पर्यावरण संरक्षण विकास में महत्व

17 Oct 2015
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पर्यावरण संरक्षण कोई फैशन की बात नहीं बल्कि एक अनिवार्यता है, यह समझना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। सबसे पहले केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन को प्राकृतिक संसाधनों का लेखा-जोखा तैयार करने की कोई पद्धति विकसित करनी चाहिए। लेखक का कहना है कि इस लेखे-जोखे को राष्ट्रीय आय की गणना के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए ताकि लोगों को पर्यावरण ह्रास से होने वाली हानियों की जानकारी मिल सके।स्वाधीनता के पचास वर्षों बाद आज देश को आत्मचिन्तन करके नए सन्दर्भों को समझने की आवश्यकता है। देश अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास, ठोस आर्थिक प्रगति (विशेषकर 1992-96 के बीच की स्वस्थ आर्थिक वृद्धि दर) और मजबूत वैज्ञानिक तथा तकनीकी आधार की स्थापना पर गर्व कर सकता है लेकिन अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ भारत को सफलता मिलनी बाकी है। देश में करोड़ों लोग अब भी बेहद गरीबी में जी रहे हैं। बड़े पैमाने पर लोग निरक्षर हैं। अब भी चिकित्सा की आधुनिक सुविधाएँ कुछ ही लोगों को मिल पा रही हैं। देश के विभिन्न भागों में लोगों को पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं कराई जा सकी हैं। प्रचार माध्यम इन समस्याओं को बराबर उजागर करते रहते हैं। शायद इसी कारण इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर जनता और सरकार में निर्णय के महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों का ध्यान गया है। तथापि पूर्वजों से विरासत में मिली विपुल प्राकृतिक सम्पदा और पर्यावरण के संरक्षण के प्रति भारतीय समाज की उदासीनता के मुद्दे पर अभी बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है।

टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टिच्यूट (टेरी) ने ‘ग्रीन इंडिया 2047’ नामक परियोजना के अन्तर्गत पिछले तीन वर्षों में इस दिशा में एक बड़ा प्रयास किया है। यहाँ ‘ग्रीन’ का अर्थ है- ग्रोथ विद रिसोर्स एनहान्समेंट ऑफ एनवायरन्मेंट एंड नेचर, अर्थात पर्यावरण और प्रकृति के संसाधनों के संवर्धन से जुड़ा विकास। इसमें पिछले 50 वर्षों में हुए देश के प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास और कमी के भौतिक-आर्थिक पहलुओं का व्यवस्थित अध्ययन किया जा रहा है। मजे की बात यह है कि पूरी परियोजना निजी क्षेत्र की मदद से चल रही है जबकि इस शोध के परिणामों से प्रायोजकों को तत्काल कोई लाभ नहीं होने वाला है। इससे देश में इस नई प्रवृत्ति का संकेत मिलता है कि अब काॅरपोरेट जगत में व्यवसायिक नैतिकता और सामाजिक दायित्व की भावना बढ़ रही है।

ग्रीन इंडिया 2047 के पहले चरण के अध्ययन से यह पता चला है कि पर्यावरण प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के नाश से सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 10 प्रतिशत से अधिक नुकसान हो रहा है। परियोजना में 50 वर्ष की अवधि इसलिए रखी गई क्योंकि ऐसी कोई लेखा प्रणाली विकसित नहीं हुई है जिससे देश में प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी की वार्षिक या पंचवर्षीय रिपोर्ट तैयार की जा सके। कई देशों में प्राकृतिक संसाधनों की गणना की जा रही है लेकिन इसके लिए शोधकर्ता जिन पद्धतियों को अपना रहे हैं वे अभी राष्ट्रीय आय गणना की पद्धतियों की तरह मान्यता प्राप्त नहीं कर सकी हैं। इसलिए शोधकर्ताओं को उपलब्ध आँकड़ों के ही मूल्यांकन पर निर्भर करना पड़ता है। कभी-कभी उन्हें लोकचर्चाओं को साक्ष्य मानकर भी चलना पड़ता है। कृषि उत्पादन में निरन्तर वृद्धि भारत की एक बड़ी सफलता है। इसमें 1960 और 1970 के दशक की हरित क्रांति की बड़ी भूमिका है। लेकिन इसके लिए किसानों ने जिस भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों कीटनाशकों और पानी का इस्तेमाल किया उसकी बड़ी लागत चुकानी पड़ रही है। उदाहरण के लिए 1971 से 1994 एवं 95 के बीच यूरिया, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों के प्रयोग में करीब छह गुना वृद्धि हुई। रासायनिक उर्वरक केवल प्रमुख पोषक तत्व ही प्रदान करते हैं और उनके द्वारा पौधों को पूर्ण खुराक नहीं मिल पाती। इसी तरह कीटनाशकों के अतिशय प्रयोग से मधुमक्खियों और केंचुओं का नाश हो जाता है। इस प्रकार के प्राकृतिक असन्तुलन से आर्थिक उत्पादन गिरता है। इस बात पर पहले ध्यान नहीं दिया गया है और इसे राष्ट्रीय आम की गणना के समय भी शायद छोड़ ही दिया जाता है। बिजली की दरें तर्कपूर्ण न होने से भूमिगत पानी का अनावश्यक दोहन हुआ है। इससे देश के कई क्षेत्रों में पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया है और गाँवों में शताब्दियों से पानी के लिए कुओं पर आश्रित लोगों को पानी मिलना कठिन हो गया है। भूमिगत जल की बर्बादी को तालिका-1 में देखा जा सकता है।

1965/66 में सिंचित क्षेत्रों के एक-तिहाई इलाकों में ट्यूबवैलों से सिंचाई होती थी। 1997 में इनका हिस्सा आधा हो गया। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली, गाजियाबाद और हैदराबाद में बड़ी संख्या में महिलाओं को घर की जरूरत का पानी इकट्ठा करने के लिए हर रोज चार-चार घंटे बेकार करने पड़ते हैं। इसकी औसत लागत बहुत ज्यादा बैठती है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से उसकी गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है और खारापन बढ़ रहा है। शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में अक्सर खारे जल की सतह, मीठे जल के ऊपर पाई जाती है। जलस्तर घटने पर जब ट्यूबवैलों की बोरिंग और गहरी की जाती है तो खारा पानी मीठे पानी में मिल जाता है। तटीय क्षेत्रों में गंदे नालों का पानी रिसकर जल स्रोतों में मिलने से स्थिति और भी गम्भीर हो गई है।

तालिका-1

भूमिगत जल संरचना में उत्तरोत्तर परिवर्तन (1947 से 1997)

 

वर्ष

कुएँ (मिलियन)

निजी कम गहराई के ट्यूबवैल (हजार)

गहरे ट्यूबवैल

(हजार)

1947

3.5

1

1.7

1950/51

3.9

3

2.4

1968/69

6.1

360

14.6

1973/74

6.9

1000

22.0

1978/79

7.7

1960

32.6

1984/85

8.7

3360

46.2

1993/94

10.2

5040

69.4

1997

10.9

6020

83.2

नोट: मिलियन = 10 लाख

 


देश में मिट्टी के कटाव की समस्या भी गम्भीर रूप ले चुकी है और इसकी बड़ी आर्थिक लागत चुकानी पड़ रही है। ग्रीन इंडिया 2047 के अनुमानों के अनुसार मिट्टी के कटाव के कारण कृषि उत्पादन में 11 से 26 प्रतिशत की हानि हो रही है। अस्सी प्रतिशत कटाव पानी और हवा के कारण होता है। 1977 से 1997 के बीच भूमि कटाव से प्रभावित क्षेत्र दुगुना हो गया है। घने जंगलों, बर्फीली मरुभूमियों और पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में हर वर्ष प्रति हेक्टेयर पाँच टन मिट्टी का कटाव होता है। शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र में तो यह आँकड़ा 80 टन प्रति वर्ष है। हर वर्ष 64 प्रतिशत मिट्टी का कटाव शिवालिक, पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर राज्यों में होता है। इसमें से करीब 30 प्रतिशत मिट्टी समुद्र तथा 10 प्रतिशत जलाशयों में चली जाती है।

उत्पादन की निरन्तरता के लिए प्राकृतिक संसाधनों को विनाश से बचाने के साथ-साथ पर्यावरण का संरक्षण भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए वन-वृद्धि की वर्तमान वार्षिक दर केवल 8 करोड़ 80 लाख घन मीटर है जबकि इसे 14 से साढ़े तेईस करोड़ घन मीटर तक बढ़ाया जा सकता है। जंगल सदियों से बड़ी संख्या में लोगों की आजीविका के साथ-साथ औद्योगिक गतिविधि का मुख्य आधार रहे हैं जो अब लकड़ी की कमी से प्रभावित होने लगी है। ईंधन की लकड़ी की वर्तमान मांग एवं वन संसाधनों द्वारा उसकी आपूर्ति के बीच बहुत बड़ा अंतर है।

जैव-विविधता के लिए खतरा


वनों के कटाव से हमारी समुद्री जैव विविधता के लिए गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है। जैव विविधता न केवल कृषि के लिए एक बड़ी सम्पत्ति है बल्कि औषधि निर्माण और अन्य कार्यों के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण है। फसलों और पौधों को कीट और बीमारियों से बचाने में भी प्रायः वर्तमान प्रजातियों की प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता सहायक होती है। 1970 के दशक में जब दक्षिण-पूर्व एशिया में धान की फसलों पर वायरस का प्रकोप हुआ था, उत्तर प्रदेश में धान की एक जंगली प्रजाति ‘ओरिजा निवारा’ से प्राप्त जीन से फसल का बचाव हुआ था। वर्तमान जैव विविधता साढ़े तीन अरब वर्ष के प्राकृतिक विकास का परिणाम है। इसमें प्रजाति उद्भव विस्थापन और विलोप तथा हाल के वर्षों में मानवीय प्रयासों का योगदान रहा है। पिछले 100 वर्षों में औद्योगिक गतिविधियाँ बढ़ने से जैव-विविधता लगातार खत्म हो रही है। अब गैर-घरेलू पौधों और जानवरों की प्रजातियाँ पहले से कम हो चुकी हैं। चीता, एक सींग वाला गैंडा और गुलाबी सिर वाली बत्तख जैसी 23 प्रजातियों के पशु-पक्षी लुप्त हो गए बताए जाते हैं। भारत में आज पौधों और जीव-जन्तुओं की करीब 750 प्रजातियाँ नाश के कगार पर हैं। इसका मुख्य कारण है जनसंख्या का बढ़ता दबाव, उपभोग में वृद्धि तथा संसाधनों के उपयोग में कुशलता की कमी।

