पर्यावरण-पर्यटन और पर्वत

24 Nov 2015
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अपनी व्यापक भौगोलिक एवं वातावरणीय विविधता के कारण भारत में सचमुच वनस्पतियों और पुष्पों-पादपों की सबसे समृद्ध किस्में पाई जाती हैं। अफसोस है कि हमारी यह अकूत और अद्भुत प्राकृतिक सम्पदा मनुष्य के घातक उपभोग की शिकार बन रही है। यही समय है कि हम इस तथ्य का अहसास करके अपने पर्यावरण तथा परिवेश को पुरानी ऊँचाई पर पहुँचाने के लिये अच्छे नागरिकों की तरह अधिकतम कोशिश करें।

पर्यटन सचमुच किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारे जैसे विकासशील देश के लिये तो यह विशेषकर आवश्यक है। पर्यटन से राजस्व की बढ़िया आमद होती है। साथ ही विदेशी मुद्रा भी इससे बखूबी आती है। इसलिये यह बात दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि पर्यटन विकास के लिये सभी सुविधाएँ दी जानी चाहिए।

इसके बावजूद यह भी सच है कि यदि पर्यटन व्यवस्थित न हो तो उससे पर्यावरण बिगड़ने तथा पारिवेशिक सन्तुलन डगमगाने का खतरा पैदा हो जाता है। इसी सन्दर्भ में हमारी आर्थिक वृद्धि को टिकाऊ बनाने तथा पारिवेशिक सन्तुलन को बरकरार रखने के लिये पर्यावरण-पर्यटन सबसे उपयुक्त दिखाई देता है। विडम्बना यह है कि सभी पर्यटन-केन्द्रों पर व्यापारिक गतिविधि को बढावा देने वाली तेजी से बढ़ती पर्यटकों की तादाद पर्यावरण पर जो घातक वार कर रही है, उससे उबरने तथा बाद में उसे पुनर्जीवित करने के लिये बहुत बड़ी रकम की जरूरत पड़ेगी। इसलिये आज राजस्व का प्रमुख जरिया माने जाने वाले पर्यटन से यदि सम्भावित क्षय की रोकथाम के समुचित उपाय न किए गए तो इसके कारण होने वाला पर्यावरणीय क्षय कल यही पैसा बर्बाद करने का बड़ा जरिया बन सकता है।

अंधाधुंध व्यावसायिक पर्यटन के कारण या अन्य कारणों से हमारे पारिवेशिक सन्तुलन में गम्भीर बाधा आना कोई नई बात नहीं है। पर्यावरण में क्षय का धीमा जहर हमारे देश में कम से कम पिछले चार-पाँच दशक से दौड़ रहा है। लेकिन आज यह खतरनाक स्तर पर पहुँच गया है, जिसने न सिर्फ हमारे देश बल्कि पूरी दुनिया की चेतना को झिंझोड़ डाला है। यह क्रूर व्यावसायिकरण और अंधाधुंध बढ़ती आबादी का प्राकृतिक दुष्परिणाम है। पर्यावरण के इस गम्भीर क्षय का सिर्फ भारत ही शिकार नहीं है, यह काफी हद तक दुनिया भर की समस्या बन रहा है।

समस्या की इसी गम्भीरता के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों ने पर्यावरण पर जोर देना शुरू कर दिया है, खासकर रियो-द-जेनेरो में 5 जून, 1992 को पर्यावरण पर हुए अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन के बाद से पाँच जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। व्यावसयिक पर्यटन के पर्यावरण और परिवेश पर पड़ने वाले खराब असर, खासकर हमारी अधिकतर पर्वतीय सैरगाहों की हालत के मद्देनजर वर्ष 2002 को पर्यावरण-पर्यटन और पर्वतों का अन्तरराष्ट्रीय वर्ष सही ही घोषित किया गया है।

