पर्यावरण बचाने के लिए बचाइए पानी

वैज्ञानिकों द्वारा अनेक शोध के बाद जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, उनसे साबित हो गया है कि प्राकृतिक वातावरण को बेहतर बनाए रखते हुए ही मानव जीवन का आनंद लिया जा सकता है। प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने का मानव जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस सर्वमान्य तथ्य का ज्ञान होने के बाद भी मानव जीवन में सुख-सुविधाओं के प्रति बढ़ते मोह ने नए-नए आविष्कारों को जन्म दिया। ऐसे आविष्कार प्रकृति एवं पर्यावरण के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। मनुष्य ने अपनी सुविधाओं के लिए जल, जंगल, जमीन, आकाश, पाताल हर तरह के मनमाने प्रयोग किए और प्रकृति द्वारा उपलब्ध साधनों का हद से अधिक दुरूपयोग किया। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को लगातार नुकसान पहुंचाता चला आ रहा है।

पर्यावरण शब्द सुनने में बड़ा ही सरल संकुचित अर्थ वाला लगता है, परंतु वास्तव में इसका अर्थ अत्यंत ही विस्तृत और व्यापक है। यह मानव ही नहीं अपितु समस्त जीवित प्राणियों पर व्यापक प्रभाव डालता है। पर्यावरण दो शब्दों ‘परि’ और ‘आवरण’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ऊपर का खोल या ढक्कन से है अर्थात पृथ्वी के ऊपर उपस्थित आवरण ही पर्यावरण है, परंतु व्यापक अर्थों में पृथ्वी तल पर उपस्थित समस्त जैव तथा अजैव घटक मिल कर संयुक्त रूप से पर्यावरण कहलाता है। इस व्यापक अर्थ में जैव घटक से तात्पर्य जहां समस्त जीवित वस्तुएं हैं, वहीं अजैव घटक से तात्पर्य वो निर्जीव वस्तुएं हैं, जो जीवित प्राणियों के लिए अत्यंत आवश्यक हैं और प्रकृति द्वारा नि:शुल्क मिले हुए हैं।

प्रकृति ने मानव को क्या नहीं दिया शुद्ध हवा, शुद्ध पानी तथा तमाम जीवन उपयोगी वस्तुएं, परंतु मानव ने अपनी लालची प्रवृत्ति के चलते इन वस्तुओं को प्रदूषित कर दिया। हवा प्रदूषित, जल प्रदूषित, ध्वनि प्रदूषित। यहां तक कि सभ्यता और संस्कृति तक को प्रदूषित कर दिया। सारा पर्यावरण मानव के चलते प्रदूषित हो गया।

गंभीरता से सोचने की जरूरत है जब आज यह हाल है, तो आने वाले 10-15 सालों में क्या होगा? लोग असमय बीमार होंगे, बच्चे बीमारियों के साथ पैदा होंगे। आनेवाली पीढ़ी को हम क्या देने जा रहे हैं? अभी भी वक्त है, हम पर्यावरण के प्रति जागरूक नहीं हुए, तो परिस्थिति नियंत्रण से पूरी तरह बाहर हो जाएगी।

भूमिगत जल का क्षरण : कारण, समस्या और निदान


भूमिगत जल स्तर का लगातार गिरना पेयजल संकट का पहला बड़ा कारण है। जल स्तर इसी प्रकार गिरता रहा, तो खेती का संकट विकराल रूप ले लेगा। भूमिगत जल स्तर के लगातार घटने का कारण भू-जल का दोहन और जागरूकता का अभाव है। पिछले कुछ वर्षों में किसानों ने धान एवं गन्ने की खेती को अधिक अपनाया है। खाद्य सुरक्षा गारंटी योजना भी धान की खेती को बढ़ाने का दबाव पैदा कर रही है। इस खेती में ज्यादा पानी चाहिए। खरीफ के मौसम में औसत वर्षा कम हो रही है। मॉनसून इस पूरे कृषि सत्र को बराबर पानी नहीं दे पा रहा है। ऐसे में ट्यूबवेल का इस्तेमाल हम ज्यादा कर रह हैं। लिहाजा ट्यूबवेल की 300-350 फीट की परिधि में पानी की कमी हो रही है। झारखंड में पहाड़ी क्षेत्र है। यहां की सतह कठोर और वातावरण शुष्क है, जिससे वर्षा जल एवं भूमि की ऊपरी सतह के जल तेजी से भाप बन कर उड़ जाते हैं।

नहीं चेते तो अंजाम गंभीर


वह दिन दूर नहीं, जब 200 फीट बोरिंग करने पर ही पानी मिलेगा। गिरते जल स्तर के आंकड़ों पर गौर करें, तो 10 साल बाद जल 200 फीट के नीचे चला जाएगा, जबकि 80 के दशक में 20-40 फीट पर ही पानी मिलता था। ऐसा माना जा रहा है कि 2025 तक दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई पानी को लेकर होगी। चीन के कृषि कार्य पर गौर करें, तो हम पाते हैं कि वहां 60 प्रतिशत खेती भूमिगत जल पर निर्भर है, लेकिन भारत में यह 80-85 प्रतिशत खेती की इस पर निर्भरता कायम है। ऐसे में किसानों के भी जागरूक करने की जरूरत है।

भूजल की गिरावट के कारण


1. वर्षा जल को रोकने के लिए सख्त कदम न उठाया जाना।
2. डीप बोरिंग पर रोक के लिए कोई ठोस कदम न उठाना।
3. पहाड़ी क्षेत्र में वर्षा जल को चेक डैम द्वारा न रोके जाने के कारण जल नदी-नालों में बह कर निकल जाता है।
4. जल स्तर 90 फीट से 250 फीट तथा कई स्थानों पर 300 फीट तक नीचे चला गया है।
5. हर साल लगभग 3-4 मीटर जल स्तर नीचे जा रहा है।
6. जल का अति दोहन होना भी एक ऐसा कारण है, जिसे आम जनता अज्ञानता में दोहरा रही है।
7. आए दिन नए-नए मिनरल वाटर प्लांट का बढ़ना भी भूमिगत जल स्तर को नीचे ले जा रहा है।
8. वाटर ट्रीटमेंट द्वारा दूषित या एक बार प्रयोग किए गए जल का पुन: इस्तेमाल में लाया जाना भी एक सुरक्षित विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
9. इस स्थिति से निबटने के उपाय।
10. वर्षा के जल का ज्यादा-से-ज्यादा प्रबंध।
11. सरकारी और सामुदायिक स्तर पर योजना बनाकर तालाब, कूप आदि का बड़ी संख्या में निर्माण।
12. सरकारी और गैर-सरकारी भवनों में भूजल भरण शॉकपिट का निर्माण।
13. नालियों के कच्चीकरण एवं पीसीसी सड़कों में जगह-जगह छेद करने की व्यवस्था, ताकि वर्षा का पानी धरती के अंदर समा सके।
14. सिंचाई के लिए टपका व फव्वारा विधि का इस्तेमाल।
15. अवैध भू-जल दोहन करने वालों पर अंकुश।

(लेखक साहिबगंज कॉलेज में भूगर्भ विभाग के प्राध्यापक हैं)

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