पर्यावरण के अधिकार की सीमाएं

पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पर्यावरण की सुरक्षा और इसके दूसरे पहलुओं के बीच समन्वय स्थापित करने पर जोर देते हैं। सतत विकास का सिद्धांत भी पर्यावरण और इसके प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की मांग करता है। इसलिए विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन का मुद्दा नीतिगत रूप से जरूरी हो जाता है।

विकास के नाम पर प्राकृतिक संपदा का दोहन अक्सर विवादों में रहता है। ‘वैश्विक पर्यावरण और आपदा प्रबंधन’ पर नयी दिल्ली में हुए अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया का भाषण इस दिशा में मार्गदर्शक हो सकता है। पेश है संपादित अंश। अलग-अलग समुदायों के लिए पर्यावरण सुरक्षा उसकी अपनी सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकताओं के साथ संतुलन की जटिल प्रक्रिया में निहित है। अन्य अधिकारों के साथ पर्यावरण अधिकार का मुद्दा मानव अधिकार के किस ढांचे में फिट बैठता है? अन्य अधिकारों, जैसे संपत्ति या जीवन के अधिकार के साथ इसके क्या द्वंद हैं, जिन्हें हल किया जाना चाहिए? और पर्यावरण सुरक्षा को कैसे सामान्य या संयुक्त अधिकार के जरिए आर्थिक विकास से जोड़ा जा सकता है? ये अहम सवाल हैं। भारतीय अदालतों ने इस मसले पर लोगों के हितों का संतुलन और समझौते को आधार बनाकर काम किया है। पर्यावरण और विकास के मसले पर अधिकारों का पालन करने की बजाय इसे मौजूदा मानकों और समुदायों की प्राथमिकताओं के मद्देनजर संतुलन और समानता के फ्रेमवर्क में समाहित किया जाता रहा है।

यहीं पर्यावरण अधिकार की सीमा का भी पता चल जाता है। यही वजह है कि हमारी अदालतों ने इस पर ध्यान दिया कि पर्यावरण संबंधी सभी मामलों में एक ही मानक तय नहीं किया जा सकता है। पर्यावरणीय अधिकार की परिभाषा तय करने में सबसे बड़ी समस्या है व्यापक स्तर पर नीति और संस्कृति के मानकों को पूरा करना। अधिकारों के सशक्त क्रियान्वयन के लिए इसका निर्धारण स्पष्ट होना चाहिए। जैसे, मौलिक पर्यावरणीय अधिकारों को कैसे परिभाषित किया जाये? किस प्रकार के पर्यावरण को बचाया जाना चाहिए? किस स्तर तक पर्यावरण में बदलाव की इजाजत होनी चाहिए? पर्यावरण की गुणवत्ता के मौजूदा संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों को देखकर ऐसा लगता है कि ‘पर्यावरण’ शब्द के कई अर्थ हैं। जैसे पारिस्थितिक संतुलन, स्वच्छ, अच्छा, व्यवहार्य आदि। आखिर इसे परिभाषित करने की प्रक्रिया इतनी कठिन क्यों है? इसका एक कारण है पर्यावरण सुरक्षा की गुणवत्ता और संख्यात्मक मानक के कानूनी पहलू तय नहीं है। दूसरा कारण है पर्यावरणीय परिभाषा पर एक राय नहीं होना।

