसी निजी कंपनियों पर लगाम लगा सकती है? ऐसे अधिकारी-सदस्य जो सार्वजनिक क्षेत्र के विभागों/एजेंसियों में कार्यरत रहने के दौरान स्वयं संभवतः सार्वजनिक सेवाओं को सुचारू रूप से चलाने में असफल रहे, कैसे निजी कंपनियों के निरीक्षण और जाँच पड़ताल में सक्षम हो सकते हैं? क्या यह अन्य देशों की तरह यहाँ भी भाई-भतीजावादी पूँजीवाद की स्थिति निर्मित नहीं करेगा?

सीएजी रिपोर्ट में पीपीपी से संबंधित कुछ गंभीर चिंताओं तथा निजी कंपनियों के नियमन और नियंत्रण पर सरकारी एजेंसियों की सीमाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि पीपीपी मॉडल और निजी कंपनियों पर सदिच्छा से संचालन करने का भरोसा नहीं किया जा सकता है तथा निजी कंपनियों पर नियंत्रण और निगरानी के लिए एक नियामक एजेंसी का होना बंधनकारी है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि सीएजी की स्थिति भी ‘पिजरे में बंद शेर’ की तरह है क्योंकि जिनका लेखा परीक्षण किया जा रहा है उनसे भी वह उपयुक्त समय में जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता है, उनके लेखा दस्तावेजों तक पहुँच सुनिश्चित नहीं कर सकता है और इस प्रश्न को तो छोड़ ही दें कि अपने निष्कर्षों के आधार पर वह कोई सुधारात्मक तरीके लागू करवा सकता है।

हाल ही की कुछ समाचार रिपोर्टों में कहा गया है कि पीपीपी अनुबंधों के सत्यापन की जिम्मेदारी सीएजी को दी जाएगी कि कहीं ‘‘निर्धारित मानदण्डों के बाहर’’ किसी निजी कंपनी को अनावश्यक फायदा तो नहीं पहुँचाया जा रहा है। यह देखना अभी बाकी है कि वह इस कदम से कितने कारगर तरीके से पीपीपी की जाँच व नियंत्रण कर पाएगा।

पहले उल्लेखित ‘प्राकृतिक गैस क्षेत्र में प्रशासनिक कमियों’ नामक आलेख में पेट्रोलियम एण्ड नेचुरल गैस रेगुलेटरी बोर्ड (पीएनजीआरबी), जो इस क्षेत्र की मौजूदा नियामक संस्था है, के प्रदर्शन पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। इसमें कहा गया है कि नियामकों की नियुक्ति प्रक्रिया बहुत अपारदर्शी है और इसमें सरलता से राजनैतिक हस्तक्षेप व कब्जा किया जा सकता है। इसमें आगे कहा गया है कि पीएनजीआरबी द्वारा क्षेत्र का नियमन करने की प्रभावशीलता पर सवालिया निशान लगे हैं। इसमें कई उदाहरणों और विवादों के हवाले से बतलाया गया है कि ऐसा लगता है कि नियमन प्रक्रियाएँ प्रभावकारी तरीके से कार्य नहीं कर रही हैं।

पानी, यातायात, मलनिकासी, ठोस अपशिष्ठ प्रबंधन आदि के क्षेत्र में पीपीपी परियोजनाएँ तेजी से आ रहीं हैं परंतु, क्रियांवयन के तहत या संचालित परियोजनाओं की जाँच पड़ताल करने वाली नियंत्रक या निरीक्षण एजेंसी नहीं हैं। यह समझना आवश्यक है कि यदि निजी कंपनियों को उनकी मनमर्जी से संचालन करने दिया गया तो बिना सार्वजनिक नियंत्रण और निगरानी का यह मॉडल आम जनता के जीवन में विनाश ला सकता है।

पानी के क्षेत्र में ऐसे प्रयास जारी हैं जिनमें जल नियामक आयोग जैसी अर्धन्यायिक संस्थाओं द्वारा नियमन और नियंत्रण किया जाएगा। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश और अरूणांचल प्रदेश में इसके लिए कानून भी बनाए गए हैं। इन जल नियामक आयोगों को शुल्क निर्धारण, पानी के पट्टे, पानी के पट्टों का व्यापार और लागत वसूली निर्धारण करने आदि की जिम्मेदारी सौंपी गई है। महाराष्ट्र में इस आयोग ने काम करना शुरू कर दिया है परंतु इसकी भूमिका और जिम्मेदारियों को लेकर बहुत भ्रामक स्थिति है। यह किसके प्रति जवाबदेह होगा और पानी के पट्टों का निर्धारण किस प्रकार करेगा, यह स्पष्ट नहीं है। इस प्रकार की संस्थाओं में जनता की सहभागिता भी बहुत कम होती है, यह जन समस्याओं से बड़ी दूर हैं तथा आम जनता को उनके विभिन्न मुद्दों पर सुनवाई के लिए सहज उपलब्ध भी नहीं है। यह स्थिति ऐसी संस्थाओं, जो संचालन में पारदर्शी नहीं है, के गठन और उद्देश्यों पर सवाल खड़ा करती है।

ऐसी कई पीपीपी परियोजनाएँ है जो बहुत आगे बढ़ गई हैं और इनमें कार्यरत कुछ कंपनियाँ बहुत बड़ी हैं जिन्हें वर्षों का लम्बा अनुभव है और जो मानव संसाधन तथा तकनीकी स्तर पर सरकारी विभागों से बहुत ऊपर हैं। यह पीपीपी परियोजनाओं में शामिल निजी कंपनियों पर नियंत्रण व नियमन करने वाले अधिकरियों की क्षमता पर भी प्रश्न उठाता है। हालांकि जल क्षेत्र में अभी हमें ऐसे अनुभवों से गुजरना शेष है परंतु जैसा सीएजी की रिपोर्ट दर्शाती है कि सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा निजी कंपनियों का नियमन चिंताजनक है।

अन्य देशों के अध्ययनों में पाया गया है कि पीपीपी अनुबंध ऐसी जटिल स्थितियाँ निर्मित कर देते हैं कि उनकी निगरानी करना कठिन होता है और इससे कई अन्य तरीके की समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। पीपीपी के प्रदर्शन की निगरानी और पीपीपी प्रक्रिया का प्रबंधन सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा करना आसान नहीं है क्योंकि इससे ऐसी एजेंसियों पर काम का बोझ बढ़ जाता है और वे ऐसी जटिल परियोजनाओं के संचालन को सम्भालने में सक्षम भी नहीं होती हैं। इंग्लैण्ड की हाउस ऑफ कॉमन्स कमेटी फॉर पब्लिक एकाउन्ट्स ने अपनी 2007 की रिपोर्ट में कहा है कि ‘‘सार्वजनिक क्षेत्र के सार्वजनिक ठेकों के विभागों में पीएफआई (प्रायवेट फायनेंस इनिशिएटिव) के अनुभवों और कौशल की लगातार कमी रही है’’। गौरतलब है कि ऐसा इंग्लैण्ड में हो रहा है जो पीएफआई का अगुआ देश है और पिछले दो दशकों से पीएफआई परियोजनाओं का क्रियांवयन कर रहा है।

युनाईटेड नेशन्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डेवलपमेंट (यूएनआरआईएसडी) के नरेन्द्र प्रसाद विश्व बैंक की ‘बुनियादी ढाँचा नियामक व्यवस्थाओं के मूल्यांकन की निर्देश-पुस्तिका’ के हवाले से नियामक व्यवस्थाओं पर कहते हैं -

‘‘.........यह स्वीकार किया गया है कि पिछले 15 वर्षों में विश्वभर में 200 से अधिक नियामक संस्थाएँ बनीं। अब काफी सबूत हैं जो यह दिखाते हैं कि नियामक व्यवस्थाएँ अपेक्षित परिणाम (विभिन्न क्षेत्रों में) पाने में असफल रही हैं। अधिकांशतः नियामक ही अपने आप में साध्य बन जाता है जबकि, वह जनता की भलाई के लिए सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन मात्र है।’’

