पर्यावरण से जुड़ी समस्याएँ

30 Jan 2015
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मीठे पानी की मात्रा बहुत बड़ी लगती है, कुल पानी का लगभग 2.5 प्रतिशत। परन्तु कुल मीठा पानी का लगभग 69 प्रतिशत हिमनदी (ग्लेशियर्स) में होता है, लगभग 31 प्रतिशत भूमिगत जल के रूप में होता है। केवल 0.3 प्रतिशत नदी, झील, तालाब इत्यादि में होता है। इसी 0.3 प्रतिशत पानी का उपयोग हम आसानी से कर पाते हैं। पृथ्वी का लगभग 70 प्रतिशत भाग पानी से भरा हुआ है। अन्तरिक्ष से देखने पर यह दृश्य बहुत स्पष्ट हो जाता है। यही कारण है कि लोग पृथ्वी को नीले ग्रह के नाम से भी पुकारते हैं। पृथ्वी पर जल की मात्रा बहुत अधिक है परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि यह मात्रा असीमित है। यह मात्रा सीमित है क्योंकि जो पानी पृथ्वी पर है उसका लगभग 97.5 प्रतिशत नमकीन है। उसमें बड़ी मात्रा में लवण घुला हुआ होता है, सबसे अधिक मात्रा सोडियम क्लोराइड की है। केवल 2.5 प्रतिशत पानी ऐसा है जो नमकीन नहीं है। वही पानी इस योग्य है कि हम उसका उपयोग कर सकते हैं। यही स्थिति दूसरे जीवधारियों की भी है जो समुद्र के बाहर धरती पर रहते हैं। इस पानी को मीठा पानी के नाम से जाना जाता है।

सरसरी तौर पर विचार करने से मीठे पानी की मात्रा बहुत बड़ी लगती है, कुल पानी का लगभग 2.5 प्रतिशत। परन्तु कुल मीठा पानी का लगभग 69 प्रतिशत हिमनदी (ग्लेशियर्स) में होता है, लगभग 31 प्रतिशत भूमिगत जल के रूप में होता है। केवल 0.3 प्रतिशत नदी, झील, तालाब इत्यादि में होता है। इसी 0.3 प्रतिशत पानी का उपयोग हम आसानी से कर पाते हैं। यह मात्रा बहुत बड़ी नहीं है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि जहाँ भी पानी होता है, उसका किसी-न-किसी प्रकार से उपयोग होता है या वह अपना स्थान बदलता रहता है, फिर भी कोई भी संघटक कभी पूरी तरह खाली नहीं होता है। इसका कारण है कि पृथ्वी पर जल सदैव गतिमान रहता है। वह इस प्रकार होता है कि हर जगह से जहाँ भी जल होता है वह वाष्प के रूप में वायुमण्डल में जाता है, फिर उस वाष्प से बादल बनते हैं, फिर बादल से वर्षा, हिमपात इत्यादि के रूप में पानी नीचे आता है। उस पानी का कुछ भाग धरती के भीतर चला जाता है। बचा हुआ भाग सतह पर बहता है, तालाब, नदी, झील इत्यादि में जमा होता है। अन्त में कुछ भाग समुद्र में चला जाता है, कुछ भूमिगत जल में मिल जाता है और कुछ वाष्प के रूप में वायुमण्डल में वापस चला जाता है। पेड़-पौधे मिट्टी में जमा पानी को सोखते हैं और वहाँ से भी वह पानी वाष्प के रूप में वायुमण्डल में जाता है, केवल थोड़ी मात्रा उनके शरीर में जमा रहता है। यही स्थिति दूसरे जीवों के साथ भी है। इस प्रकार जलचक्र चलता रहता है। जो पानी बहुत गहरी चट्टानों में या हिमनदी में जमा होता है वह लम्बे समय के लिए वहाँ रह सकता है और वह आसानी से उपलब्ध भी नहीं होता है।