इसमें शक नहीं कि भारत (शायद किसी भी अधिक आबादी वाले विकासशील देश की तरह) पारिवेशिक क्षय के बुरी तरह शिकार देशों की जमात में शामिल है। हमारी पर्वतीय सैरगाहों पर सरसरी निगाह दौड़ाने भर से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। तीन दशक पूर्व किसी पर्वतीय सैरगाह में घूमकर आने वाले पर्यटकों को वहाँ दुबारा जाने पर यह अहसास आसानी से हो जाता है। हरे-भरे, घने पहाड़ी जंगलों की जगह पहाड़ी ढलानें अब पथरीली और बद्नुमा इमारतों से घिरी दिखाई देती हैं। दशकों पहले आँखों को सुकून देने वाले वहाँ के नजारे अब आँखों में चुभने लगे हैं। पहले के खूबसूरत हरियाली से भरे पिकनिक-स्थल, पहाड़ी चोटियाँ तथा अन्य नयनाभिराम स्थल आज दुकानों, होटलों तथा रेस्तरां आदि से पट गए हैं। हमारे देश में सफाई और नागर-व्यवहार की समझ की दुर्भाग्यपूर्ण कमी के कारण पहले के ऐसे तमाम खूबसूरत स्थल आज गंदगी और कूड़े के ढेर बन गए हैं। साफ और स्वच्छ पहाड़ी झरनों की जगह अब नाली का पानी झरता है। यह व्यावसायिकता तथा उसके कारण इमारतों की भीड़ और समुचित नियोजन के सर्वथा अभाव का अपरिहार्य परिणाम है।

अपने समूचे परिवेश के पूरी तरह खत्म हो जाने के इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत हो जाने का यही मुनासिब समय है। इसमें शक नहीं कि कई आर्थिक बाधाएँ और मजबूरियाँ व्यावसायिकता नियन्त्रण की कोशिश में आड़े आ सकती हैं। इसके बावजूद यह बात अवश्यंभावी है कि हमें व्यावसायिकता और पारिवेशिक सन्तुलन के बीच लक्ष्मण-रेखा खींचनी होगी ताकि हमारे परिवेश और पर्यावरण पर यह घातक असर पूरी तरह खत्म हो जाए साथ ही पर्यावरण-अनुकूल आर्थिक विकास के लिये पर्यटन को नियमित करने का कार्य भी हो सके। पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के ‘इको’ में यह अत्यन्त जटिल सन्तुलन स्थापित करना और उसे बरकरार रखना सचमुच कठिन है जिसका अच्छे नागरिक होने के नाते हम सभी को सामूहिक प्रयास करना चाहिए। इतना तय है कि इस क्षेत्र में एक बार अधिकतम सन्तुलन स्थापित होने के बाद आने वाले दशकों में उसे बरकरार रखना निश्चित तौर पर कहीं आसान कार्य होगा।

हमारे पुराने खूबसूरत पर्वतीय पर्यटन स्थलों में से कई के आँखों का शूल बन जाने से अक्सर यह लगने लगता है कि उनकी बर्बादी संवारना असम्भव है। हमारे ऐसा महसूस करने के बावजूद परिस्थिति इतनी खराब नहीं है। जहाँ चाह, वहाँ राह। वक्त का तकाजा कदम-दर-कदम व्यवस्थित तरीका अपनाने की है, जिसका मक्सद परिस्थिति को सुधारना एवं पर्यावरण तथा पारिवेशिक सन्तुलन पुनर्स्थापित करना होना चाहिए।

यह बात अबूझ लग सकती है और इस समय शायद किसी को समझ भी न आए कि शुरुआत कहाँ से और कैसे की जाए? इस लिहाज से निम्नलिखित बुनियादी दिशा-निर्देशों का पालन करके हम सुधारवादी पथ पर आरम्भ से आगे बढ़ सकते हैं, जो हमें पारिवेशिक सन्तुलन की लम्बी राह पर अग्रसर करेगा:

1. जंगलों की कटाई पर हमें कड़ी इच्छाशक्ति और निष्ठा के साथ रोक लगा देनी चाहिए। हमारी पर्वतीय सैरगाहों से सटे इलाकों और दूरदराज की पहाड़ियों पर यह नियम खासतौर पर लागू किया जाना चाहिए। यह पहला कदम पर्यावरण की हत्या रोकने के लिये न्यूनतम मगर सबसे जरूरी उपाय है।

2. इस सबसे महत्त्वपूर्ण कदम के बाद बर्बाद हो चुके जंगलों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। बदशक्ल और खाली दिख रही पहाड़ी ढलानों की हरियाली पुनर्जीवित करने के लिये जबरदस्त वृक्षारोपण कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए। हमारी सभी पर्वत शृंखलाओं को बिना भेदभाव के इस पुनर्जीवन के प्रयास की आवश्यकता है। इन शृंखलाओं में हिमालय, उत्तर-पूर्व की विभिन्न पर्वत-शृंखलाएँ, पूर्वी घाटियाँ, सतपुड़ा तथा विंध्याचल तथा अरावली आदि सभी शामिल हैं। हमारे पर्वतीय वनों के अंधाधुंध सफाये का वातावरण तथा वर्षा पर बहुत बुरा असर पड़ा है। साथ ही इससे भूस्खलन तथा अचानक बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी बढ़ गया है।

हमारे क्षितिज पर पारिवेशिक आपदा की सुनाई देती आहट के मद्देनजर वन महोत्सव की जबर्दस्त आवश्यकता आज पहले के मुकाबले ज्यादा शिद्दत से महसूस की जा रही है। इससे नयनाभिराम खूबसूरती लौटने के साथ ही पहाड़ों में बाढ़ और भूस्खलन से होने वाली तबाही भी काफी हद तक रुक जाएगी।

3. इस प्रकार चिन्हित प्रस्तावित तथा वर्तमान हरित-पट्टियों में इमारतें खड़ी करने पर रोक न लग सके तो उसे न्यूनतम स्तर पर लाने की भारी आवश्यकता है। वरना अंधाधुंध निर्माण गतिविधि से पेड़ों की कटाई पर रोक के साथ ही बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाने का मक्सद बेकार चला जाएगा। हमारी पर्वतीय सैरगाहों पर और उनके पड़ोस में एक सरसरी निगाह डालने भर से निर्माण गतिविधियों पर कड़ी रोक लगाने की आवश्यकता समझ में आ जाएगी। पहले से ही इमारती भीड़ की शिकार हमारी सभी बड़ी पर्वतीय सैरगाहों के आस-पास व्यावसायिक इमारत-निर्माण गतिविधि पर सम्पूर्ण प्रतिबंध लगाना ही सबसे अच्छा होगा।

4. नई पर्वतीय सैरगाह के रूप में विकसित होने की गुंजाइश वाली नयनाभिराम जगहों में और उनके आस-पास भी निर्माण गतिविधियों को सीमित और नियमित करने पर खास ध्यान दिया जाना चाहिए। इसका मक्सद हमारे पर्यावरण पर अनावश्यक अवैध कब्जे को पूरी तरह नकारना और साथ ही नियमित पर्यटन के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे तथा सुविधाओं की स्थापना होना चाहिए। नयनाभिराम दृश्यों और एक खूबसूरत पर्वतीय सैरगाह के रूप में विकसित किए जाने की गुंजाइश का एक अच्छा उदाहरण मसूरी से 75 कि.मी. पूर्व में स्थित धनौल्टी है। इस सिलसिले में हमें ब्रिटेन से सबक लेना चाहिए। ब्रिटिश नागरिकों ने ही हमारे देश में कई पर्वतीय सैरगाहों की स्थापना की थी। समुचित नियोजित विकास तो किया ही गया था, साथ ही पर्यावरण तथा परिवेश पर भी कोई बुरा असर नहीं पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति काल के मुकाबले आज हालाँकि आबादी तीन गुनी हो चुकी है, मगर गम्भीर और निरन्तर प्रयासों के धीरे-धीरे सुपरिणाम आने लगेंगे।