विभिन्न सार्वजनिक विभागों और एजेंसियों में पहले भी और अभी भी नियंत्रण और निगरानी के साथ नियमन रहा है। यह सार्वजनिक सेवाएँ प्रदान करने की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यह मौजूदा शासन के कानूनों और नीतिगत ढाँचे पर भी बहुत अधिक निर्भर करता है। समस्या वर्तमान नियामक प्रक्रिया से है जिसे विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ बढ़ावा दे रही हैं। वर्तमान नियमन प्रक्रिया में कई समस्याएँ हैं जैसे स्वनियमन। इसके लिए जरूरी है कि जिसका नियमन किया जा रहा है उससे नियामक खुद को अलग करे और सभी मुद्दों के लिए केन्द्रीकृत तंत्र न हो। वर्तमान नियमन प्रक्रिया समस्याग्रस्त है क्योंकि इसमें पहुँच, पारदर्शिता, जवाबदेही और जनभागीदारी का अभाव है।

संक्षेप में, यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि विकासशील देशों की नियमन प्रक्रियाओं में निजी संचालनों का नियमन एवं नियंत्रण करने के लिए पुख्ता तरीके नहीं हैं। दूसरी ओर, विश्वसनीय नियमन प्रक्रिया के अभाव में पीपीपी परियोजनाएँ बड़ी जोखिम भरी हो सकती हैं। विशेषकर, तब जब जनता और उनके प्रतिनिधियों की इन परियोजनाओं के नियंत्रण में कोई भूमिका न हो। हालांकि, जहाँ ऐसी नियामक संस्थाएँ मौजूद हैं वहाँ भी व्यापक समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय हितों की सुरक्षा कर पाने का कोई प्रभावकारी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विशेषकर विकासशील देशों में यह निर्णय होना अभी बाकी है कि निजी कंपनियों पर नियंत्रण और नियमन करने में नियामक आयोगों का प्रदर्शन कैसा रहा है।

सरकारी दिशा-निर्देश और सफल पीपीपी


फिलहाल जिन तरीकों से पीपीपी का संचालन और उन्हें प्रोत्साहन दिया जा रहा है वह 2004 में क्षेत्र सुधार व सफल पीपीपी के लिए भारत सरकार द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देर्शों से बिल्कुल भिन्न है। इन निर्देशों में कहा गया है कि ‘‘पानी और स्वच्छता स्थानीय समस्याएँ हैं जिनका निदान भी मुख्यतः स्थानीय है परंतु उनका सफलतापूर्वक निदान न हो पाने का क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर असर हो सकता है। सुधारों की समुचित क्रमबद्धता और प्रबंधन, दूसरे क्षेत्रों के सुधारों के अनुभवों के आधार पर करना चाहिए। निजी क्षेत्र को इस प्रक्रिया में सकारात्मक भूमिका निभाना है’’।

संस्थागत और नीतिगत रूपरेखा के बारे में, दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि ‘‘जनता द्वारा मान्य नीतिगत रूपरेखा जो निजी सहयोग प्राप्त करती है, को व्यवस्थित सुधारों के लिए व्यापक समर्थन मिलेगा’’। दस्तावेज के अनुसार राज्य की क्षेत्र नीति सार्वजनिक सेवाओं का दायित्व और संस्थागत जवाबदेही, वित्तीय स्थायित्व, स्वायत्त एवं कार्यक्षम नियमन, गरीबों की बेहतर सेवाओं के लिए प्रोत्साहन आदि मूल सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।

आगे कहा है कि ‘‘जल वितरण तंत्र के संचालक को व्यवस्था और निवेश नियोजन (समुचित नियमन दिशा-निर्देश के अंतर्गत) की जिम्मेदारी दी जाना चाहिए तथा न्यूनतम लागत पर माँग पूर्ति के लिए प्रोत्साहन हो। ऐसे प्रोत्साहन इस प्रकार नियोजित होने चाहिए जो नवनिर्माण की प्रभावी पसंद के विपरीत मौजूदा परिसंपत्तियों की समुचित देखभाल और संचालन को तरजीह देते हो’’।