पानी की बर्बादी


पृथ्वी पर उपस्थित कुल पानी का केवल 0.007 प्रतिशत वह अंश है जो आसानी से उपलब्ध है और जिसका उपयोग हम आसानी से कर सकते हैं। यही मात्रा लगभग सात अरब से अधिक लोगों एवं अन्य जीवों की आवश्यकताओं को पूरा करती है। पानी का उपयोग हम केवल पीने के लिए या भोजन तैयार करने के लिए नहीं करते हैं। इसका उपयोग अन्य क्षेत्रों में भी होता है जैसे कृषि के लिए, अपशिष्टों को स्थानान्तरित करने एवं उपचार के लिए तथा पर्यावरण सन्तुलन बनाए रखने के लिए। उद्योगों में भी अलग-अलग प्रकार से पानी का उपयोग होता है। यह सब सुचारू रूप से भी चल सकता है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। कारण है कि अगर पर्यावरण से पानी उपलब्ध होता है तो उसकी बर्बादी होती भी है। बदलती जीवनशैली के साथ पानी का खर्च बढ़ता ही जा रहा है। पहले लोग कुछ लीटर में नहा लेते थे। अब जिस प्रकार के स्नानघर बनते हैं, उनमें एक व्यक्ति के स्नान में सैंकड़ों लीटर पानी खर्च हो जाता है। यही कारण है कि पिछली शताब्दी में जिस दर से हमारी जनसंख्या बढ़ी है उससे दोगुनी दर से पानी की खपत बढ़ी है। ऐसा अनुमान है कि गत पाँच दशक में विश्व-स्तर पर पानी का खर्च तीन गुना बढ़ा है।

हाल की गतिविधियाँ


अगर हम गत कुछ दशकों पर विचार करें तो पाते हैं कि कई प्रकार की नवीनता, विनियमन तथा संसाधनों के लिए हो रही प्रतिस्पर्धा के कारण समाज में पानी के मामले में अन्तर बढ़ा है। ऐसे राष्ट्र या ऐसे क्षेत्र जो अधिक शक्तिशाली तथा प्रभावशाली हैं, वह अधिक-से-अधिक पानी पर कब्जा करते जा रहे हैं। इसका परिणाम है कि इस समय विश्व-स्तर पर लगभग एक-तिहाई लोगों को पीने के लिए भी पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा है। वर्तमान शताब्दी के मध्य तक विश्व की जनसंख्या का दो-तिहाई भाग पानी की कमी से जूझ रहा होगा। इसके पीछे कई कारण होंगे। कहीं आवश्यकता से अधिक उपभोग तो कहीं बढ़ती गतिविधियाँ तो कहीं जलवायु परिवर्तन।

जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा से सम्बन्धित अनिश्चितताएँ बढ़ेंगी और तापमान बढ़ने से वाष्पीकरण में तेजी आएगी। इन सबके कारण जो समस्याएँ उत्पन्न होंगी उनका अधिकतम प्रभाव गरीब और विकासशील राष्ट्रों पर होगा। ऐसे राष्ट्रों की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अभी भी ऐसा है जिन्हें आवश्यकतानुसार पानी नहीं मिलता है। उनकी समस्याएँ और अधिक बढ़ जाएँगी।

समस्या का आधार


पानी की कमी के बहुत से कारण हैं। एक कारण जो स्वयं हम लोगों से सम्बन्धित है वह यह है कि हम लोग इस सोच के साथ पले-बढ़े हैं कि पानी एक ऐसा संसाधन है जिसका निरन्तर नवीकरण होता रहता है इसलिए इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की चिन्ता की आवश्यकता नहीं है। कुछ हद तक यह सही भी है। प्रकृति अपना काम करती रहती है। हर साल वर्षा होती है और नदियाँ, तालाब, झीलें इत्यादि भरते हैं। यह प्रक्रिया केवल ऐसे समय में अपना प्रभाव नहीं दिखाती है जब सूखा पड़ता है। परन्तु भूमिगत जल के सम्बन्ध में स्थिति अलग है। अगर हम भूमिगत जल के स्रोत लगातार खाली करते रहेंगे तो वर्षा ऋतु में उनका फिर से भरना कठिन हो जाता है क्योंकि पानी के भूमिगत भण्डार तक पहुँचने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है।