जैव-विज्ञानी समाज और सरकार को जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों के विनाश के भयावह परिणामों से आगाह कराते रहे हैं। जीन पूल का हर जीन और हर प्रजाति का जीव-जन्तु मानव जाति के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी है। जैव विविधता पर्यावरण की अंतरक्रियाओं के जोखिमों के प्रति बीमा की तरह भी कार्य करती है। जैव विविधता से प्रजातियों को अपनी उपयोगी पारिस्थितिकीय और आर्थिक भमिका निभाने में मदद मिलती है। औषधि के क्षेत्र में ज्यादातर प्रगति जैव विविधता के संसाधनों की पहचान से ही सम्भव हो सकी है।

भारत में जल प्रदूषण भी खतरनाक ढंग से बढ़ रहा है और इसका जन-स्वास्थ्य पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। विभिन्न कार्यक्रमों के तहत 480 स्थानों पर नदियों के पानी की जाँच की जाती है। पानी की गुणवत्ता और उसके प्रयोग का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जाता है:

क-श्रेणी : परम्परागत शोधन के बिना लेकिन संक्रमण दूर करके पीने योग्य।
ख-श्रेणी : नहाने, तैराकी और जलढोरों के लिए उपयुक्त।
ग-श्रेणी : परम्परागत तरीके से साफ करके पीने योग्य।
घ-श्रेणी : मछली पालन और वन्यजीवन के लिए उपयुक्त।
च-श्रेणी : सिंचाई, औद्योगिक शीतलन और नियन्त्रित कचरा निपटान के लायक।

भारत में अधिकतर नदियों का पानी ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी का है। भारत में अधिकतर बीमारियाँ दूषित जल के प्रयोग के कारण होती हैं। जल शोधन की सस्ती प्रौद्योगिकी उपलब्ध है लेकिन संस्थाओं के आगे न आने और संसाधनों की कमी के कारण दूषित जल की समस्या बनी हुई है।

संस्थान परिवर्तन


जन-कल्याण बढ़ाने के लिए विकास की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने हेतु संस्थागत परिवर्तनों की पहचान जरूरी है। जब तक स्थानीय विशेषज्ञता का उपयुक्त विकास और उपयोग, वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था और समस्याओं के समाधान की उपयुक्त तकनीक का प्रयोग नहीं किया जाता, दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में स्थानीय दशाओं को सुधार कर लोगों का जीवनस्तर बेहतर नहीं बनाया जा सकता। जनसंख्या विस्तार को स्वास्थ्य पर्यावरण के लिए खतरा समझा जाना चाहिए। धनी तथा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के मध्यम वर्ग द्वारा अपनाई जा रही उपयोगिता संस्कृति भी पर्यावरण के लिए घातक है। स्कूल स्तर पर पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों और स्वस्थ पर्यावरण का महत्व समझकर इस बारे में स्वस्थ विचार और व्यवहार को बढ़ावा दिया जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी में आई क्रांति के सहारे पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी ज्ञान को देश के कोने-कोने में पहुँचाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि नीति-निर्माता यह समझें कि पर्यावरण कोई विलासिता की वस्तु नहीं जो केवल अमीर देशों के लिए है। भारत जैसे गरीब देश के लिए भी पर्यावरण की उपेक्षा महँगी पड़ेगी। साथ-साथ पर्यावरणविदों को भी समझाना होगा कि आर्थिक लक्ष्यों को केन्द्र में रखकर ही कोई दूर दृष्टि वाली पर्यावरण नीति बनाई जा सकती है। इसके लिए अधिक फैसलों की प्रक्रिया में पर्यावरण को प्रभावित करने वाले चरों का भी समन्वय करना होगा। इसके लिए सबसे पहले केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन को राष्ट्रीय आय की गणना के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की गणना की पद्धति भी विकसित करनी चाहिए ताकि देश को पता लगे कि पर्यावरण की क्षति से कितनी हानि हो रही है।

टेरी ने अपनी ग्रीन इंडिया 2047 परियोजना के अगले चरण में देश के सतत विकास का आधार बनाने के अस्थायी दिशा-निर्देश तैयार करने का प्रयास कर रहा है। दूसरे चरण का नाम ‘दिशा’ रखा गया है। इसका अर्थ है निर्देश, नवप्रवर्तन और कार्य सम्पादन की रणनीति।

(लेखक टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीच्यूट, नई दिल्ली के निदेशक हैं।)

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