पर्यावरण की पहरेदार ग्रामीण महिलाएँ

बड़-पीपल की पूजा, घर-घर में तुलसी-चौरे, यज्ञ-हवन द्वारा वायु शुद्धि की प्रथा, आदि हमारे अनेक रीति-रिवाज इस बात के गवाह हैं कि पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा हमारी जीवन-शैली का अभिन्न अंग थी। यह अलग बात है कि हम इसे भूले बैठे थे और पश्चिमी पर्यावरणविदों के चेतना अभियान ने हमारा इस ओर पुनः ध्यान आकृष्ट किया। लेखिका का मत है कि ग्रामीण महिलाएँ पर्यावरण संरक्षण के इस कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।आज भारत में बीस प्रतिशत से भी कम भू-भाग पर वन हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार हर देश के 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन हों तभी पर्यावरण-सन्तुलन बना रह सकता है। पेड़ कटते गए, पर ईंधन के वैकल्पिक साधन नहीं खोजे गए। कृषि के लिये जो ज्यादा जमीन छोड़ी जाती रही, वह बढ़ती आबादी के साथ बढ़ते निर्माण के कारण धीरे-धीरे घटती चली गई।

पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को इस आवश्यकता से तो बढ़ावा मिलना ही था। इसकी रोक-थाम के कानून (जो अभी भी खास प्रभावी नहीं हैं) भी तभी लाये गए जब ‘चिपको आन्दोलन’ जैसे आन्दोलनों में अनेक भाई-बहनों ने अपार कष्ट सहकर इस ओर जनता और सरकार का ध्यान खींचा।

सीधी-सी बात यह है कि पर्यावरण संरक्षण की ओर हमारा ध्यान ही तभी गया जब पश्चिमी देशों की तरह कल-कारखानों और बढ़ते वाहनों से यहाँ भी हवा, पानी प्रदूषित हुये और पश्चिमी पर्यावरणविदों ने पर्यावरण-संरक्षण के प्रति चेतना जागरण अभियान चलाया। वरना हम तो यह भूले ही बैठे थे कि हमारी संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण जीवन शैली में ही घुला-मिला था।

उसके लिये अलग से चेतना जगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, आन्दोलन की तर्ज पर अभियान की बात तो कौन कहे! बड़, पीपल की पूजा, घर-घर में तुलसी-चौरे, हर पूजा में फल-फूल, पत्ते चढ़ाना, हर खुशी के अवसर पर पेड़-पौधे रोपना, कुत्ते, गाय, कौवे के लिये ग्रास निकालना, रोज चिड़ियों को दाना डालना, घरों में यज्ञ-हवन करके प्रदूषित वायु को शुद्ध करना, दैनिक स्नान करना, हर उत्सव, त्यौहार पर नदी-स्नान को महत्व देना, आदि हमारे सभी व्रत-अनुष्ठान, रीति-रिवाज, इस बात के गवाह हैं कि हम इस ओर से उदासीन नहीं थे। पर यहाँ इस सबके विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं; यह एक अलग लेख का विषय है। यहाँ हम केवल ग्रामीण महिलाओं की बात करेंगे।

आज नदी-नाले सूखते जा रहे हैं, पहाड़ों की हरियाली लगभग गायब है। हवा में जहर घुल रहा है। गरमी दिनों-दिन बढ़ रही है। प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण वह समय-समय पर अपना कोप अलग दिखाती रहती है। कभी सूखा तो कभी बाढ़, कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प। हर मौसम अपना स्थान व रंग-ढंग बदल रहा है।

भूजल दिनों-दिन घट रहा है। इस पर्यावरण-ह्रास की सबसे अधिक शिकार हो रही हैं हमारी ग्रामीण महिलाएँ। पेड़ों के कट जाने के कारण अब उन्हें ईंधन की लकड़ी के लिये मीलों दूर भटकना पड़ता है और राह में ठंडी छांह भी बहुत कम नसीब होती है। पानी लाने के लिये भी उन्हें बहुत दूर तक पैदल चलना पड़ता है। क्योंकि समीप के नदी-नाले सूख गए हैं। और वर्षा का पानी एकत्रित करने के लिये शुद्ध तालाबों का वैज्ञानिक उपाय अभी दूर की योजना है।

महिला-सशक्तिकरण के इस वर्ष में महिला-शक्ति के इस अपव्यय की ओर क्या हमारा ध्यान जायेगा? पर्यावरण संरक्षण के व्यापक-प्रचार-प्रसार के बावजूद आज भी बहुसंख्य ग्रामीण महिलाओं को उन्नत चूल्हे, ईंधन के वैकल्पिक साधन, जैसे कैरोसीन-स्टोव, गैस, सोलर-कुकर आदि उपलब्ध नहीं हैं। अगर हैं भी, तो उन्हें इसकी जानकारी नहीं है।

इसलिये आज भी जंगल से काट कर लाई गई जलाऊ लकड़ी ही उनके लिये एकमात्र सहज सुलभ यानी सस्ता साधन है। उन्नत चूल्हों के अभाव में फिर भले ही धुएँ से उनकी आँखे खराब हों या दमा जैसी बीमारियाँ घेरें। जानकारी के अभाव में वे इनका समय पर इलाज भी नहीं करा पातीं।