पृथ्वी पर जल सदैव गतिमान रहता है। वह इस प्रकार होता है कि हर जगह से जहाँ भी जल होता है वह वाष्प के रूप में वायुमण्डल में जाता है, फिर उस वाष्प से बादल बनते हैं, फिर बादल से वर्षा, हिमपात इत्यादि के रूप में पानी नीचे आता है। उस पानी का कुछ भाग धरती के भीतर चला जाता है। बचा हुआ भाग सतह पर बहता है, तालाब, नदी, झील इत्यादि में जमा होता है। अन्त में कुछ भाग समुद्र में चला जाता है, कुछ भूमिगत जल में मिल जाता है और कुछ वाष्प के रूप में वायुमण्डल में वापस चला जाता है।इसके विपरीत हमारी पानी को निकालने की गति बहुत अधिक है और अब तो हम लोगों ने अन्तःभूमिक स्तर से भी पानी निकालना शुरू कर दिया है। वह ऐसा पानी है जो चट्टानों के बीच होता है और हजारों वर्षों से वहाँ है। वर्षा उस पानी को उस गति से नहीं भर सकती जिस गति से हम उसका उपयोग कर रहे हैं। यही कारण है कि पूरे विश्व में अनेक क्षेत्रों में भूमिगत जल का स्तर गिरता जा रहा है। पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए हम अधिक शक्तिशाली पम्प तथा अधिक कारगर तकनीक का उपयोग करते हैं। परिणामतः वह भण्डार धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। अपने देश में भी यह समस्या बहुत-सी जगहों पर गम्भीर रूप धारण कर चुकी है। कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान इत्यादि में यह समस्या चिन्ताजनक रूप धारण कर चुकी है।

गरीबों तथा छोटे किसानों के पास इतना साधना नहीं होता है कि वह किसी प्रकार पानी की व्यवस्था कर सकें। यही कारण है कि छोटे किसानों की फसल तबाह हो जाती है। उन्हें बहुत नुकसान होता है और किसान आत्महत्या तक कर लेते हैं। यह स्थिति केवल भूमिगत जल के साथ ही नहीं है। तालाबों, झीलों, नदियों इत्यादि से भी हम अधिक-से-अधिक पानी निकाल रहे हैं। यही कारण है कि वर्षा ऋतु के समाप्त होने के कुछ समय बाद से ही वे सूखना शुरू हो जाते हैं। वहाँ भी कम साधन वाले लोग ही प्रभावित होते हैं क्योंकि वह उन पर अधिक निर्भर रहते हैं।

वर्षा की स्थिति


अपने देश में अधिकतर वर्षा कुछ सप्ताह में ही होती है। जून से सितम्बर के बीच लगभग 75 प्रतिशत वर्षा होती है। बाकी महीनों में बहुत कम वर्षा होती है। परन्तु समस्या यह है कि वर्षा तथा हिमपात के रूप में जो पानी गिरता है उसका बहुत छोटा अंश ही जमा होता है, बाकी बेकार जाता है। देश में औसत वर्षा लगभग 1,170 मि.मी. है। अगर कुल वर्षा तथा हिमपात की बात की जाए तो वह लगभग 4,000 अरब घन मीटर है। परन्तु केवल 1,869 अरब घन मीटर ही उपयोग के योग्य होता है। उसमें से भी केवल 1,123 अरब घन मीटर उपयोग होता है। अनुमान है कि कुल वर्षा का केवल 48 प्रतिशत नदियों तक पहुँचता है।

समय के साथ देश में जल संग्रह के साधनों में कमी हुई है। एक तरफ परम्परागत साधनों की ओर से लोगों का ध्यान हटा है तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में तालाब, झील इत्यादि का अतिक्रमण हुआ है और अधिकतर मामलों में उन्हें भर दिया गया है ताकि भूमि उपलब्ध हो सके। ऐसा महानगरों तथा अन्य शहरों में बहुत अधिक हुआ है क्योंकि जमीन की कीमत वहाँ बहुत अधिक है। कई स्थानों पर तो लोगों ने नदियों के नदी तल तक पर कब्जा कर लिया है। एक ओर इन सबके कारण वर्षा जल के संग्रहण में कमी हुई है तो दूसरी ओर कई स्थान पर वर्षा के कारण बाढ़ की सम्भावना अधिक हो गई है।

