पर्यावरण बचाना हम सबकी ज़िम्मेदारी

21 Apr 2013
0 mins read
पर्यावरण सुरक्षा का मुद्दा एक गंभीर चुनौती बना हुआ है। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों में संभवत: यह सबसे मुश्किल लक्ष्य है क्योंकि यह मुद्दा इतना सरल नहीं है, जितना दिखता है। प्रदूषण एक ऐसी समस्या है जिससे कोई एक व्यक्ति या संस्था मुक्ति नहीं दिला सकती है, इसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है और इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका सरकार अदा कर सकती है। विकास की गति तेज होने के कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी अधिक होता है। उद्योगों तथा वाहनों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है, जिसके कारण भी प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण को सबसे बड़ा खतरा किसानों द्वारा पैदा किया जा रहा है। किसानों द्वारा खेतो में धान और गेहूं के डंठल जलाने से वायुमंडल में फैलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के कारण जितना नुकसान पर्यावरण को पहुंच रहा है वह अपूर्णीय क्षति है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि सरकार ने इसके लिए कोई अलग से कानून अब तक नहीं बनाया है बता रहे हैं संजय गुप्त।

देश के वैज्ञानिक सरकार को चेता रहे हैं, लेकिन वह चेतने से इंकार कर रही है। यदि दिल्ली में पत्तियां जलाने की भी मनाही है तो ऐसी ही मनाही ग्रामीण इलाकों में फ़सलों के अवशेष जलाने पर क्यों नहीं हो सकती? एक ही देश में पर्यावरण के मामले में दो तरीके नहीं हो सकते। यह ठीक नहीं कि उद्योगपतियों के लिए अलग मानक हैं और किसानों के लिए अलग। पर्यावरण बचाना अमीर-गरीब अथवा शहरी-ग्रामीण, सबकी ज़िम्मेदारी है। यह तो समझ आता है कि ग़रीबों-ग्रामीणों को पर्यावरण की हिफाज़त के एवज में कुछ आर्थिक सहायता दी जाए, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि उन्हें कानून के पालन में रियायत दी जाए। पर्यावरण रक्षा का सवाल अभी भी एक गंभीर चुनौती बना हुआ है। माना जा रहा है कि पर्यावरण को हो रहे नुकसान के चलते आबोहवा में जो बदलाव आएगा उससे मौसम जनित आपदाएं और बढ़ेगी। पेट्रोलियम पदार्थों पर बढ़ती निर्भरता और शहरी संस्कृति के प्रसार के कारण पर्यावरण के समक्ष उत्पन्न खतरे गंभीर होते चले जा रहे हैं और दूसरी ओर विश्व के देश हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में कटौती के तौर-तरीके और उसकी समय सीमा तय करने में नाकाम हैं। अभी हाल में स्वच्छ ऊर्जा पर चौथे मंत्री स्तरीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने जलवायु परिवर्तन को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई गंभीर पहल न होने को लेकर चिंता जताई। उनके मुताबिक इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान जो मुद्दे चर्चा का विषय बने थे उन्हें सुलझाने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। जहां विकसित देश हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार नहीं वहीं विकासशील देश इससे नाराज़ हैं कि पर्यावरण बचाने की ज़िम्मेदारी उन पर थोपने की कोशिश की जा रही है। अगर विकासशील देश आर्थिक विकास का हवाला देकर विकसित देशों को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं तो विकसित देश विकासशील देशों को यह समझाने में लगे हैं कि यदि वे उनके जैसे तौर-तरीकों से विकास करेंगे तो पर्यावरण को इतना अधिक नुकसान होगा कि हालात संभालना मुश्किल हो सकता है।

पता नहीं विकासशील और विकसित देशों में कब सहमति बनेगी, लेकिन यह स्पष्ट है कि सहमति के अभाव का एक बड़ा कारण इन देशों के लिए तय किए जा रहे अलग-अलग मानदंड हैं। उक्त सम्मेलन से एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि विकसित देशों की तरह विकासशील देश भी पर्यावरण रक्षा के मामले में अपनी ज़िम्मेदारी समझने के लिए तैयार नहीं। ऐसे विकासशील देशों में भारत भी शामिल है। इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो कि भारत सरकार ने पर्यावरण रक्षा के लिए अपने स्तर पर क्या ठोस कदम उठाए हैं? हमारे प्रधानमंत्री इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि भारत में मौसम में किस तरह अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव आने लगा है।