ऐसा लगता है कि अधिकांश नीतियाँ अस्थाई रूप से बनाई जाती हैं। जनता की स्वीकृति की बात तो छोड़िए इस पर आम बहस भी सही और विस्तार से नहीं की जाती है। अनुभवों से स्पष्ट है कि अनेक जगहों पर दिशा-निर्देशों के ठीक विपरीत काम हो रहा है। स्थानीय निकाय और अर्ध-शासकीय संस्थाएँ मौजूदा परिसंपत्तियों की उपेक्षा करते हुए पूँजी निवेश से नए बुनियादी ढाँचे तैयार कर रहे हैं।

कानूनी आरै नियमन की रूपरेखा के बारे में दिशा-निर्देश में कहा गया है –
‘‘नियमन रूपरेखा प्रान्तीय और स्थानीय स्तर पर अपनी भूमिकाओं को स्पष्ट रूप से अलग करे और स्थानीय निकाय को 74 वें संविधान संशोधन के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के प्रति संवेदनशील रहे। क्योंकि स्वतंत्र नियामकों की स्थापना महँगी है और उन्हें सार्वजनिक सेवा उपक्रमों के सुधारों व नियमन में सीमित सफलता ही हासिल हुई है। एक राज्य स्तरीय सुधार सहायता (रिफार्म फेसिलिटेशन) टीम बने, जिसे स्थानीय निकायों की सहायतार्थ वित्तीय व अन्य सहयोगों को प्रभावित करने का अधिकार हो, जो प्रारंभिक रूप से सुधार एजेण्डा को संचालित करे और प्रभावी नियमन हेतु आवश्यक मंच तैयार करे। विभिन्न सेवा प्रदाताओं की कार्य समीक्षा के लिए एक राज्य स्तरीय नियामक संस्था (स्थानीय निकाय की तुलना में) ज्यादा बेहतर होगी जो प्रक्रियागत सहायता प्रदान करे, और सेवा प्रदाताओं तथा उपभोक्ताओं के बीच के विवादों को सुलझाने के लिए कार्यक्षमता और प्रतिष्ठा का विकास करे। स्थानीय निकाय शुल्क निर्धारण का अधिकार भी राज्य नियामक को दे सकते हैं (यदि राज्य के नियमानुसार हो तो)। ऊर्जा क्षेत्र के अनुभवों के आधार पर यदि राज्य नियामक की परिकल्पना हो तो राज्य की नीति में उसके गठन के स्पष्ट कारणों को बतलाया जाना चाहिए और प्रभावी नियमन के लिए साधन उपलब्ध होने चाहिए।’’

हालांकि दिशा-निर्देशों में नियमन के पक्ष में स्पष्ट है कि सुधारों के प्रारंभ से पूर्व समुचित नियामक रूपरेखा तैयार होनी चाहिए परंतु मैदानी सच्चाई इससे एकदम भिन्न है। जिन राज्यों में नियामक आयोग बन चुके हैं वहाँ भी प्रक्रिया अपारदर्शी है, भूमिकाएँ और जिम्मेदारियाँ अस्पष्ट हैं, जो निश्चिय ही इन सुधारों के प्रति विश्वास पैदा नहीं करते हैं। समझ में नहीं आता है कि बिना इन प्रक्रियाओं और रूपरेखाओं के सुनिश्चित हुए पीपीपी को ही एक सही विकल्प मानकर उसे स्वीकारने और क्रियान्वित करने की जल्दबाजी क्यों है और वह भी बिना विस्तृत अध्ययन और चर्चाओं के।

यह ऐसे कुछ बिन्दु हैं जिन पर दिशा-निर्देशों में विस्तार से चर्चा की गई है। यदि हम इन दिशा-निर्देशों के आधार पर पीपीपी लागू करने के वर्तमान रुझानों की समीक्षा करें तो पाएँगे कि अधिकांश दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है। दिशानिर्देश यह ध्यान दिलाते हैं कि अन्य क्षेत्रों में सुधार के अनुभवों से सबक लेना चाहिए। लेकिन, उदाहरण के तौर पर, ऊर्जा क्षेत्र के सुधार और निजीकरण के सबकों को पानी के क्षेत्र में सुधार प्रारंभ करने के पूर्व ध्यान में नहीं रखा गया है।

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