5. व्यावसायिक गतिविधि को व्यवस्थित ढंग से नियमित करना होगा। पर्वतीय सैरगाहों में प्रोत्साहित आर्थिक गतिविधि के केन्द्र में स्थानीय हस्तशिल्पों सहित स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की भावना होनी चाहिए। साथ ही पर्यटन को स्थानीय लोक कला तथा संस्कृति को जिंदा रखने तथा बढ़ावा देने का माध्यम बनाया जाना चाहिए। इससे पर्यटकों को समृद्ध लोककला और संस्कृति का आनंद भी मिल पाएगा। इस कार्य को सिद्ध करने के लिये सांस्कतिक केन्द्र बनाना मुनासिब होगा। ऐसे प्रयोगों से हमारे लोक कलाकारों तथा कारीगरों को बेहतर आजीविका भी हासिल हो पाएगी।

6. स्थानीय उत्पाद तथा स्थानीय संस्कृति, कला और शिल्प को बढ़ावा देने पर टिकी आर्थिक गतिविधि को अधिकतम सहारा दिया जाना चाहिए। साथ ही स्थानीय आर्थिक वृद्धि से कटी बाहरी आर्थिक गतिविधि को यदि रोका न भी जाए तो हतोत्साहित करने के उपाय तो किए ही जाने चाहिए। हमारी पर्वतीय सैरगाहों के जरूरत से ज्यादा व्यावसायीकरण (समुद्रतटीय रिजाॅर्टों की तरह कई अन्य नयनाभिराम खूबसूरती वाली जगहों की तरह) का अक्सर स्थानीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि से कोई तालमेल नहीं होता। उदाहरण के लिये दशकों से चल रहे जंगल काटने के अंधाधुंध अभियान का न तो स्थानीय अर्थव्यवस्था से कोई सीधा रिश्ता है और न ही उससे आर्थिक स्थिति सुधारने में कोई मदद मिलती है।

इसके बजाय जंगलों पर आश्रित स्थानीय जनता क पेट पर जंगल कटने से लात लग रही है। अधिक और गैरसंबद्ध व्यावसायिक गतिविधि के हाथों स्थानीय जनता के इसी अमानवीय शोषण के कारण उत्तरांचल में ‘चिपको’ आन्दोलन तथा कर्नाटक में अप्पिको’ आन्दोलन जैसे विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ। पर्वतीय सैरगाहों तथा पर्यटकों की दिलचस्पी वाले अन्य स्थानों पर इतनी बेमतलब व्यावसायिक गतिविधि देखकर आज बेहद निराशा और कुंठा होती है। नयनाभिराम खूबसूरती वाली जगहों में माॅल तथा कस्बे के भीतर ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत वाले स्थानों पर भी बेहिसाब दुकानें था रेस्तरां खुल गए हैं। ऐसी लगभग सभी जगहों पर बिकने वाली वस्तुओं का स्थानीय उत्पादों के साथ कोई तालमेल नहीं है।

पर्यटकों के अपने ही नगरों में मिलने वाली चीजें अब वहाँ भी बिकने लगी हैं। ऐसे में अपने घर के आस-पास मिलने वाली चीजों को बहुतायत में खरीदने के लिये लोगों को पर्वतीय सैरगाहों, तटीय रिजाॅर्टों तथा ऐतिहासिक महत्व के स्थानों पर जाने की क्या आवश्यकता है? यह दरअसल एक दुष्चक्र है जिसमें बेमतलब व्यापारिक गतिविधि पर्यटकों को प्राकृतिक खूबसूरती का आनंद लेने के लिये सैर पर जाने को प्रेरित नहीं करती अपितु फिर अंधाधुंध खरीदारी करने के लिये प्रवृत्त करती है।

हमारे देश में नागर शिष्टाचार की भारी कमी के कारण होटलों और रेस्तरां की अंधाधुंध बढ़वार से चारों तरफ कूड़ा फैलने तथा पर्यावरण का दम घुटने की भी नौबत आ रही है। पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिये हमें इस बेमतलब व्यावसायिकरण को जड़ से उखाड़ कर सिर्फ स्थानीय रूप से उपयोगी आर्थिक गतिविधि को बढावा देने के सख्त उपाय करने होंगे।

