परती परिकथा

देश की माटी की इस दुर्दशा का वर्णन परती जमीन की बात किए बिना पूरा न होगी। लगातार फौलती बंजर जमीन के ठीक आंकड़े तो नहीं पर इस बारे में काम कर रही दिल्ली की एक संस्था सोसाइटी फार प्रमोशन आफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट के अनुमान के अनुसार यह लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर है यानी देश की लगभग एक-तिहाई से ज्यादा भूमि पर्यावरण की गंभीर समस्याओं का शिकार है।

इस संस्था ने केवल गैर-जंगली इलाके की परती जमीन का ही हिसाब किया है, क्योंकि खराब वन क्षेत्र के बारे में भी कोई आंकड़े नहीं मिलते हैं। खारी और ऊसर जमीन लगभग 71.7 लाख हेक्टेयर है, जिसे देश की भूमि-उपयोग संबंधी सांख्यिकी में ‘बंजर और कृषि के अयोग्य’ जमीन की श्रेणी में रखा गया है। इस संस्था के अनुसार लगातार उठने वाली आंधियों के कारण हो रहा भूक्षरण, रेतीले टीलों का जगह बदलना, समुद्र के तटवर्ती रेतीले टीले और बहुत ज्यादा नमी वाले पश्चिम राजस्थान के 11, गुजरात और हरियाणा के तीन-तीन जिलों तक सीमित है। आंधी से खराब होने वाला भूभाग एक करोड़ 29 लाख हेक्टेयर तक है। इसमें भी समुद्र तटवर्ती रेत के टीले शामिल नहीं हैं क्योंकि उनका भी प्रामाणिक आकंड़ा उपलब्ध नहीं है। फिर भी अंदाज है कि कोई 10 से 20 लाख हेक्टेयर के बीच है। पानी के कारण भूक्षरण वाला इलाका, जैसे किनारों का कटना, बीहड़, पानी का जमाव, नदी के किनारे वाली जमीन, दर्रे, झूम खेती आदि 7.36 करोड़ हेक्टेयर हैं। खेती वाली जमीन जिसे भूक्षरण का खतरा है 4.15 करोड़ हेक्टेयर है, परंतु राष्ट्रीय कृषि आयोग के 1976 के आंकड़ों के अनुसार यह 7 करोड़ हेक्टेयर होगी।

इस संस्था के गैर-वन क्षेत्र के बंजर भाग में खराब जंगली जमीन को भी जोड़ना होगा। वन शोध संस्थान का कहना है कि अवर्गीकृत जंगलों की खराब वन भूमि 1.76 करोड़ हेक्टेयर ही है। पर्यावरण विभाग का मत है कि जो 7.5 करोड़ हेक्टेयर वर्गीकृत जंगल बताया जाता है उसमें से आधे में ही पर्याप्त पेड़ हैं। इस प्रकार खराब वनभूमि के अनुमान में 1.76 करोड़ से 3.75 करोड़ हेक्टेयर तक का फर्क है और कुल परती जमीन के अंदाज में भी 11.1 करोड़ से 13.1 करोड़ हेक्टेयर तक का फर्क आता है।

ऑपरेशन रिसर्च ग्रुप नामक एक संस्था द्वारा गुजरात के भूमि-उपयोग संबंधी एक ताजा अध्ययन का पता चलता है कि भूक्षरण की समस्या कितनी उग्र होती जा रही है। खेती योग्य परती जमीन 7.6 लाख हेक्टेयर (सर्वेक्षित पूरी जमीन का 4.21 प्रतिशत) से बढ़कर 20 लाख हेक्टेयर (सर्वेक्षित पूरी जमीन का 10.65 प्रतिशत) हो गई है। देश के दूसरे हिस्सों में खेती योग्य परती जमीन का रकबा घटा है, क्योंकि इन दिनों ज्यादा से ज्यादा सीमांत भूमि में खेती की जानी लगी है। यह भी संभव है कि कुछ बंजर और खेती के अयोग्य जमीन भी, हाल के वर्षों में इस श्रेणी में आ गई हो।

लेकिन कुछ चुने हुए ताल्लुकों में किए गए विस्तृत सर्वेक्षण में एक अजीब बात देखने में आई। छोटे जोतदारों की गरीबी, मिट्टी का क्षरण और सिंचित इलाकों में उचित प्रबंध होने के कारण पानी का जमाव-इन तीन कारणों से जमीन अनजुती रह जाती है। 1976-77 में इस तरह परती छूटी जमीन में से 33 प्रतिशत के अनजुते रहने का मुख्य कारण भूक्षरण ही रहा है।

कच्छ में, पूर्वी सीमावर्ती पहाड़ो में और अधसूखे मैदानी इलाकों में काफी जमीन पर हल न चलने का यही मुख्य कारण है। 1960-61 में गुजरात में परती जमीन ज्यादा थी लेकिन भूक्षरण की समस्या के कारण बंजर हुई जमीन तो बस 5 प्रतिशत ही थी। लेकिन पिछले 20 वर्षों के भीतर गुजरात के किसानों के सामने भूक्षरण की समस्या एकदम तीव्र हो गई है।

देश की एक तिहाई भूमि पर मंडरा रहे इस भयानक खतरे की ओर पहली बार सरकारी तौर पर ध्यान दिया गया सन् 1984 में। राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनते ही राष्ट्र के नाम अपने पहले संदेश में परती जमीन का बहुत चिंता के साथ उल्लेख किया और इसे सुधारने के लिए ‘राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड’ बनाने की घोषणा की। लक्ष्य रखा गया हर वर्ष 50 लाख हेक्टेयर परती जमीन को ठीक करने का। हाथ में सीधे लिए गए इस काम के अलावा देश में इस मामले की गंभीरता समझना, लोगों, संस्थानों को इस काम के लिए प्रेरित करना भी बोर्ड की जिम्मेदारी है। प्रचार-प्रसार जो जितना संभव है उतना हुआ ही है लेकिन परती जमीन को सुधारने की महत्वाकांक्षी योजना अभी एक परिकथा ही बना हुई है।

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