पर्यावरण संरक्षण प्राधिकरण की तैयारी शुरू

19 Sep 2009
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नई दिल्ली। देश में पर्यावरण प्रबंधन के रद्दी के कानूनों को प्रभावी बनाने और पर्यावरण कानूनों के पालन की पहरेदारी की जिम्मेदारी प्रस्तावित पर्यावरण संरक्षण प्राधिकरण को देने की है। सरकार ने एक नए प्राधिकरण का खाका पेश किया है।

राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण प्राधिकरण [नेपा] पर संबंधित पक्षों के विचार आमंत्रित करने के लिए चर्चा पत्र जारी करते हुए पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि इस संस्था के सहारे मंत्रालय का बोझ कम करने में मदद मिलेगी। उन्होंने बताया कि नेपा एक कार्यकारी संस्था होगी जिसमें अफसरशाही कम और विशेषज्ञ ज्यादा होंगे। चर्चा पत्र में मंत्रालय ने नेपा के कामकाज और गठन के कई माडल पेश किए हैं। इस चर्चा पत्र के मुताबिक सरकार पर्यावरण मंजूरी देने का अधिकार भी प्रस्तावित नेपा को देना चाहती है जो काम अभी तक मंत्रालय के जिम्मे था। साथ ही देश में पर्यावरण कानूनों के अनुपालन और क्रियान्वयन का प्रबंधन भी इसी प्रस्तावित नेपा के पास होगा। उन्होंने बताया कि नवंबर के पहले सप्ताह तक नेपा की सूरत तय कर ली जाएगी।


कृपया मूल ड्राफ्ट अटैचमेंट में देखें


इस मौके पर रमेश ने कहा कि देश में देर-सवेर पर्यावरण के नुकसान के अनुपात में ही दंड और भरपाई के नियमों को लागू करना ही पड़ेगा। हालांकि उन्होंने कहा कि भारत में पर्यावरण संरक्षण के नियम को कड़ा करने से ज्यादा जरूरी उनका प्रभावी क्रियान्वयन है।

अप्रभावी है, पर्यावरण प्रभाव आंकलन का कानून


सन् 1994 में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण प्रभाव आंकलन उर्फ ‘इनवायर्नमेंट इम्पेक्ट असेसमेंट’ (ई.आई.ए.) पर एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके अनुसार औद्योगिक तथा विकासपरक गतिविधियों की खातिर केन्द्र सरकार की पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के लिए आंकलन अनिवार्य हो गया है।

इसमें परियोजनाओं के संभावित पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करना होता है ताकि संभावित लागत तथा उसके लाभों को सुनिश्चित किया जा सके।

इस सारी कवायद का उद्देश्य पर्यावरण तथा सामाजिक नुकसानों को कम या उन प्रभावों को न्यूनतम करना है जिन्हें संशोधनों के पैबंद लगा दिए गए हैं। इस बारे में उत्तरांचल स्थित गैर-सरकारी संगठन ‘अकेडमी फार माउंटेन एनवायरोनिक्स’ के प्रमुख श्रीधर आर, कहते हैं कि सार्वजनिक सुनवाई की अनिवार्यता जैसे कुछ संशोधन अच्छे हैं लेकिन अन्य अधिकांश संशोधनों ने मूल अधिसूचना को कमजोर ही बनाया है।

समय परियोजनाओं के स्थल चयन के साथ शुरू होती है। पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना के मुताबिक केवल 8 प्रकार की परियोजनाओं में ही स्थल चयन की आवश्यकता है जबकि अधिकांश मामलों में परियोजना की जगह का सर्वाधिक महत्व होता है ताकि पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों को न्यूनतम किया जा सके। लोगों को सूचित किए बिना परियोजना स्थलों को चुनने से उनका प्रभाव पड़ता है। शायद इसीलिए लोग शुरूआत से ही इससे असहमत होते हैं।

इसके बाद आती है पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ई.आई.ए.) रिपोर्ट की तैयारी और लागू करने की। नियमानुसार किसी भी एजेंसी की परियोजना प्रस्तावक यह कार्य सौंप सकता है। ऐसे में यह एजेंसी प्रस्ताव की समर्थक हो जाती है। एक गैर-सरकारी संगठन ‘दिल्ली फोरम’ के सुपर्णो लाहिड़ी प्रश्न उठाते हैं कि जब कोई आपको रिपोर्ट तैयार करने के लिए पैसे देता है तो क्या आप उसके विरुद्ध फैसला देंगे?

कई बार तो ऐसा भी होता है कि जांच एजेंसी नियमानुसार खुद आंकड़े इकट्ठे करने की जहमत तक नहीं उठाती और वह परियोजना प्रस्तावक द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को ही स्वीकार कर लेती है। उद्योगों की ‘ई.आई.ए.’ रिपोर्ट भी किसी समस्या से कम नहीं होती। उदाहरण के लिए जिस किस्म की मशीनें और तकनीकें लगाई जाती हैं, उसे एक महत्वपूर्ण मापदण्ड नहीं माना गया है। उन कंपनियों को भी मंजूरी दी गई है जो बरसों पुरानी तकनीक स्थापित करती है। इसी तरह मात्र 32 उद्योगों को सर्वोच्च प्रदूषण फैलाने वाले मानते हुए उनके लिए ‘ई.आई.ए.’ की अनिवार्यता लागू की गई। इन्हें ऐसे उद्योग माना गया है जिनका पर्यावरण और लोगों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। लेकिन इन मापदण्ड में उन उद्योगों पर विचार नहीं किया गया है जिनकी आपूर्ति या उत्पाद पर्यावरण पर असर डालते हैं। इस वर्ग में आने वाले बोतल बंद पानी और शीतल पेय उद्योगों को बख्श दिया गया है जो भूजल को उलीचते हैं और आस-पास के वातावरण पर भी भारी प्रभाव डालते हैं।

पर्यावरण मंजूरी की संपूर्ण प्रक्रिया में जन सुनवाई द्वारा जन भागीदारी अनिवार्य है लेकिन इसे पूरी तरह नकार दिया जाता है और अधिकांश मामलों में निश्चित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता।

फिर आखिर नेपा को कैसे प्रभावी बनाया जाए, यह सबकी जिम्मेवारी बनती है।
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