पर्यावरण के छेड़छाड़ से हमें भारी नुकसान होगा : सुंदर लाल बहुगुणा

25 May 2014
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हमारी भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति थी। हमारे शिक्षा के केन्द्र, अर्थात आश्रम अरण्य में थे। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अरण्यों को पुर्नजीवित करने के लिए शांति निकेतन की स्थापना की। कमरों के अंदर पढ़ने का चलन तो अंग्रेजों ने पैदा किया था क्योंकि उनका देश ठंडा था और घरों से बाहर बैठकर पढ़ाई नहीं हो सकती थी। इसलिए उन्होंने ये सारा जाल बुना। उनके आने से पहले तक तो भारत में सब कुछ खुले आसमान के नीचे होता था। क्योंकि खुले आकाश के नीचे और प्रकृति के सानिध्य में मनुष्य के विचारों को स्फूर्ति मिलती है, नए-नए विचार आते हैं।

वह कमरे के अंदर उन्हीं विचारों को बार-बार दोहराता रहता है जो उसके अंदर जमा होते हैं। क्योंकि कमरे की इतनी कम परिधि होती है जिसमें वह कमरे के चारों और ही चक्कर काटता रहता है। यदि भारत को अपना वर्चस्व कायम रखना है तो उसे अपने अतीत की ओर देखना चाहिए अर्थात उसे पुनः वही जीवन पद्धति अपनानी चाहिए जो उसे अरण्य संस्कृति से प्राप्त हुई थी। जिसमें चिन्तन करने और नए विचारों को प्राप्त करने के लिए, खुले आसमान के नीचे, पेड़ों के नीचे और नदी के किनारे बैठकर अध्ययन किया जाता था।

आपने देखा ही होगा कि कोई भी ऋषि नदी के किनारे या पहाड़ की उस चोटी पर बैठकर ध्यान लगाता है जहां से प्राकृतिक सुंदरता अर्थात जीवंत प्रकृति के दर्शन होते है। इस प्रकार प्रकृति से हमें स्थाई मूल्यों की प्राप्ति होती है। आज हमें दो-तीन चीजों की आवश्यकता है पहली तो अपने आज को अपने अतीत से जोड़ने की, जिस प्रकार कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों के साथ जुड़ा होता है और अगर उसे जड़ से अलग कर दिया जाए तो वह सूख जाता है उसी तरह किसी भी समाज की जड़ उसका अतीत होता है और अगर उसको उसके अतीत से काट दिया जाए तो वह भी तरक्की नहीं कर पाता है।

दूसरी, बात मनुष्य को जिंदा रहने के सभी साधन प्रकृति से मिलते हैं। प्रकृति को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और ऑक्सीजन कमरे के अंदर पैदा नहीं हो सकती है। उसे जल की भी आवश्यकता होती है और जल के बारे में आस्ट्रेलिया के सोवरगर नामक विद्वान ने “The Living Water” ‘जिन्दा जल’, नामक एक पुस्तक लिखी। उनके अनुसार हर जगह का पानी जिंदा नहीं रहता है जैसे नल के अंदर गया हुआ पानी स्वछन्द रूप से खासकर पहाड़ी नदी में बहने वाले जल की अपेक्षा कम स्वच्छ होता है क्योंकि वह पानी पहाड़ों से टकरा-टकराकर अपने को स्वच्छ रखता है और उसी पानी को जीवन्त कहा जाता है।

शायद इसीलिए हमारे यहां हरिद्वार में गंगा में श्राद्ध तर्पन करने के पीछे भी यही सोच काम करती हो क्योंकि गंगा, अपना हरिद्वार तक का सफर पहाड़ी क्षेत्र में बहकर तय करती है उसके बाद उसका पानी, उसकी गति कम हो जाती है और गति कम होते ही वह प्रदूषण का घर बन जाती है। इस प्रकार दूसरा तत्व स्वच्छ पानी है।

उनके अनुसार जीने के लिए तीसरा साधन ‘अन्न’ है और वृक्ष हमें फलों के द्वारा पोषण देते हैं। हम वृक्षों को इसलिए उगाते हैं ताकि हमें उनसे अन्न की प्राप्ति हो। शुरू में अन्न, मनुष्य की खुराक नहीं थी। शुरू-शुरू में हम पशुपालक थे और पशुओं के साथ अपना जीवनयापन करते हुए फलों का सेवन करते थे लेकिन उस दौरान स्त्रियों को काफी कष्ट होता था क्योंकि उनके साथ रहने वाले पशु सब घास तथा अन्य पौधों को चर लिया करते थे जिससे फिर उस स्थान पर हरियाली की कमी हो जाती थी और उन्हें उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाना होता था इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे घास के बीजों को पकाकर खाना शुरू किया और इस तरह मनुष्य ने अन्न पैदा करना, उसे संग्रह करना और उसे पकाना शुरू कर दिया।

जब से मनुष्य ने अन्न की खेती करना और उसे संग्रह करना शुरू किया तभी से दुनिया में अधिकांश लड़ाइयां शुरू होने लगी। अब समय आ गया है जब पूरी मनुष्य जाति को अपने भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। सबसे पहले तो हमें आधुनिक युग के नए अवतार ‘प्रदूषण’ का हल निकालना होगा।

आज पूरे विश्व में प्रदूषण ने अपना जाल इस तरह से बिछाया हुआ है जबकि आज से कुछ साल पहले तक लोगों ने प्रदूषण शब्द के बारे में सुना तक भी नहीं था। मुझे याद है कई वर्ष पहले “India International Center” (इंडिया इंटरनेशनल सेंटर) में प्रदूषण के बारे में एक गोष्ठी हो रही थी। हमारी गोष्ठी चल ही रही थी, तभी वहां एक ग्रामीण आदमी आ गया, उसने उन सभी बातों को सुनने के बाद हमसे पूछा कि ये खरदूषण कहां से आ गया?