वनों की भूमिका


वन तथा अन्य वनस्पति क्षेत्र का जल संग्रह में महत्वपूर्ण योगदान होता है। खासकर भूमिगत जल संग्रह में। जिस क्षेत्र में वन पर्याप्त भाग में होते हैं या अन्य प्रकार के पेड़-पौधे स्वस्थ अवस्था में होते हैं वहाँ की मिट्टी सख्त नहीं होती। पेड़-पौधों की जड़ें उसे संघनन होने से बचाती हैं। इस कारण वर्षा होने पर पानी आसानी से भीतर जाता है और नीचे की ओर रिसता है। एक और बात यह है कि पेड़-पौधों की उपस्थिति में सतह पर पानी धीरे बहता है अर्थात् उसे रिसने के लिए अधिक समय मिलता है। इसके अतिरिक्त वनों में तथा जहाँ पेड़-पौधे अच्छी तरह उगते हैं उन जगहों पर जमीन पर गिरी हुई पत्तियाँ, फल, फूल टहनियाँ इत्यादि होती हैं। वह सब वर्षा जल को सोख लेती हैं तथा वर्षा के रुकने के बाद भी पानी उनसे रिसकर बाहर निकलता है। इस प्रकार वर्षा जल को अधिक समय मिलता है मिट्टी के भीतर तथा उसके भी नीचे जाने के लिए।

जब बारिश होती है तो पानी की बूंदें पेड़-पौधों से छनकर नीचे पहुँचती हैं। उनका वेग कम हो जाता है। इस कारण मिट्टी का कटाव नहीं होता है या बहुत कम होता है। हवा के कारण होने वाले मिट्टी के कटाव में भी कमी होती है क्योंकि भूमि पर हवा का प्रभाव कम हो जाता है। पेड़-पौधे हवा की मार को कम कर देते हैं। इस प्रकार भूमि सुरक्षित रहती है। साथ ही बाढ़ का प्रकोप भी कम हो जाता है। यही कारण है कि जब पानी वन क्षेत्र या हरे-भरे क्षेत्र में बहता हुआ जाता है तो उसमें रासायनिक तत्व नहीं होता है या बहुत कम होता है।

जिस क्षेत्र में वन पर्याप्त भाग में होते हैं या अन्य प्रकार के पेड़-पौधे स्वस्थ अवस्था में होते हैं वहाँ की मिट्टी सख्त नहीं होती। पेड़-पौधों की जड़ें उसे संघनन होने से बचाती हैं। इस कारण वर्षा होने पर पानी आसानी से भीतर जाता है और नीचे की ओर रिसता है। चेरापूंजी मेघालय राज्य में है। यह क्षेत्र लम्बे समय से बहुत अधिक वर्षा के लिए जाना जाता रहा है। वहाँ प्रत्येक वर्ष औसतन 1,250 से.मी. वर्षा होती है। कभी-कभी एक दिन में 3 से.मी. वर्षा भी होती है। पास ही मॉसिनरम में और भी अधिक वर्षा होती है। अब उस जगह को विश्व में सबसे अधिक वर्षा वाला स्थान माना जाता है। चिन्ता का विषय यह है कि वर्षा ऋतु के समाप्त होने पर वहाँ पानी की भयंकर कमी हो जाती है। लोगों को प्रत्येक दिन की आवश्यकता पूरी करने के लिए कई कि.मी. चलना पड़ता है। कारण यह है कि वनों के कटने के कारण नदियाँ, झरने तथा अन्य जल-स्रोत सूखने लगते हैं। वनों के कटने के कारण ढलानों तथा चट्टानों पर से मिट्टी भी बह चुकी है। इस कारण पेड़-पौधों के उगने में भी कठिनाई आती है।