यह एक तथ्य है कि पिछले कुछ वर्षों में उत्तर भारत में गर्मी का प्रकोप भी बढ़ा है और सर्दियों में कोहरे की मार भी। पिछली सर्दियों में जब दिल्ली और आसपास कोहरा एवं धुंध छाई तो उसके पीछे एक कारण यह बताया गया कि यह पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धान की कटाई के बाद खेतों में आग लगा देने का दुष्परिणाम है। धान के अवशेषों से उत्पन्न धुआँ घने कोहरे में तब्दील हो गया और वह तब तक बना रहा जब तक सर्दियों की पहली बरसात नहीं हो गई। एक अध्ययन यह बताता है कि पंजाब-हरियाणा के खेतों से उठने वाला धुआं दिल्ली के वायुमंडल में छा जाता है। पंजाब-हरियाणा में फ़सलों के अवशेष जलाने के चलन ने तब से जोर पकड़ा है जब से किसानों ने थ्रेशर के बजाय आधुनिक मशीनों का उपयोग करना प्रारंभ किया। तमाम उपायों के बावजूद किसान फ़सलों के अवशेष जलाने की नई परंपरा का परित्याग नहीं कर रहे हैं। चिंताजनक यह है कि पंजाब-हरियाणा में धान के अवशेष की तरह से गेहूं के अवशेष भी जलाए जाने लगे हैं। धीरे-धीरे यही काम देश के अन्य हिस्सों के किसान भी करने लगे हैं। भारतीय किसान यह नहीं समझ पा रहे हैं कि फ़सलों के अवशेष जलाने से वायुमंडल के साथ-साथ खेतों की मिट्टी का भी नुकसान होता है। दुर्भाग्य से देश की राजनीति भी कुछ ऐसी है कि पर्यावरण बचाने के नाम पर अरबों रुपये की परियोजनाओं को तो ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है, लेकिन किसानों को इसके लिए प्रोत्साहित करने से इंकार किया जाता है कि वे फ़सलों के अवशेष न जलाएं।

खुद सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि वन एवं पर्यावरण विभाग की मंजूरी न मिल पाने के कारण दो लाख करोड़ की लागत वाली 37 बड़ी योजनाएं अटकी हुई हैं। इनमें कई तो सात-आठ वर्ष से लटकी पड़ी हैं और कुछ तो वे हैं जिन्हें केंद्र सरकार की प्राथमिकता वाली योजनाओं में गिना जाता है। बिजली, सड़क, बंदरगाह, सीमेंट की परियोजनाओं के अटके होने के साथ कई स्थानों पर खनन कार्य बाधित है। इतना ही नहीं जब-तब पर्यावरण की अनदेखी करने के आरोप में उद्योगपतियों पर भारी जुर्माना लगा दिया जाता है या फिर उनकी परियोजना को मिली पर्यावरण मंजूरी खारिज कर दी जाती है। हाल में वेदांता समूह की तमिलनाडु स्थित एक कंपनी पर सौ करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया है और अदानी समूह पर दो सौ करोड़ का जुर्माना लगाने की सिफारिश की गई है। इसके विपरीत हरियाणा में फसल अवशेष जलाने के खिलाफ कानून होने के बावजूद वहां यह काम बेरोक-टोक जारी है। जहां पूरे देश में प्रति वर्ष करीब 14 करोड़ टन कृषि अवशेष जलाया जाता है वहीं हरियाणा में करीब एक करोड़ टन गेहूं की जड़ें और 40 लाख टन धान के अवशेष जलाए जाते हैं।

देश में पर्यावरण की रक्षा के नाम पर बड़ी परियोजनाओं का विरोध करने वाले तो अनेक संगठन हैं, लेकिन ऐसा कोई संगठन-समूह नजर नहीं आता जो फसलों के अवशेष जलाने अथवा ईंधन के रूप में लकड़ियों के इस्तेमाल के खिलाफ आवाज़ उठाता हो। राजनीतिक दल भी इस पर कुछ कहना पसंद नहीं करते, क्योंकि किसान एक बड़ा वोट बैंक हैं। इसी बड़े वोट बैंक के कारण अमीर किसानों से टैक्स लेने से भी बचा जाता है। यह निराशाजनक है कि किसानों को यह अहसास कराने से जानबूझकर इंकार किया जा रहा है कि खेती के उनके तौर-तरीके हवा और मिट्टी दोनों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। यदि यह नुकसान बढ़ा तो अंतत: किसानों को ही नुकसान होगा, क्योंकि ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि तमाम खाद-पानी के बावजूद ज़मीन की उर्वरा शक्ति न बढ़े। पंजाब में तो ऐसा नजर भी आने लगा है। वहां के खेतों की मिट्टी को हो रहे नुकसान के कारण उपज में कमी आ रही है।

देश के वैज्ञानिक सरकार को चेता रहे हैं, लेकिन वह चेतने से इंकार कर रही है। यदि दिल्ली में पत्तियां जलाने की भी मनाही है तो ऐसी ही मनाही ग्रामीण इलाकों में फ़सलों के अवशेष जलाने पर क्यों नहीं हो सकती? एक ही देश में पर्यावरण के मामले में दो तरीके नहीं हो सकते। यह ठीक नहीं कि उद्योगपतियों के लिए अलग मानक हैं और किसानों के लिए अलग। पर्यावरण बचाना अमीर-गरीब अथवा शहरी-ग्रामीण, सबकी ज़िम्मेदारी है। यह तो समझ आता है कि ग़रीबों-ग्रामीणों को पर्यावरण की हिफाज़त के एवज में कुछ आर्थिक सहायता दी जाए, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि उन्हें कानून के पालन में रियायत दी जाए। इस सवाल का जवाब सामने आना चाहिए कि देश में उद्योगों, खनन और सड़क एवं बांध निर्माण के कारण होने वाले पर्यावरण नुकसान की जितनी चिंता की जाती है उतनी फ़सलों के अवशेष जलाने की क्यों नहीं?

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading