पर्वतारोहण, ट्रैकिंग और साहसिक खेलकूद


मनाली जैसी जगहों में मैदानी इलाकों के लोगों द्वारा चलाए जा रहे बड़े होटल कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं। इनसे गंदगी फैलती है, पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है और प्राप्त आमदनी भी स्थानीय लोगों तक नहीं पहुँच पाती। दूसरी ओर स्थानीय लोगों के घरों में नाश्ता, सादा भोजन और आवास की सुविधा के साथ पर्यटकों को स्थानीय परिवारों के साथ रहने का जो मौका मिलता है। उससे उन्हें इन लोगों को समझने और उनकी संस्कृति को जानने का अवसर भी मिलता है।

हिमालय के साथ मेरा लगाव 1958 से है जब मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश किया था और भारत दर्शन के लिये दार्जिलिंग गया था। वहाँ एवरेस्ट के हीरो तेनजिंग के साथ मुलाकात बड़ा यादगार अनुभव था और इसी से पहाड़ों के प्रति मेरे लगाव की शुरुआत हुई। पहाड़ों के बारे में मुझे जो भी पुस्तक मिलती मैं उसे पढ़ जाता था। मेरी नियुक्ति पंजाब में हुई थी और समूचा कांगड़ा और तिब्बत सीमा से लगे लाहौल स्पीती उस समय के पंजाब के ही हिस्से हुआ करते थे। मैं भारत का पहला आईएएस अधिकारी हूँ जिसने दार्जिलिंग के हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान में प्रशिक्षण लेने का अनुरोध किया और तेनजिंग से प्रशिक्षण लिया। बाद में मैंने मनाली में पश्चिमी हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना में भी मदद दी। मेरे मन में यह बात बड़ी साफ है कि प्रशासकों को पर्वतारोहण और इसी तरह के साहसिक खेलकूद के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि देश को सीमावर्ती इलाकों के ऊँचे पहाड़ी जिलों के लिये निष्ठावान अधिकारी प्राप्त हो सकें।

1961 में मैं अपने अनुरोध पर लाहौल स्पीति का उपायुक्त बना। चीन से लड़ाई के समय मैं वहीं तैनात था। उस समय कुंआरे और युवा अधिकारी के रूप में मैंने 10 हजार से 20 हजार फुट तक की ऊँचाई पर स्थित घाटियों में पर्वतारोहण और ट्रैकिंग का आनंददायक अनुभव हासिल किया। मैंने लाहौल स्पीति में यात्राओं के बारे में अपनी पुस्तक हिमालयन वंडरलैंड में लिखा है: ‘‘जो मेरे लिये कभी मौज मस्ती का काम हुआ करता था वह अब मेरी ड्यूटी का हिस्सा था।’’ अपने समूचे सेवाकाल के दौरान मैंने पहाड़ों में अपनी दिलचस्पी बनाए रखी और लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक व्यापक रूप से भ्रमण किया। तेनजिंग, हिलेरी और अन्य महान पर्वतारोहियों से अपनी दोस्ती को मैं बड़ा महत्व देता हूँ।

1953 में जब एवरेस्ट पर पहली बार मनुष्य के कदम पड़े तो पंडित जवाहरलाल नेहरू के मन में दार्जिलिंग में हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना का विचार आया। उन्होंने तेनजिंग को पर्वतारोहण प्रशिक्षण कार्यक्रम का निदेशक बनाया और भारतीय नौजवानों को ऊँचे दर्जे के पर्वतारोहण के लिये प्रेरित किया। पुराने जमाने में सदियों से भारत के लोग तीर्थयात्रा और तपस्या के मक्सद से हिमालय की यात्राएँ करते रहे थे। लेकिन स्वतंत्र भारत में खेलकूद के रूप में पर्वतारोहण को बढ़ावा देने की आवश्यकता थी ताकि नौजवानों में जोखिम उठाने और साहसिक कार्य करने की इच्छा उत्पन्न हो।

इसी से अच्छे प्रशासक भी पैदा करने की उम्मीद की जा सकती थी। दार्जिलिंग के हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान ने हम तमाम प्रसिद्ध पर्वतारोहियों के लिये पहाड़ों पर चढ़ने की नर्सरी का कार्य किया। आमतौर पर ये पर्वतारोही सशस्त्र सेना के लोग होते थे। इस तरह भारतीयों का दुनिया की ऊँची चोटियों पर चढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया। 1965 में नौ पर्वतारोहियों को एवरेस्ट पर चढ़ने में सफलता मिली। अन्य प्रमुख चोटियों जैसे अन्नपूर्णा, नंदा देवी, त्रिशूल आदि पर भी भारत के नौजवान पर्वतारोही तेजी से चढ़ाई करते जा रहे थे। इन उपलब्धियों से भारत के नौजवानों को बड़ी प्रेरणा मिली और प्रोत्साहन भी मिला।

हिमालयन क्लब की स्थापना अंग्रेजों ने 1928 में की थी। इसके वर्तमान अध्यक्ष के रूप में कार्य करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। पिछले 74 साल से यह क्लब ऊँचे पहाड़ों पर साहसिक खेलकूद को बढ़ावा देने के साथ-साथ इस क्षेत्र के जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों, भूगर्भ विज्ञान और संस्कृति के अध्ययन को भी बढ़ावा दे रहा है। 1957 के आस-पास पं. नेहरू की प्रेरणा और कुछ प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों के प्रयासों से भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन का गठन किया गया। इसे भारत सरकार से खूब सहायता मिली और यह पहाड़ों की ऊँची चोटियों पर चढ़ने के भारतीय प्रयासों को बढ़ावा देने वाले संगठन के साथ-साथ नौजवान भारतीय पर्वतारोहियों को प्रशिक्षण देने वाली मुख्य संस्था के रूप में उभरकर सामने आया। पिछले दशकों में इसने देश भर में पर्वतारोहण और ट्रैकिंग के प्रसार के लिये जोरदार कार्य किया है।

कई प्रशिक्षण संस्थान खोले गए हैं और कम से कम 5 तो इसी वक्त कार्य कर रहे हैं। देशभर में पर्वतारोहण और शिलारोहण क्लब खुले और नौजवानों ने अभियानों पर जाना प्रारम्भ किया। शीघ्र ही एक भारतीय महिला भी एवरेस्ट पर चढ़ने में सफल रही। भारत की नौजवान महिलाओं ने विभिन्न पर्वत शिखरों पर चढ़ने और पहाड़ों पर अन्य साहसिक अभियानों में शामिल होकर शानदार उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। भारत सरकार पर्वतारोहण संस्थानों के माध्यम से युवाओं के प्रशिक्षण के कार्य में बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता प्रदान करती है। भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन भी हमारे पर्वतारोहियों के प्रशिक्षण और उनके कौशल में सुधार के कार्य पर बहुत बड़ी धनराशि खर्च करता है।

दुर्भाग्य से भारत की जनसंख्या जो आजादी के समय 30 करोड़ थी अब बढ़कर एक अरब हो गई है। हमारे शहरों का भी जरूरत से ज्यादा विस्तार हुआ है। नतीजा यह हुआ है कि हमारी आबादी को बड़ी कठिन स्थितियों में जीवन-यापन करना पड़ रहा है। ऐसे में अब यह और भी जरूरी हो गया है कि मुंबई और कोलकाता जैसे बड़े नगरों के नौजवानों को गर्मियों के दौरान साहसिक अभियानों और आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिये हिमालय के ठंडे स्थानों को भेजने की व्यवस्था की जाए। इधर पर्वतारोहण करने वालों और ट्रैकिंग करने वालों की संख्या भी बड़ी तेजी से बढ़ रही है।

मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि पिछले 50 वर्षों में बढ़ती आबादी की वजह से हमारे पहाड़ों, नदियों, वनों और वन्य जीवों पर अनावश्यक बोझ पड़ा है। हमारी ये तमाम धरोहरें समाप्त होती जा रही हैं। मुझे याद है कि मैंने 1961 में सिक्किम में घने जंगलों से ढके पहाड़ों की चढ़ाई की थी। बाद में जब मैं वहाँ गया तो मुझे नंगे पहाड़ों के अलावा और कुछ नहीं मिला। अपने 40 वर्षों के प्रशासनिक जीवन के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि हिमाचल प्रदेश से अरुणाचल प्रदेश तक जंगल कम हुए हैं और मध्य प्रदेश में शिवपुरी के जंगलों से तो बाघ पूरी तरह समाप्त ही हो गए हैं। वनों के नष्ट होने से हमारी नदियों पर भी बुरा असर पड़ा है।