7. अंतिम मगर महत्त्वपूर्ण सुझाव यह है कि हम सभी अच्छे नागरिक अपने भीतर नागर-शिष्टाचार पैदा करें और अपने आस-पास के पर्यावरण पर ध्यान दें। यहाँ यह बात दोहराना बेमानी है कि पर्यटन-संवर्धन की सभी गतिविधियों में पर्यावरण और परिवेश के रख-रखाव के बुनियादी ढाँचे और सुविधाओं की स्थापना का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। इस बात पर हमारी पर्यटन-संवर्धन संस्थाएँ, आईटीडीसी तथा सभी राज्य पर्यटन विकास निगम खास ध्यान दे रही हैं। इसके बावजूद सिर्फ बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करा देने से समस्या हल नहीं हो पाएगी। इसका अंतिम उपाय हमारे द्वारा अच्छे नागरिक की तरह बुनियादी नागरिक सेवाओं का सही उपभोग किए जाने में ही निहित है।

हिमाच्छादित पर्वतइस क्षेत्र में शुरुआत सही शिक्षा से ही होगी। यह बात अत्यन्त दुखदायी है कि हमारे देश में समाज का आर्थिक रूप से सम्पन्न तबका, हमारे अभिजात और प्रबुद्ध वर्ग भी नागर-शिष्टाचार से वंचित हैं और सर्वश्रेष्ठ नागरिक सुविधाएँ उपलब्ध होने के बावजूद लापरवाही से पर्यावरण बिगड़ता है। इसकी पुष्टि के लिये यह एक मिसाल ही काफी है कि पाँव से दबाकर खोलने वाले कूड़ेदान उपलब्ध होने के बावजूद जनता अक्सर सड़ने वाली चीजें इधर-उधर फेंक देती है। इसमें शक नहीं कि प्रयास काफी कारगर सिद्ध हो सकते हैं, मगर साथ ही कानून और प्रशासनिक पाबंदियाँ भी आवश्यक हैं। हमारे लिये पर्यावरण को गंदा करना दंडनीय अपराध बनाना सिंगापुर की तरह ही आवश्यक हो जाएगा, लेकिन ऐसे उपाय प्रवर्तित करने से पहले जन स्वास्थ्य और सफाई के लिये आवश्यक सभी नागरिक सुविधाएँ उपलब्ध करानी होंगी।

जन स्वास्थ्य और सफाई के मुद्दे से यह बात भी गहराई से जुड़ी है कि पर्यावरण के नजरिए से सड़ने वाली चीजों के प्रबंधन पर ध्यान दिया जाए। अपेन आप सड़ने वाली चीजें वे हैं जो सूक्ष्मजैविकों द्वारा गलाई जाती हैं। पिछले चार-पाँच दशक से चली कृत्रिम वस्तुओं की लहर और प्लास्टिक पॉलीथीन संस्कृति की चपेट में आई पूरी दुनिया का पारिवेशिक सन्तुलन इस कारण गड़बड़ा रहा है। इसमें दिक्कत यह है कि मजबूत, सस्ती, टिकाऊ, पानी से बचाने वाली और सुविधाजनक होने के कारण पॉलीथीन की थैलियों और डब्बे-टोकरियाँ, आदि बाजार पर छा गए हैं। इनका पत्ता साफ करना सचमुच टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।

पॉलीथीन की चीजों को बाजार से खदेड़ने के लिये जैविक प्रक्रिया से नष्ट हो सकने वाली सामग्री तैयार करने के प्रयास काफी जोरशोर से चल रहे हैं। पॉलीथीन पर्यावरण के लिये सबसे नुकसानदेह भले हों, मगर यह भी सच है कि टिन और बोतलों से भी पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इनके सस्ते विकल्पों की आवश्यकता सिर्फ पर्यावरण-पर्यटन के लिये ही नहीं, रोजमर्रा जीवन के लिये भी गहराई से महसूस की जा रही है। यह अच्छी बात है कि हम अपने आप सड़कर खत्म होने वाली सामग्री से पर्यावरण को हर हाल में पहुँचने वाले खतरे के प्रति जागरुक तो हुए हैं।

पर्यावरण-पर्यटन के अलावा पर्वतारोहण और चढ़ाई जैसी रोमांचक गतिविधियों के पर्यावरणीय तथा पारिवेशिक पहलुओं को उजागर करना भी आवश्यक है। हिलेरी और तेन्जिंग द्वारा 1953 में दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर ‘सगरमाथा’ यानी ‘माउंट एवरेस्ट’ पर पाँव रखने के बाद से हिमालय में पर्वतारोहण के लिये जाने वाले जत्थों की तादाद लगातार बढ़ रही है। आम लोगों के बीच पर्वतारोहण, ट्रैकिंग तथा अन्य रोमांचक गतिविधियों के प्रति बढ़ता लगाव सचमुच हर्ष का विषय है। इसके बावजूद ऐसी सम्पूर्ण और बढ़ावा देने योग्य गतिविधियों के भी पर्वतों के पर्यावरण तथा परिवेश पर कुछ दुष्प्रभाव पड़े हैं। इस विचित्र परिस्थिति से सिर्फ नागर-शिष्टाचार और पर्यावरण जागरुकता द्वारा नहीं, बल्कि विभिन्न कार्यों के लिये सस्ते, जैविक प्रक्रिया से नष्ट होने वाले कंटेनर तैयार करके ही निपटा जा सकता है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हमारे हिमालय पर्वतारोहण संस्थान (एचएमआई) दार्जिलिंग, नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (निम), उत्तरकाशी तथा पश्चिम हिमालय पर्वतारोहण संस्थान (डब्लूएमएमआई) मनाली, जैसी संस्थान सिर्फ पर्वतारोहण तथा उससे सम्बन्धित रोमांचक गतिविधियों के संवर्धन के लिये ही बेहतरीन कार्य नहीं कर रहे हैं, ये पर्यावरण तथा परिवेश के प्रति जागरुकता भी फैला रहे हैं। इन संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे पाठ्यक्रमों के जरिए प्रशिक्षुओं की दिलचस्पी पहाड़ों में विभिन्न ऊँचाइयों पर उपलब्ध प्राकृतिक दृश्यों और वनस्पतियों में जगाने के साथ ही उन्हें पहाड़ों पर सफाई जैसी पर्यावरण की बुनियादी बातों का सबक भी दिया जाता है।

इस सिलसिले में उन्हें यह बात खासतौर पर सिखाई जाती है कि वे अपनी गंदगी और कूड़े को मिट्टी में हमेशा अच्छी तरह से दबा दें। साथ ही शौचादि से निवृत्त होने के लिये अपने शिविर से नीचे की तरफ जाने की सीख भी दी जाती है। कारण यह है कि बरसात या भूस्खलन होने पर वही मल सड़कर मिट्टी बनने से पहले ही बहकर नीचे आ सकता है। फलों के छिलकों आदि सड़ने लायक कूड़े की अन्य किस्मों के निपटारे के लिये भी यही सिद्धान्त काम आता है। पर्वतीय पर्यावरण के प्रति चेतना की ऐसी तमाम बुनियादी बातें प्रशिक्षुओं को रोमांच के प्रति लगाव के साथ सिखाई जाती हैं।

इस प्रकार हमने देखा कि यदि व्यक्ति में आवश्यक नागर-शिष्टाचार और आस-पास के प्रति लगाव हो तो सड़कर खत्म हो जाने वाले कूड़े का निपटारा कितना आसान, त्वरित और पर्यावरण को सुरक्षित करने वाला है। समस्या दरअसल सड़कर खत्म न हो सकने वाली सामग्रियों के निपटान की है। इसका अन्तिम हल जैविक प्रक्रिया से सड़नशील चीजों के उत्पाद और प्रयोग में निहित है। इस मुहिम में हम सभी को योगदान करना चाहिए।

