पर्यावरण असन्तुलन-एक चुनौती

प्राकृतिक संसाधनों एवं पर्यावरण का स्थायी प्रबंध सुनिश्चित करना आज विश्व के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती है। लेखक के विचार में जनसंख्या नियन्त्रण, पर्यावरण सन्तुलन जन-सहभागिता, लालची प्रवृत्ति का त्याग, उपयुक्त विकास नीति कुछ प्रमुख उपाय हैं जिनके द्वारा यह उद्देश्य हासिल किया जा सकता है।

वर्तमान समय में भारत सहित विश्व-स्तर पर जो विभिन्न समस्याएँ चुनौतियों के रूप में परिलक्षित हो रही हैं उनमें पर्यावरणीय संकट प्रमुख है। अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे बढ़ती चिन्ता का विषय इसलिए हैं क्योंकि इनसे पारिस्थितिकी का आधार बदल रहा है, जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों तथा पर्यावरण का स्थायी प्रबंध सुनिश्चित करना आज की प्रमुख चुनौती है।

समझा जाता है कि प्राचीनकाल में भी पर्यावरण असन्तुलन के कारण ईराक, पेरू व सिंधु घाटी सभ्यताओं का अंत हुआ। हमारा प्राचीन मानव समाज प्रारम्भ से ही पर्यावरण के प्रति जागरुक था। वैदिक संस्कृति पर्यावरण संरक्षण का पर्याय बनी रही। प्रकृति के विभिन्न अंगों-नदी, पर्वत, वृक्ष, जीव-जन्तु, भूमि आदि प्राकृतिक तत्वों की पूजा-अर्चना इसका प्रमाण है। पुराणों में ‘नमो वृक्षेभ्यः नमो केशेभ्यः’ इन मान्यताओं, परम्पराओं के चलते पर्यावरण स्वतः सुरक्षित था।

विश्व में एक प्राकृतिक सन्तुलन होता है जिसके अंग हैं मनुष्य एवं प्राणी, वनस्पति, जीव, धरती, जल एवं वातावरण। जब किसी भी अंग में प्राकृतिक या अप्राकृतिक कारणों से परिवर्तन होता है तो असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

आज की सभ्यता प्रकृति के विनाश पर आधारित है। मानव की घोर भौतिकवादी एवं लालची प्रवृत्ति, तीव्र औद्योगीकरण, प्राकृतिक संसाधनों का क्रूर दोहन, अल्प समय में अधिकाधिक उत्पादन की होड़, उपभोक्तावादी संस्कृति-इन सब कारणों से प्रकृति की मूल संरचना विकृत हो गई है। निश्चय ही हम दिनोंदिन फैलती-फूलती एक ऐसी जटिल और उलझी दुनिया की ओर अग्रसर हो रहे हैं जहाँ उन्नति की बेसब्र दौड़ में प्रकृति के बहुमूल्य साधनों का निर्ममता से अपव्यय हो रहा है। पर्यावरण संकट चौतरफा व्याप्त है। विश्व के सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा ऊर्जा संसाधनों के तीव्र उपयोग से ऊर्जा भंडार खाली होते जा रहे हैं। जनसंख्या और खाद्यान्न असन्तुलन बढ़ रहा है, भूख और अकाल की विभिषिकाएँ दुःस्वप्न की तरह मंडरा रही हैं। स्थिति और दयनीय हो रही है क्योंकि उन्नति की व्यसनी समाज व्यवस्थाएँ हर कीमत पर प्रगति चाहती हैं।

हमने अपने आर्थिक विकास की व्यूहरचना और तकनीक पश्चिम के विकसित देशों से प्राप्त की। उनकी विकासनीति कमजोर राष्ट्रों के शोषण पर आधारित है। उनके विकास का आधार प्रकृति को एक वस्तु मानकर मानव की भोगलिप्सा के लिए उसका शोषण रहा है जबकि भारतीय दृष्टिकोण प्रकृति के न्यूनतम दोहन पर आधारित है। पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मनुष्य के इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति की प्रत्येक वस्तु मात्र उसी के उपयोग के लिए है। प्रकृति में सन्तुलन तभी तक विद्यमान रहता है जब सीमित मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग किया जाए। प्रकृति इस क्षति की पूर्ति स्वयं कर लेती है, परन्तु अनियन्त्रित शोषण से प्रकृति और पर्यावरण में समरसता समाप्त हो जाती है। प्रकृति और हमारी विकास मान्यताओं में विसंगति है। प्रकृति की उदारता, दानशीलता व प्रचुरता को मनुष्य ने अपना नैसर्गिक अधिकार समझा। मानव की इसी शोषणवादी संकीर्ण मानसिकता से पर्यावरण असन्तुलन की स्थिति का भयावह स्वरूप निर्मित हुआ।

प्रकृति के साथ सदियों से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान के दुष्परिणाम- बाढ़, भूकम्प, जलवायु में परिवर्तन, सूखा, पृथ्वी के तापक्रम में वृद्धि, जीवनरक्षक आजोन परत में छिद्र, अम्लीय वर्षा, बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, लुप्त होते पेड़-पौधे व जीव प्रजातियाँ, सर्वत्र गहराती गंदगी, प्रदूषित जल, पारिस्थितिकी क्षमता का ह्रास आदि अनेक रूपों में परिलक्षित हो रहे हैं।

यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति से प्राप्त यान्त्रिक शक्ति से मानव चिन्तन के दृष्टिकोण में दो बुनियादी परिवर्तन हुए- प्रथम, प्रकृति एक वस्तु है। द्वितीय, समाज केवल मनुष्यों का है। इस अवधारणा से मानव समाज को प्रकृति पर एकाधिकार प्राप्त हो गया। आर्थिक विकास के सम्बन्ध में हमारी सोच संकुचित एवं एकांतिक है। हमने आर्थिक वृद्धि को ही आर्थिक विकास का पर्याय मान लिया। आर्थिक वृद्धि भौतिक उत्पादन, राष्ट्रीय व प्रति व्यक्ति आय को वृद्धि तक सीमित है, जबकि आर्थिक विकास में आर्थिक वृद्धि के साथ प्रकृति से सन्तुलन बनाए रखने की समझ, संसाधनों की क्षतिपूर्ति की सोच आदि अनेक पहलू सम्मिलित हैं। यदि आर्थिक विकास के दौर में हमारी सोच आर्थिक वृद्धि तक सीमित न रही होती तो पर्यावरण असन्तुलन की समस्या उत्पन्न नहीं होती।

प्रकृति के गर्भ में छिपे अनमोल खजाने का तकनीकी माध्यम से शोषण सम्भव जानकर अधिक सुखमय जीवन की आकांक्षा से प्राकृतिक संसाधनों की हत्या होने लगी। नई प्रौद्योगिकी एवं आधुनिक औद्योगीकरण के कारण जीवन-स्तर में बदलाव से दैनिक आवश्यकताएँ निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सुख की असीम चाह की संतुष्टि का भार अंततः प्रकृति को ही वहन करना पड़ता है।

हमारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य जल, वायु, वस्तुओं की शुद्धता और वातावरण की स्वच्छता पर निर्भर है लेकिन तीव्र औद्योगीकरण के कारण इनमें जहर घुलने की प्रक्रिया जारी है। आज प्राणवायु कई कारणों से प्रदूषित है जिनमें विशालकाय उद्योगों से विसर्जित जहरीली गैसें, वाहनों का धुँआ, वातानुकूलित यन्त्रों की गैस, कूड़ा-कर्कट व ईंधन का धुआँ मुख्य हैं परिणामस्वरूप आँखों में जलन, फेफड़ों में धूल, रक्त-कैंसर, दमा जैसी घातक बीमारियाँ सामान्य हो गई हैं। उद्योगों द्वारा उत्सर्जित अवशिष्ट पदार्थ जल स्रोतों में मिलने से पेयजल प्रदूषित हो रहा है परिणामस्वरूप दूषित जल से विभिन्न बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं। विकासशील देशों में प्रतिवर्ष 2.50 करोड़ व्यक्ति प्रदूषित जल पीने से रोगग्रस्त होते हैं। रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशक दवाईयों के बढ़ते प्रयोग, कल-कारखानों का कचरा, भूमि में आसानी से विघटित न होने वाले पाॅलीथीन, प्लास्टिक के टुकड़े, काँच एवं अन्य विषैले तत्वों से भूमि प्रदूषित हो रही है जिससे भूमि की उर्वराशक्ति क्षीण हो रही है। भोपाल में जहरीली गैस-रिसाव से हजारों व्यक्ति अकस्मात काल-कलवित हो गए। गैस के दुष्प्रभाव विकलांगता एवं अन्य रूपों में भारी पीढ़ियों में भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। तीव्र गति से कटते जंगलों से गहन वन क्षेत्र भी अब वृक्षविहीन हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप वर्षा में कमी, भूमि का क्षरण व बाढ़ों में वृद्धि हो रही है। वृक्षों द्वारा कार्बन-डाइ-ऑक्साईड की शोधन क्षमता कम होने से प्राणवायु की मात्रा में कमी आई है। बड़े-बड़े बाँध निर्माणों से भी वन क्षेत्र कम हुआ है। हिमालय भी अपना अप्रतिम सौंदर्य खोता जा रहा है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण, जो बम परीक्षणों की परिणति है, जैविक दृष्टि से अत्यन्त हानिकारक है। रूस की चेरनोबिल दुर्घटना के दुष्परिणामों से हम सब अवगत हैं। परमाणु बिजलीघरों के विकिरण के प्रभाव से किसी भी समय जनहानि हो सकती है। स्वातंत्रयोत्तर काल में जनसंख्या विस्फोट अधिक तीव्र गति से हुआ और आज जनसंख्या एक अरब से अधिक हो चुकी है। जनसंख्या विस्फोट ने भी पर्यावरणीय संकट बढ़ाया है क्योंकि अधिक व्यक्ति, अधिक उत्पादन, अधिक मशीनें, प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक दबाव, फलतः पर्यावरण असन्तुलन में वृद्धि।