मैं अपने नौजवानों को आगाह करना चाहता हूँ कि इस नई शताब्दी में दूसरे देशों के साथ और देश के भीतर ही पानी को लेकर लड़ाइयाँ लड़ी जाएँगी। लगभग प्रत्येक बड़े शहर में पानी का भारी संकट है और लोगों को इसकी न्यूनतम मात्रा से गुजारा करना पड़ रहा है। जंगलों के कम होने से नदियाँ सूखती जा रही हैं और नियंत्रणहीन कारखनों से निकलने वाले कचरे से प्रदूषित होती जा रही हैं। दिल्ली में यमुना गंदे नाले में बदल चुकी है और आगरा में ताजमहल तक नदी की हालत यही है। इसलिये जब हम आराम और स्वास्थ्य लाभ के लिये हिमालय के पहाड़ों पर जाएँ तो हमें उनकी देखभाल और सुरक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए। पहाड़ों के जंगल बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं और मिट्टी का कटाव रोकने का एकमात्र तरीका है।

हिमालय की उपेक्षा से इसके कुछ इलाके भी पहाड़ी रेगिस्तान में बदलते जा रहे हैं। भावी पीढ़ियों के लिये हमें इस पर रोक लगानी होगी। मैंने मसूरी और कुछ अन्य स्थानों पर पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखने के लिये वृक्षारोपण का काम देखा है। इस तरह के वृक्षारोपण कार्य को समूचे भारत में एक आन्दोलन के रूप में चलाया जाना चाहिए। हमारे देश में पहाड़ और नदियाँ पवित्र माने जाते हैं और इन्हें आदर व सम्मान के साथ ही देखा जाना चाहिए। 1950 और 1960 के दशकों में हमने पर्वत शिखरों पर जीत का गौरव हासिल करने के उद्देश्य से यूरोप के देशों की तरह बड़े-बड़े अभियान दल भेजना शुरू किया। लेकिन हमारी सभ्यता पहाड़ों पर चढ़ने को विजय की तरह नहीं लेती क्योंकि हम पर्वतों में ईश्वर का पवित्र आवास मानते हैं। हम तो वहाँ केवल श्रद्धा-सुमन चढ़ाने ही जाते हैं।

अब तो यूरोप के लोग भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक हो गए हैं। वे अब दो, चार या छह के छोटे समूहों में ही यात्रा करना पसंद करते हैं। पर्वतारोहण के समय वे इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि पेड़ों और पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान न पहुँचे और पहाड़ों पर चढ़ते समय जो कूड़ा-कचरा पैदा हो उसे नष्ट करने के लिये साथ वापस लाया जाए। हमारे नौजवानों को भी नागरिकता का यह बुनियादी सबक याद रखना चाहिए।

मैंने हिमालय और यूरोप के पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक भ्रमण किया है। मैंने पाया है कि आॅस्ट्रिया और स्काॅटलैंड जैसे देशों में पहाड़ों और पर्यावरण की सुंदरता स्थानीय लोगों की आमदनी का बड़ा स्रोत है। बड़ी संख्या में पर्यटक पहाड़ों पर चढ़ने, ट्रैकिंग करने और रमणीक दृश्यों का आनंद उठाने जाते हैं। इन देशों में पर्यटकों के खाने-पीने और ठहरने की बड़ी अच्छी व्यवस्था है। पहाड़ों पर रहने वालों को सरकार की ओर से वित्तीय सहायता और अन्य सहायता दी जाती है ताकि वे अपने घरों में पर्यटकों को ठहराने के लिये स्नानागार जैसे विभिन्न सुविधाओं से युक्त कमरे उपलब्ध करा सकें।

गर्मियों के मौसम में ये लोग पर्यटकों का स्वागत करते हैं और उन्हें आवास के साथ-साथ खाने-पीने की सुविधा भी उपलब्ध कराते हैं। इस तरह वे अच्छी खासी आमदनी भी कमा लेते हैं। कड़ाके की सर्दियों में जब पहाड़ों पर बर्फ गिरने के कारण वहाँ आना जाना सम्भव नहीं हो पाता तो ये लोग अपने घर का भरपूर उपयोग करते हैं। और उनके पास खाने-पीने के लिये पर्याप्त धन भी होता है। मेरा ख्याल है कि हमें भी हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश जैसे अपने पर्वतीय राज्यों में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये इसी तरह की नीति अपनानी चाहिए। मनाली जैसी जगहों पर मैदानी इलाकों के लोगों के बड़े होटल अच्छे नहीं हैं। इनसे पर्यावरण प्रदूषित और नष्ट होता है। मनाली तो आज बहुत बुरी हालत में पहुँच चुका है और पर्यटन से जो आमदनी होती है वह भी स्थानीय लोगों को प्राप्त नहीं होती।