वर्तमान में लगभग 23.7 प्रतिशत क्षेत्र में ही वन हैं और उनकी भी स्थिति अच्छी नहीं है। लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र में या तो वन हैं ही नहीं, केवल अभिलेख में उन जगहों को वन का दर्जा मिला हुआ है या फिर बहुत ही निम्न दर्जे के वन हैं। उपनिवेशीय काल में 1850 से 1920 के बीच बहुत बड़े पैमाने पर वनों को काटा गया था। बाद में भी यह सिलसिला चलता रहा। लगभग 330 लाख हेक्टेयर क्षेत्र से जंगलों को नष्ट कर दिया गया था। स्वतन्त्रता के उपरान्त भी यह सिलसिला रूका नहीं।

1988 की राष्ट्रीय वन नीति में लक्ष्य बनाया गया कि देश में 33 प्रतिशत भूमि पर वन होंगे। फिर 2002 में नीति को संशोधित किया गया और उस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2012 का निर्धारण हुआ। परन्तु अधिक सफलता नहीं मिली। वर्ष 2009 से 2011 के बीच लगभग 5,330 वर्ग कि.मी. क्षेत्र वन-भूमि का अपवर्तन हुआ। उस अवधि में लगभग 4,970 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में वृक्षारोपण अवश्य हुआ परन्तु प्राकृतिक वन तथा वह क्षेत्र जहाँ वृक्षारोपण किया गया है दोनों की तुलना नहीं हो सकती है।

जल तथा कृषि कार्य


देश की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। एक ओर बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन की व्यवस्था करना, दूसरी ओर समय के साथ लोगों की आकांक्षाएँ भी बढ़ रही हैं। कुल मिलाकर देश को कृषि उत्पादन के लिए सिंचाई में सुधार लाना है। अच्छी बात यह है कि विश्व-स्तर पर भारत दूसरे स्थान पर आता है। केवल अमेरिका में भारत से अधिक सिंचित भूमि है लेकिन हमारे यहाँ किसान प्रायः आवश्यकता से अधिक सिंचाई करते हैं। रिसाव के कारण भी बहुत पानी बेकार जाता है। आवश्यकता से अधिक सिंचाई के कारण ऊर्जा भी नष्ट होती है। नेशनल कमिशन फॉर इण्टीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेण्ट (एनसीआईडब्ल्यूआरडी) के अनुसार कुल उपलब्ध पानी का लगभग 83 प्रतिशत कृषि सिंचाई के लिए खर्च होता है। बाकी 17 प्रतिशत से शेष सभी आवश्यकताएँ पूरी की जाती हैं।

भूमिगत जल-स्रोत का महत्व


एक अनुमान के अनुसार देश में उपलब्ध भूमिगत जल 10,812 अरब घन मीटर है। दूसरी ओर यह अनुमान है कि हर वर्ष वर्षा तथा नदियों द्वारा 432 अरब घन मीटर पानी भूमिगत जल के स्रोत में जाता है। 432 में से 395 अरब घन मीटर पानी उपयोग के योग्य होता है। जिसका लगभग 82 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में लगता है और बाकी 18 प्रतिशत से दूसरी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। जैसे—जैसे पानी की खपत बढ़ रही है भूमिगत जल अधिक निकाला जा रहा है। दिल्ली में भूमिगत जल का स्तर हर वर्ष लगभग 40 से.मी. नीचे चला जाता है। ऐसी ही स्थिति अन्य बड़े नगरों तथा दूसरी जगहों पर भी है। एक अनुमान के अनुसार देश में लगभग 200 लाख कूप हैं और वह हमारी अलग-अलग प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। इनसे जो पानी निकाला जाता है उसकी कीमत नहीं चुकानी पड़ती है। इस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है। वहीं दूसरी तरफ पुनर्प्रयोग की व्यवस्था भी नहीं है। परिणामतः वह अधिक-से-अधिक पानी का उपयोग करते हैं। और दूसरी ओर उनके द्वारा दूषित जल की बड़ी मात्रा पर्यावरण में पहुँचती है और इस प्रकार पर्यावरण को हानि पहुँचाती है।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनआईसीईएफ ने अपने रिपोर्ट में बताया है कि भारत में कुल अपशिष्ट तथा दूषित जल की केवल 10 प्रतिशत मात्रा का ही उपचार हो पाता है। बाकी 90 प्रतिशत पर्यावरण को दूषित करता है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनआईसीईएफ ने अपने रिपोर्ट में बताया है कि भारत में कुल अपशिष्ट तथा दूषित जल की केवल 10 प्रतिशत मात्रा का ही उपचार हो पाता है। बाकी 90 प्रतिशत पर्यावरण को दूषित करता है। हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि भारत में भूमिगत जल की जितनी मात्रा निकाली जाती है उससे बहुत कम मात्रा की ही भरपाई हो पाती है। यही कारण है कि कृषि के लिए, उद्योग के लिए, घरों के लिए तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए पानी की कमी हो रही है। कई क्षेत्र में सिंचाई के लिए पानी नहीं है तो बहुत-सी जगहों पर पानी की कमी के कारण उद्योग को अपनी रफ्तार सुस्त करनी पड़ती है। दिल्ली से सटे गुड़गाँव में तो स्थिति इतनी खराब हो गई है कि उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा है और भूमिगत जल-स्रोत को बचाने के लिए एक खास तरह का आदेश देना पड़ा है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव


जल और स्वास्थ्य का गहरा सम्बन्ध है। पानी की कमी का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। कमी के कारण लोगों के पास विकल्प नहीं होते हैं। अगर पानी की गुणवत्ता अच्छी नहीं भी हो तो भी लोग उसका उपयोग करते हैं। इस कारण स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। दूसरी ओर पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो तो उसका भी स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। लोग अच्छी तरह से साफ-सफाई नहीं रख पाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 14 प्रतिशत लोगों के लिए ही शौचालय उपलब्ध हैं। शहरी क्षेत्र में भी खासकर झुग्गी-झोपड़ियों में यह सुविधा बहुत कम है। फिर पानी की कमी के कारण लोग शरीर तथा हाथ भी ठीक से नहीं धोते हैं। इस कारण भी अनेक प्रकार के रोग फैलते हैं। बच्चे इस स्थिति से अधिक प्रभावित होते हैं।

पाँच वर्ष से कम उम्र के शिशुओं में मृत्यु का मुख्य कारण वह रोग हैं जो पानी के सन्दूषण तथा साफ-सफाई की कमी के कारण होते हैं। यूएनआईसीईएफ के अनुसार हर वर्ष 6,00,000 बच्चे ऐसी बीमारियों के कारण मरते हैं जो सन्दूषित जल या सफाई की कमी के कारण होते हैं। विश्व बैंक के अनुसार भारत में संक्रामक रोगों का 21 प्रतिशत पानी से सम्बन्धित होते हैं। केवल दस्त के कारण प्रत्येक दिन 1,600 लोग मृत्यु के शिकार होते हैं।

यूएनआईसीईएफ की एक रिपोर्ट में हाल ही में यह स्पष्ट किया गया है कि उद्योगों से तथा नगरपालिका क्षेत्र से निकलने वाले दूषित जल का केवल 10 प्रतिशत ऐसा होता है जिसे उपचार के बाद बहाया जाता है, बाकी के 90 प्रतिशत बिना उपचार के ही नदियों, झीलों, समुद्र या भूमि पर छोड़ दिया जाता है। देश में एक भी ऐसी नदी या झील नहीं है जो प्रदूषित न हो। भूमिगत जल अधिकतर जगहों पर वह भी प्रदूषण का शिकार है। फिर भी लोग उन्हीं जल-स्रोतों का उपयोग करते हैं क्योंकि अन्य कोई साधन नहीं हैं।