ये बड़े-बड़े साहब उससे इतना क्यों डर रहे हैं, आखिर ये है कहां? तो इस प्रकार से आज तक उसने इस प्रदूषण शब्द को भी नहीं सुना था इसलिए वह उसे खरदूषण कहकर पुकार रहा था। मैंने, किसी की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह इनकी पोशाक के अंदर छिपा हुआ है, इनकी जीवनशैली ही प्रदूषण को जन्म देती है।

आज समाज की प्रगति के आगे कई समस्याएं मुंह बाएं खड़ी हैं उनमें पहली है, ‘युद्ध का भय’ क्योंकि आज गरीब से गरीब देश भी अपनी अधिकांश कमाई अनुत्पादक कार्यों जैसे हथियारों को जमा करने और सेनाओं पर खर्च करने में लगा रहा है, इस कारण से वहां की सामान्य जनता को नुकसान हो रहा है। समाज का दूसरा बड़ा खतरा ‘प्रदूषण’ है। आज आबादी बढ़ने के साथ-साथ नागरिक सुविधाएं भी बढ़ रही हैं जिससे धूल, धुआं और शोर जैसे तीन दैत्य हमारे देश को प्रदूषित करते जा रहे हैं। हवा में बढ़ते धूल और धुएं के कारण पत्तों के ऊपर भी धूल जमती जा रही है जिससे हमें सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी है और हम लोग कई सांस संबंधी समस्याओं से ग्रस्त होते जा रहे हैं।

आज भी मुझे सन् 72 में संयुक्त राष्ट्र विज्ञान परिषद् की पत्रिका में छपे एक दंड चित्र के कार्टून की याद आती है जिसमें, एक बौना आदमी एक बड़े पेड़ को अपनी बांह के बीच में पकड़कर दौड़े जा रहा है, दौड़े जा रहा है किसी ने उससे पूछा - कहां जा रहे हो? जरा ठहरो ... उसने कहा, देखता नहीं है कि सीमेंट की सड़क मेरा पीछा करती आ रही है। इस प्रकार काफी सालों से मनुष्य को सभी तरह की सुख-सुविधाएं प्रदान करने की लालसा के कारण आज ऐसे कई निर्माण कार्यों पर जोर दिया जा रहा है जिससे हमारी प्रकृति और हमारे स्वास्थ्य को घातक नुकसान हो रहा है।

एक परिभाषा है, कि जंगल एक समुदाय है जैसे समाज में अनेक प्रकार के लोग एक साथ रहते हैं उसी तरह से जंगल में भी कई प्रकार के वृक्ष, लताएं, झाड़ियां और जीव-जन्तु मिलकर एक समुदाय बनाते हैं और वे सभी एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।

वनों के संरक्षण में कई ऐसे औषधीय पेड़-पौधे और जड़ी-बूटियों का रोपण हो रहा है लेकिन शायद वो अधिक उत्तम न हों।
अगर वे उत्तम किस्म के न हों तो उनके गुण धर्मों में भी अंतर होगा। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। अब समय आ गया है जब हमें अपनी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करनी बंद कर देनी चाहिए और विकास के साथ-साथ प्रकृति के पुर्नजीवन के बारे में भी सोचना चाहिए। इसके अलावा मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर रहने की आदत बनाने का भी प्रयास करना चाहिए।

जैसा कि पहले भी था जिसे symbiotic relationship कहते हैं।
मैं, यहां पहाड़ों की बात इसलिए कर रहा हूं कि पहाड़ हमारे जल की मीनारें हैं और हमारे जीवन के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण है जल संकट का तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता है। इसी प्रकार खेती भी सभी के लिए अनिवार्य है, अगर हमने भविष्य की जाति को जिंदा रखना है तो हमें अपनी कृषि-व्यवस्था को जिंदा रखना होगा।

क्या, आपको अन्न की खेती का भविष्य बहुत उज्ज्वल नजर नहीं आता है?
हालात जैसे भी हों, इतने कम समय में अन्न की बढ़िया खेती नहीं हो सकती।

अब पहले वाली विशुद्धता भी खत्म हो गई है, उसमें कीटनाशक भी शामिल हो गए हैं और उसका जैविक स्तर भी बिगड़ गया है।
हमारे यहां दो तरह की खाद्य पदार्थ होते हैं। एक तो, विशुद्ध, साधारण खादों वाली और दूसरी जैविक खादों वाली होती है जिसे अमीर लोग ही खरीदते और खाते हैं।

अब तो ऐसी स्थिति हो गई है कि हम टमाटर जैसी चीज में भी जिनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा मांस डालकर उसमें मांस पैदा कर दिया। ऐसे में, अब हमारा टमाटर भी शाकाहारी की जगह मांसाहारी ही हो गया है। प्रकृति के साथ इस तरह की छेड़छाड़ ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह की छेड़छाड़ से हमारे पर्यावरण के साथ-साथ हमें भी भारी नुकसान को झेलना होगा।

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