दूसरी ओर स्थानीय लोगों के घरों में पर्यटकों को अगर भोजन और आवास की सुविधा उपलब्ध हो जाए तो पर्यटक खुशी-खुशी स्थानीय परिवारों के साथ ठहरना पसंद करेंगे। इससे एक तो पर्यटक स्थानीय संस्कृति को समझना सीखेंगे और दूसरे, पर्यटन से जो आमदनी होगी वह भी स्थानीय लोगों को ही मिलेगी। मुझे इस बात में जरा भी सन्देह नहीं कि पहाड़ों के लोगों के लिये आमदनी बढ़ाने का एक प्रमुख जरिया पारिस्थितिक पर्यटन है जिसमें बड़े-बड़े होटल खोलने की बजाय पर्यटकों के लिये स्थानीय लोगों के घरों में ही भोजन और आवास की विकेन्द्रित व्यवस्था की जाती है।

इसलिये मैं आशा करता हूँ कि पर्वतीय राज्यों की सरकारें अपने पर्यावरण की सुंदरता की रक्षा का ध्यान रखेंगी, बड़े-बड़े उद्योगों या होटलों से होने वाला प्रदूषण नहीं होने देंगी और स्थानीय लोगों को आसान ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराकर उन्हें अपने घरों में आवास सुविधाओं में सुधार के लिये प्रेरित करेंगी ताकि वे गर्मियों में पर्यटकों को आवास सुविधा उपलब्ध कराने के साथ-साथ सर्दियों में खुद भी अपने मकान में बेहतर तरीके से रह सकें मनाली जैसे स्थानों में आवास और भोजन की सुविधा से युक्त घरों की सूची तैयार की जानी चाहिए, उनकी देखरेख होनी चाहिए, उनपर उचित नियन्त्रण रखा जाना चाहिए और यूरोप की तरह ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे पर्यटकों को इनकी जानकारी मिलें।

इससे पर्यटकों को अच्छे और सस्ते आवास के बारे में जानकारी दी जा सकेगी और मकान मालिकों को भी इससे अच्छी आमदनी हो जाएगी। निस्संदेह इससे कुछ अन्य सेवा उद्योगों, जैसे- परिवहन, खान-पान, शिष्टाचार वाले पर्यटक गाइड आदि को बढ़ावा मिलेगा। इसलिये यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि पर्वतीय राज्यों की सरकारें पर्यावरण, वनों और नदियों को होने वाले किसी भी नुकसान को रोकने के लिये सुविचारित कानून बनाएँ।

छह सल तक (1993-99) भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन के अध्यक्ष पद पर कार्य करते हुए मैंने भारतीय पर्वतारोहण अभियान दलों का आकार कम रखने और पर्यावरण संरक्षण के बारे में जागरुकता पैदा करने की बहुत कोशिश की। हमारी सशस्त्र सेनाएं और पुलिस अब भी कभी कभार बड़े भारी भरकम और प्रतिष्ठित पर्वतारोहण अभियान दल भेजती है जो कोई अच्छी बात नहीं है। हमने इन अभियानों को पर्यावरण संरक्षण पर केन्द्रित रखने की भरसक कोशिश की। हमारी सशस्त्र सेनाएं हिमालय के सीमावर्ती इलाकों में तैनात रहती हैं, जिस कारण पहाड़ों के दुर्लभ वनाच्छादित क्षेत्र पर जबरदस्त दबाव पड़ रहा है।

हम सब पर इसकी हिफाजत की जिम्मेदारी है। यह साल इको-टूरिज्म और पर्वत वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है, इसलिये मैं इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर जागरुकता और जोरदार अभियान की आवश्यकता पर जोर देना चाहूँगा ताकि हिमालय और उससे निकलने वाली महान नदियों की रक्षा हो और मैदानों में भी हमारा जीवन सुचारू रूप से चलता रहे।

(श्री एम.एस. गिल पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त हैं और भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन के अध्यक्ष रह चुके हैं। इस समय श्री गिल ‘हिमालयन क्लब’ के अध्यक्ष हैं।)
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