आजीविका या पारिस्थितिकी संतुलन की रक्षा करने के कठिन वैधानिक फैसले दांव पर लगे हैं? ऐसे सवालों में अच्छे जीवन की विभिन्न अवधारणाएं अंतर्निहित है। इसमें शामिल है प्रकृति के बारे में नैतिक विकल्प की बात। जहां कभी भी इससे संबंधित लिखित परिभाषा मौजूद है, वहां भी नैतिक विकल्प इसके आकलन पर निर्भर करता है। सक्षम संस्थाएं, जिसमें अदालतें भी शामिल हैं, प्रतिस्पर्धी दावों को सुलझाने में फिर भी शामिल होंगी। तब इस संबंध में कम जानकारी और वैज्ञानिक अनिश्चितता के मद्देनजर कौन सा मानक प्रयोग में लाना चाहिए? ऐसे में एक नियामक संस्था की भी जरूरत है। अदालतें सक्रिय हैं और नियामक निष्क्रिय। हालांकि मौलिक पर्यावरणीय अधिकार के मुकाबले प्रक्रियात्मक अधिकार ज्यादा कारगर हैं। पर्यावरण सुरक्षा के लिए कई प्रकार के प्रक्रियात्मक पर्यावरणीय अधिकार कारगर और उपयुक्त हैं। मसलन सूचना का अधिकार, पर्यावरण खतरे के प्रति पहले सूचना का अधिकार, पर्यावरण संबंधी नीति-निर्माण में भागीदारी का अधिकार आदि। प्रकियात्मक पर्यावरणीय अधिकार के पक्ष में दूसरा तर्क भी है। पर्यावरण की गुणवत्ता को कानूनी भाषा में तय करना कठिन है, क्योंकि संस्कृति और समुदायों के बीच इसके पैमाने अलग-अलग हैं। ऐसे में पर्यावरणीय अधिकार की कोई एक परिभाषा तय नहीं की जा सकती है। इसका समाधान जनता को सशक्त बनाने में निहित है।

जनता को मिलने वाला मजबूत प्रक्रियात्मक अधिकार इस दिशा में खुली बहस को बढ़ावा देगा। सतत एवं स्थायी विकास को जारी रखने का रास्ता भी यही है। सुस्पष्ट नीतियों के जरिए ही हम इस दिशा में परिभाषा के संकट से ऊबर सकते हैं। स्वास्थ्य प्रदूषण को ही लें, तो हमें अव्यावहारिक और व्यक्तिपरक मानदंडों को त्याग कर संतोषजनक समाधान निकालना चाहिए। जो लोग पर्यावरण कानूनों को लागू कर रहे हैं या उसकी व्याख्या कर रहे हैं, उनके लिए ‘स्वीकार्यता की एक सीमा’ भी तय करनी चाहिए। कुल मिलाकर एक ठोस आधार वाले ‘पर्यावरण का अधिकार’ से मतलब ऐसे कानून से है जो सही अर्थों में सभी के लिए और सभी पर समान रूप से लागू हो। स्पान मोटेल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘निजी, व्यावसायिक या किसी भी उपयोग के लिए प्राकृतिक संसाधनों की सुंदरता को नष्ट करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता है, जब तक कि अदालत को यह पक्का विश्वास न हो कि जनहित में ऐसा किया जाना जरूरी है।’ इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि न्यायालय ही ऐसी संसाधनों का एक मात्र संरक्षक है। इसके विपरीत, शुद्धतावादी भी पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पर्यावरण की सुरक्षा और इसके दूसरे पहलुओं के बीच समन्वय स्थापित करने पर जोर देते हैं। सतत विकास का सिद्धांत भी पर्यावरण और इसके प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की मांग करता है। इसलिए विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन का मुद्दा नीतिगत रूप से जरूरी हो जाता है।

जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की पसंद को अदालत की राय से पूरी तरह नहीं बदला जा सकता है। हालांकि अलग-अलग परिस्थितियों में उत्पादन कार्यों के लिए प्राकृतिक संपदा के दोहन के फैसलों की एक पूरी तरह मान्य सिद्धांतों की कसौटी पर न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। मसलन यह परखा जा सकता है कि फैसले लेने में उस क्षेत्र के लिए लागू विधायी नीतियों का पूरी तरह से पालन किया गया है या नहीं। फैसला केवल सतत विकास की प्रक्रिया को जारी रखने की भावना से लिया गया है या इसके दूसरे पहलुओं पर भी गौर करते हुए यह एक संतुलित फैसला है। तय मानकों के आधार पर फैसले लेने वाले अधिकारी या संस्था को इस संबंध में ‘स्वीकार्यता की सीमा’ का भी पता होना चाहिए।

लेखक भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं

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