पर्यटन को हर प्रकार से पर्यावरण अनुकूल बनाने के लिये उसके नियमन के साथ ही पर्वतारोहण, ट्रैकिंग तथा अन्य रोमांचक गतिविधियों के व्यवस्थित नियमन का सवाल भी मुँह बाये खड़ा है। सरकार एमएमआई, निम तथा डब्लूएचएमआई के सक्रिय सहयोग से इसे अंजाम दे रही है। पर्यटन और रोमांचक गतिविधि के नियमन के अन्तर्गत बायोस्फेयर रिजर्व्स यानी जैवपरिधि उद्यान घोषित किए जा चुके स्थानों पर पर्यटन और ट्रैकिंग के लिये जत्थे ले जाने पर पाबंदियाँ लगाई गई हैं। ऐसा ही सबसे सुरक्षित बायोस्फेयर रिजर्व नंदादेवी जैवपरिधि उद्यान है।

यह उद्यान नेदा देवी की चोटी के नीचे बर्फ की शुरुआत और आस-पास के चोटियों से लेकर नीचे पहाड़ की ढलान तथा घाटी की कुछ कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों तक फैला है। इसके भीतर वनस्पतियों, पुष्पों और पादपों की विभिन्न किस्में फल-फूल रही हैं। इस विशाल वानस्पतिक और पुष्पों और पादपों की विविधता के संरक्षण को अक्षुण्ण रखने के लिये नंदा देवी और उनके आस-पास की चोटियों पर पर्वतारोहियों के जत्थों की आवाजाही पर पाबंदियाँ लगा दी गई हैं। साथ ही उन्हें हर हाल में उद्यान के बाहर से चक्कर लगाकर चढ़ाई की इजाजत दी जाती है।

हिमालय और अन्य पर्वत शृंखलाओं के किनारे-किनारे अन्य जैव-परिधि उद्यानों का सीमांकन करके उन्हें अवैध घुसपैठ से बचाने के समान नियम लागू किए जाने से काफी मदद मिल सकती है। ऐसे उपायों से जैव विविधता के हमारे विशाल खजानों के बचाने में काफी मदद मिलेगी। ये खजाने हमारा पारिस्थितिक सन्तुलन बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

कितने पास, मगर कितने दूर केरल की पश्चिमी घाटियों की गहराई में फलफूल रहे ‘साइलेंट वैली’ के जंगल भी प्राकृतिक जैव परिधि उद्यान घोषित किए गए हैं। इनमें भी वनस्पतियों और पुष्प तथा पादपों की कई किस्में मौजूद हैं। उष्ण कटिबंध तथा नीचाई पर जमे होने के कारण ‘साइलेंट वैली’ की वनस्पतियों और पुष्प तथा पादपों की किस्में नंदा देवी उद्यान से एकदम अलग हैं। साइलेंट वैली में वर्षा के वनों की नम वनस्पतियों, पुष्प तथा पादपों की विशाल तथा विशिष्ट जैव विविधता है। वहाँ से 2000 मील दूर नंदा देवी उद्यान में ठंडे और बर्फीले क्षेत्र की वनस्पतियों, पुष्प तथा पादपों की जैव विविधता है। दोनों में समानता बस यही है कि इनमें मौजूद वनस्पति और पुष्प तथा पादपों की आश्चर्यजनक किस्में जैव-विविधता का खजाना हैं।

अपनी विशाल भौगोलिक तथा जलवायु विविधता के साथ भारत में दुनिया की कुछ सबसे समृद्ध वनस्पतियाँ और पुष्प तथा पादपों की किस्में उपलब्ध हैं जिन्हें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किस्मों में शुमार किया जा सकता है। इसके बावजूद यह दुखद है कि हमारी भरपूर तथा विविध प्राकृतिक सम्पदा मनुष्य के घातक प्रहार से नष्ट हो रही है। इस यथार्थ को समझने का हम सबके लिये समय आ गया है कि अच्छे नागरिक के नाते पर्यावरण और परिवेश को संवार कर उसे पहले की तरह अक्षुण्ण बनाने की भरपूर कोशिश हमें करनी चाहिए। उसके बाद भी प्रकृति रूपी माँ को संरक्षित और सुरक्षित करके उसकी पवित्रता स्थापित की जानी चाहिए।

(लेखक ट्रैकिंग और भ्रमण के शौकीन हैं; वर्तमान में क्षेत्रीय प्रचार निदेशालय में संयुक्त निदेशक पद पर कार्यरत हैं।)

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