संरक्षण के उपाय


एक नहीं अनेक कारक पर्यावरण को असन्तुलित करने के लिए उत्तरदायी हैं। वास्तव में पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध हमारी अर्थनीति की व्यूहरचना से है। जैसे यदि हमें अधिक कागज चाहिए तो यूकेलिप्टस उगाना होगा, भले ही वह पर्यावरण की दृष्टि से हानिप्रद हो। आर्थिक विकास की प्रक्रिया को उन्नति के साथ-साथ पर्यावरण के आधार पर नियोजित किया जाना चाहिए। प्रकृति के दमन की नहीं, सन्तुलित दोहन की नीति अपनाई जानी चाहिए। आज हमें अपने ही तरीकों व प्रयासों से पर्यावरण की समस्याओं को हल करने की आवश्यकता है। बड़े-बड़े बाँधों के स्थान पर लघु सिंचाई परियोजनाएँ, रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर कम्पोस्ट खाद, विदेशी प्रौद्योगिकी के स्थान पर स्वदेशी ग्रामीण प्रौद्योगिकी का उपयोग लाभकारी सिद्ध होगा। प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर प्रभावी नियन्त्रण, बिना सिंचाई अथवा कम सिंचाई वाली फसलों व वृक्षों को बढ़ावा, विकेन्द्रित ऊर्जा नीति जिसमें मानवशक्ति, पशु शक्ति, बायो गैस, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल शक्ति एवं समुद्र की लहरों से ऊर्जा प्रमुख है- को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध, जलाऊ लकड़ी का कम उपयोग, विद्युत शवदाहगृहों का उपयेाग, मुक्त शौच के स्थान पर सुलभ शौचालयों का प्रयोग पर्यावरण प्रदूषण रोकने के कुछ सरल उपाय हैं। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की दृष्टि से पैदल चलना, साइकिल चलाना, सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करना हमारी आदत में शामिल होना चाहिए। वस्तुतः विकास वही है जिसमें हम प्रकृति की मूल सम्पदा को बचाते हुए अपना काम चलाएँ और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रकृति की अनमोल धरोहर को संजोकर रखें। भावी पीढ़ी की चिन्ता न करना उनके प्रति अन्याय है। हमें स्वीकार करना होगा कि यदि आर्थिक विकास प्रकृति की विविधता में एकता को ध्यान में रखकर किया जाए तो पर्यावरण असन्तुलित नहीं होगा।

राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय-स्तर पर विभिन्न सम्मेलनों, नियमों द्वारा पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अनेक प्रयास किए गए हैं। जून 1972 में स्टाकहोम में आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन, जून 1992 के रियो-डी-जिनेरो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण हेतु एजेंडा 21 की कार्ययोजना पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सार्थक पहल है। विकासशील देशों में भारत पहला देश है जिसने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्ययोजनाओं को मूर्त रूप देने का ठोस प्रयास किया है।

शासन द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिए गठित विभिन्न संस्थाओं राष्ट्रीय वानिकी और पारिस्थितिकी विकास बोर्ड, केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, पर्यावरणवाहिनी संस्थाएँ प्रमुख हैं। पर्यावरण संरक्षण में योगदान करने वालों को विभिन्न पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। ओजोन परत सुरक्षित रखने के लिए ‘ओजोन प्रकोष्ठ’ बनाया गया है।

जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियन्त्रण, पर्यावरण के प्रति जागरुकता, जन सहभागिता, लालची प्रवृत्ति का त्याग, उपयुक्त विकास नीति, त्यागवादी प्रवृत्ति कुछ प्रमुख उपाय हैं जिनके द्वारा पर्यावरण असन्तुलन रोका जा सकता है। वास्तव में व्यक्तिगत-स्तर पर प्रत्येक को पर्यावरण प्रदूषण रोकने के उपाय एवं प्रयत्न करने होंगे। हम सबका यह नैतिक दायित्व है कि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने लिए ही न जिए, दूसरों के लिए भी सोचे। पर्यावरण हमारे जीवन का सहारा हो, हमारे लालच का शिकार नहीं। पर्यावरण एक सांझी विरासत है, जिसे सुरक्षित रखना हम सबका कर्तव्य है।

(लेखक शास, स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बीना (म.प्र.) में अर्थशास्त्र के सहायक प्रध्यापक हैं।)

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