पर्यावरण संरक्षण की जरूरी पहल

27 Oct 2010
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पर्यावरण सुरक्षा और पर्यावरण संबंधी विवादों के यथासमय निस्तारण के लिए आखिरकार देश में अलग से पर्यावरण अदालत की स्थापना हो ही गई।

पर्यावरण और वन राज्यमंत्री जयराम रमेश द्वारा राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के गठन के औपचारिक ऐलान के साथ ही हम दुनिया के उन चुनिंदा मुल्कों में शामिल हो गये हैं, जहां पर्यावरण संबंधी मामलों के निपटारे के लिए राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधिकरण होते हैं। न्यायाधिकरण का मुख्यालय राजधानी दिल्ली होगा। शुरू में देश में अलग-अलग चार स्थानों पर इसकी पीठ कायम होंगी। मामलों के आधार पर भविष्य में इनकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। इसकी सबसे खास बात यह है कि किसी को यदि लगता है कि पर्यावरण और वन मंत्रालय के नियम, नीतियां या उसकी ओर से किया गया कार्यान्वयन मनमाना, अपारदर्शी और पक्षपातपूर्ण है, तो वह बेझिझक न्यायाधिकरण में इंसाफ की गुहार लगा सकता है।

लोकसभा में पिछले बजट सत्र में पर्यावरण सुरक्षा और वनीकरण से जुड़े हरित अधिकरण विधेयक को हरी झंडी मिलने के बाद से ही राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के गठन की कवायद शुरू हो गई थी। वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के चलते आज पर्यावरण सुरक्षा और संरक्षण एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। विकसित हों या विकासशील, दोंनो ही तरह के देश अपने स्तर पर पर्यावरण सुरक्षा को बेहतर बनाने की दिशा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जाहिर है, यह समय की दरकार है। हमारे यहां भी जलवायु संकट और पर्यावरण के खतरों को देखते हुए, इस तरह के न्यायाधिकरण की जरूरत बरसों से महसूस हो रही थी। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण रातों-रात अस्तित्व में नहीं आ गया। सरकार की इस पहल के पीछे कई अदालती फैसले और विधि आयोग की 186 वीं रिपोर्ट है।

बहरहाल, सरकार ने न्यायाधिकरण को दायित्व और अधिकार के मामले में काफी सशक्त बनाया है। उसे पर्यावरण मामलों में दोषी पाये जाने वालों को सजा, जुर्माना और प्रभावितों को मुआवजे का आदेश देने का अधिकार होगा। वह व्यक्तिगत तौर पर दस करोड़ या किसी कंपनी पर 25 करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगा सकता है। यही नहीं, अपराध की गंभीरता देखते हुए अपराधी को सश्रम कारावास जैसी सख्त सजा भी वह सुना सकता है। हां, यदि कोई पक्षकार फैसले से आश्वस्त नहीं है तो वह सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है। लंबित न्याय चूंकि हमारी न्याय व्यवस्था सबसे बड़ी खामी है, अत: इसके मद्देनजर सरकार ने बंदोबस्त किया है कि पंचाट छह महीने की समय सीमा में शिकायत का निपटारा करे। न्यायाधिकरण जहां पर्यावरण नियमों का उल्लंघन होता देखे, स्वत: इसका संज्ञान लेकर जरूरी कार्रवाई भी कर सकता है।

आज दुनिया में पर्यावरण ह्रस और असंतुलन यूरोपीय पूंजीवादी विकास नीतियों का नतीजा है आैर हमारे देश के नीति नियंता भी इन्हीं के नक्शे कदम पर हैं। देश के तमाम हिस्सों में चल रही खनन परियोजनाओं और बड़े-बड़े बांधों के चलते जहां लाखों लोग विस्थापित हुए हैं, वहीं पर्यावरण का व्यापक स्तर पर विनाश हुआ है। औद्योगीकरण के लिए जहां अंधाधुंध खनन किया गया वहीं उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर परंपरागत खेती और वानिकी छोड़ व्यावसायिक खेती को बढ़ावा दिया गया। परिणामस्वरूप पर्यावरण का भारी विनाश व परंपरागत आजीविका का खात्मा शुरू हुआ। पूंजीवादी ताकतों द्वारा विकास की इस विनाशकारी प्रक्रिया चलाने का एक ही मकसद था, अपने मुनाफे में बढ़ोतरी! मुनाफा बढ़ा लेकिन लोगों को विस्थापित कर और पर्यावरण नष्ट-भ्रष्ट कर।

स्वार्थी तत्वों ने मुल्क के अकूत प्राकृतिक संसाधनों की जिस तरह से लूट-खसोट की, उससे इन संसाधनों पर निर्भर व्यापक जन समुदायों के सामने भयानक संकट खड़ा हो गया है। इससे एक तरफ, जहां उनकी आजीविका के संसाधन खत्म होते चले गए, वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण का भी बड़े पैमाने पर हश्र हुआ। हुकूमतें इन ताकतों के खिलाफ जरूरी कार्रवाई करने के बजाए मददगार और मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रहीं हैं। नतीजे में दिन-ब-दिन पर्यावरण संतुलन बिगड़ता चला गया।

विकास हो लेकिन पर्यावरण की कीमत पर नहीं। इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अब राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन किया है। उम्मीद है, इसके अस्तित्व में आने से मुल्क के पर्यावरणीय हालात में सुधार आएगा और पर्यावरण विनाश पर लगाम लगेगी।
 
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