बेशक धन की कमी भी आड़े आती है, पर मुख्य बाधा है जानकारी का अभाव, जिस कारण वे न इनका उपयोग कर पाती हैं, न समीप के सामुदायिक स्वस्थ्य-केन्द्रों से उचित लाभ उठा पाती है। अगर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाएँ मिलकर ग्रामीण स्त्रियों को सस्ते दामों पर उन्नत चूल्हे व सोलर कुकर उपलब्ध कराएँ तो ईंधन की समस्या का कुछ हल तो वे पा सकेंगी।

आंगनवाड़ियों और सामुदायिक केन्द्रों को इस ओर प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए। नदी के अलावा, पीने के पानी के स्वच्छ स्रोत के लिये अधिक संख्या में नये कुएँ खुदवाने और हैंडपम्प लगवाने के कार्य को भी प्राथमिकता देनी होगी। वर्षाजल को संग्रहित करने के लिये नई तकनीक से विकसित तालाबों की भी जरूरत है।

इन महिलाओं को, जो घर-परिवार की देखभाल के साथ खेतों में और मजदूरी के काम में पति का हाथ बँटाती हैं, ईंधन और पानी के लिये धूप-ताप में दूर-दूर भटकने से बचाने की जरूरत है। एक वैज्ञानिक खोज के अनुसार अत्यधिक ताप में काम करने से महिलाओं में स्तन-कैंसर की सम्भावना बढ़ जाती है।

महिलाएँ हमारे परिवारों की रक्षक हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार प्रकृति हमारी रक्षक है। घर के दैनिक कामकाज, रोटी-पानी की व्यवस्था के साथ बच्चों, बूढ़ों, बीमारों की देखभाल भी अधिकतर उनके ही जिम्मे रहती है। इसलिये इस ओर चेतना जगाने की जरूरत है कि परिवार की धुरी गृहणी को को जो राहत पहुँचाई जा सकती है, उसकी व्यवस्था समाज करें। यह किसी एक व्यक्ति या एक संस्था के बूते की बात नहीं। सार्वजनिक चेतना जगाकर ग्राम-पंचायतों, विशेष रूप से अब महिला पंचों के माध्यम से यह कार्य उतना कठिन नहीं होना चाहिए।

प्राथमिकता के आधार पर किये जाने वाले कुछ कार्य ये हो सकते हैं: नदी-तटों पर उद्योगों की स्थापना पर रोक लगाना; जहाँ तक सम्भव हो, पेड़ों की कटाई रुकवाने के साथ नये वृक्षारोपण के कार्यक्रम चलाना; सभी स्कूल पंचायतें और सामाजिक संगठन मिलकर यह कार्य कर सकते हैं; हैंडपम्प लगावाने के साथ, उनके रख-रखाव पर भी ध्यान देना; गंदे पानी के निष्कासन की व्यवस्था करना और शुद्ध जल-स्रोतों का निर्माण करना; मल-मूत्र निकास के लिये सस्ते व सुविधाजनक शौचालयों की व्यवस्था करवाना, आदि।

अब तो ग्रामीण महिलाएँ पंचायतों के माध्यम से स्वयं सत्ता के केन्द्र में हैं। सरकारी, अर्ध-सरकारी व सार्वजनिक संस्थाओं, महिला-संगठनों और महिला आयोगों को ग्रामीण महिलाओं में अधिक से अधिक यह चेतना जगानी होगी कि ‘चिपको’ जौसे आन्दोलन अब अतीत की चीज समझे जाएँ।

ग्राम पंच महिलाएँ स्वयं आगे आकर अपनी ताकत पहचानें और हर बात में मर्दों की ओर न देखकर स्वयं इस दिशा में पहल करें। जिस प्रकार हर राज्य में अनेक क्षेत्रों की महिलाओं ने एकजुट होकर शराब बन्दी, चकबन्दी, ताड़-बन्दी के लिये संघर्ष करके अपने परिवारों की खुशहाली लौटाने में अहम भूमिका निभाई है, उसी तरह पर्यावरण संरक्षण के लिये भी वे आगे आयें तो उनका रोजमर्रा का जीवन आसान और खुशहाल बन सकेगा।

जरूरत है पहले केवल चेतना जगाने की एवं फिर थोड़ी मदद करके स्वयं महिलाओं के हाथ में बागडोर सौंप देने की। समयबद्ध, योजनाबद्ध कार्यक्रम से सभी कुछ सम्भव है। आखिर विगत वर्षों में हमने जो गलतियाँ की हैं, उन्हें सुधारना ही होगा।

इस ‘महिला सशक्तिकरण वर्ष’ में स्वयं महिलाओं को ही अपनी खुशहाली लौटा लाने के लिये प्रेरित, प्रशिक्षित और सक्रिय क्यों न किया जाए। परिवार की धुरी महिला के प्रयत्न से जो चक्र घूमेगा, वह अवश्य सही दिशा पकड़ेगा, ऐसा मुझे विश्वास है। तो पहली जरूरत है इस धुरी को पहचानने एवं उसे सशक्त करने की।

(लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार हैं)

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