सम्भावनाएँ


ऐसा नहीं लगता है कि भविष्य में मीठे पानी की उपलब्धता में तेजी से सुधार होगा। इसके अनेक कारण हैं। सरकार इस सम्बन्ध में योजनाएँ तैयार करने तथा उन्हें लागू करने में सख्ती नहीं दिखा पा रही हैं। इस सम्बन्ध में भ्रष्टाचार भी एक बड़ा मुद्दा है। प्रदूषण उत्पन्न करने वालों को किसी प्रकार का डर नहीं है। नदियों, झीलों इत्यादि की स्थिति सुधारने के लिए कई हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं परन्तु उनकी हालत दिन पर दिन खराब हो रही है। इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है यमुना नदी। दिल्ली में यमुना की स्थिति और भी चिन्ताजनक है। दिल्ली में कई तालाब, झील इत्यादि हैं। कुछ दिनों पहले की एक रिपोर्ट से यह पता चलता है कि उनमें से 58 प्रतिशत सूख चुके हैं या उनका अतिक्रमण हो रहा है। बचे हुए झील-तालाब की भी हालत खराब है। स्थिति इस हद तक खराब है कि अदालतों को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ता है। जब ऐसा होता है तो कुछ दिनों के लिए हालात बेहतर होते हैं परन्तु फिर से स्थिति वैसी ही हो जाती है। यहाँ यह समझना जरूरी है कि इस स्थिति का प्रभाव पूरे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।

वर्ष 2050 तक देश की जनसंख्या 1.6 अरब होने की उम्मीद है। ऐसे में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता और भी कम हो जाएगी। अभी भी देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता विश्व मानदण्ड से बहुत कम है, वह और कम हो जाएगी। उसका प्रभाव अनेक प्रकार से पड़ेगा। वर्तमान में जो खाद्य सामग्री उत्पन्न की जा रही है उसका लगभग एक-चौथाई ऐसे पानी से सिंचाई होता है जो भूमि के अन्दर से निकाला जाता है और जिसे प्रकृति पुनःपूर्ति नहीं कर रही है। तात्पर्य यह है कि जल्द ही कृषि पर दबाव बढ़ेगा और हरित-क्रान्ति पर खतरे के बादल छा जाएँगे। स्थिति सुधारने के लिए हमें अनेक प्रकार के विकल्प की ओर ध्यान देना होगा। अपने देश का बहुत बड़ा भाग समुद्र से घिरा हुआ है। अगर समुद्र के जल का विलवणीकरण बड़े पैमाने पर किया जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है।

इस समय जितना पानी नगरपालिकाएँ लोगों को पहुँचाती हैं उसका एक प्रतिशत भी इस प्रकार का नहीं होता है। यह प्रक्रिया महंगी है क्योंकि इसमें ऊर्जा की खपत बहुत होती है परन्तु समय के साथ और नयी खोज की सहायता से स्थिति सुधर रही है। उदाहरण के लिए लक्षद्वीप में समुद्रतट के निकट के पानी में तापक्रम थोड़ी गहराई के साथ तेजी से बदलता है। उसका लाभ उठाकर बहुत कम ऊर्जा खर्च कर समुद्र के पानी का विलवणीकरण किया जाता है। इस प्रकार की सम्भावनाओं की तलाश होनी चाहिए।

कृषि क्षेत्र में बहुत से नये शोध हुए हैं। एक ओर ऐसी फसलें तैयार की गई हैं जो अपेक्षाकृत कम पानी से भी उपज पूरी देती हैं। उनका उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए। सिंचाई के लिए भी नये-नये साधन उपलब्ध हैं जिनके उपयोग से बहुत कम पानी से काम चलाया जा सकता है, उनको प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कृषि क्षेत्र में बिजली की दर में जो आर्थिक सहायता दी जाती है या मुफ्त बिजली का प्रावधान है उसे समाप्त करना चाहिए। उस कारण केवल पानी की बर्बादी नहीं होती है, साथ में भूमि का भी निम्नीकरण हो रहा है। भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगना चाहिए। अन्यथा बहुत जल्द देश का विकास पानी की कमी एवं गुणवत्ता के कारण रूक जाएगा।

(लेखक वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय में निदेशक रह चुके हैं)
ई-मेल : asrarulhoque@hotmail.com

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