पृथक पर्वतीय राज्य : लड़ाई अनिवार्य है

पर्वतीय राज्य की स्थापना की इच्छा पर्वतीय जनों की विकास की आकांक्षा का प्रतिबिम्ब है, पृथकता की भावना का नहीं।उत्तर प्रदेश के आठ पर्वतीय जिलों के पृथक पर्वतीय राज्य बनाने की माँग पुनः सुनाई देने लगी है, क्योंकि देश की बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों ने दबाए गए स्वरों को फिर से उभरने का अवसर दिया है, यह माँग नई नहीं है।

पिछले कुछ वर्षों में जब-जब भी पर्वतीय अंचल के आर्थिक विकास की आवश्यकताओं और क्षमताओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया तो ‘पिछड़ेपन के कारणों’ ने इस तार्किक निष्पत्ति को जन्म दिया कि पहाड़ों का सच्चा विकास पृथक राज्य बनाकर ही हो सकता है।

यह अनुभव किया जाता रहा है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का प्रशासन सुचारू रूप से चलाने के लिये प्रदेश का विभाजन अनिवार्य है, प्रदेश की राजनीतिक समस्याओं तथा गुटीय संघर्ष ने प्रदेश को आर्थिक विकास के मार्ग से विमुख रखा, कभी-कभार जो कुछ विकास के नाम पर हुआ भी तो पर्वतीय अंचल उसके लाभों से वंचित रह गया, क्योंकि मैदानी भागों के विकास के लिये अपनाई गई रणनीति पहाड़ों के लिये उपयुक्त नहीं थी। पहाड़ों की अपनी विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियाँ एवं आर्थिक आवश्यकताएँ हैं, जिन्हें हमेशा नजरअन्दाज किया गया, लखनऊ व दिल्ली के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर पहाड़ के विकास की योजना बनाने वाले अधिकारी वास्तविक समस्याओं तथा औचित्यपूर्ण समाधान की लेशमात्र भी कल्पना नहीं कर सके, परिणामस्वरूप पहाड़ी क्षेत्र उपेक्षित व अविकसित रह गए, इतना ही नहीं, विकास के स्थान पर इस क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा की जो अविवेकपूर्ण लूट खसोट हुई, उसने स्थानीय गरीब जनता के मन में गहरे जख्म पैदा किये।

चार मुख्यमंत्री


पर्वतीय अंचल से सम्बद्ध चार नेताओं सर्वश्री गोविन्दबल्लभ पन्त, चन्द्रभानु गुप्त, हेमवती नन्दन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी ने राज्य का मुख्यमंत्रित्व पाया, लेकिन फिर भी अंचल के विकास की कोई समन्वित योजना प्रारम्भ नहीं की जा सकी, ये चारों भी पक्षपात के काल्पनिक आरोपों के डर से अंचल के अर्थपूर्ण विकास की दिशा में पहल नहीं कर सके, जब से पृथक राज्य की माँग उठी, समस्या को टालने के लिये विकास की दिशा में कुछ थोथे प्रयास किये गए, जनता की आकांक्षाएँ न तो अपने मुख्यमंत्रियों से पूरी हुई और न ही इन छुट-पुट प्रयासों से, कुल मिलाकर स्थिति निराशा व भ्रम की उलझन से ग्रस्त है।

विकेन्द्रीकरण बनाम पृथकतावाद


पृथक राज्य की स्थापना के विरोधी विकेन्द्रीकरण को पृथकतावाद का पर्याय मान बैठते हैं, यदि पृथक पर्वतीय राज्य की माँग की जाती है तो यह भारतीय संघ से पृथक होने की माँग नहीं होती है, क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थिति, आर्थिक अवस्था व प्रशासकीय सुविधा की ज़रूरतों का तकाजा है कि यहाँ की विकास योजनाओं में स्थानीय लोगों की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये राजनीतिक और आर्थिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया जाए, पृथक राज्य की माँग इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये की जाती है, पर्वतीय जन देश के अन्य भागों के लोगों से कम देशभक्त नहीं हैं, अतः उन पर पृथकतावादी होने का आरोप वास्तविक समस्या को टालने की साजिश से अधिक कुछ नहीं है, आज आवश्यकता इस बात की है कि पृथक राज्य की माँग का तर्क, औचित्य एवं न्याय की कसौटी पर कसा जाए और तभी इस बारे में निर्णय लिया जाए, पूर्वाग्रह या दुराग्रह समस्या के सही समाधान के मार्ग में अवरोधक ही सिद्ध होंगे।

विकेन्द्रीकरण केन्द्र व उत्तरी राज्यों में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की नीतियों के विरूद्ध भी नहीं है, जनता पार्टी देश में आर्थिक व राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रति वचनवद्ध है, स्वशासन ही सबसे अच्छा शासन है, इसलिये भी पृथक पर्वतीय राज्य के विचार को स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए।

आन्दोलन का निर्णय


उत्तराखण्ड के 500 से अधिक समाजसेवियों ने अमर शहीद श्रीदेव सुमन को 33वीं पुण्यतिथि पर गत माह देहरादून में आयोजित पृथक पर्वतीय राज्य सम्मेलन में उत्तर प्रदेश के सम्पूर्ण आठों पहाड़ी जिलों तथा सहारनपुर, बिजनौर व बरेली जिलों की उत्तरी तहसीलों को मिलाकर एक उत्तराखण्ड राज्य बनाने की माँग की है, सम्मेलन में उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना के लिये आन्दोलन चलाने का निर्णय किया है तथा तत्सम्बन्धी संगठनात्मक तैयारियाँ भी शुरू कर दी हैं।

इस माह के शुरू में देहरादून में ही संवाददाताओं से बातचीत करते हुए राज्य के हरिजन व समाज कल्याण मंत्री श्री राम सिंह ने बताया कि राज्य सरकार उत्तर प्रदेश के विभाजन के पक्ष में नहीं है तथा पृथक पर्वतीय राज्य की स्थापना की कोई सम्भावना नहीं है।

उत्तर प्रदेश सरकार से यह आशा भी नहीं की जा सकती है कि वह स्वतः ही प्रदेश के विभाजन पर सहमत हो जाएगी, पृथक पर्वतीय राज्य के समर्थकों को अपनी माँग मनवाने के लिये स्वयं ही प्रयत्न करने होंगे और आवश्यकता पड़ने पर व्यापक आन्दोलन भी चलाना पड़ेगा, लेकिन सफल आन्दोलन चलाने की सामर्थ्य अभी विकसित नहीं हो पाई है।

सत्ताच्युत राजनीतिज्ञों का खेल


इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पृथक राज्य की कल्पना के जनक भू.पू. टिहरी नरेश मानवेन्द्र शाह से लेकर आज तक के कतिपय प्रतिष्ठित नेताओं ने इसे अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन मात्र समझने की भूल की है, जब तक सत्तारूढ़ रहे, तो पृथक राज्य की बात कभी याद नहीं आई। सत्ताच्युत होते ही पहाड़ों का पिछड़ापन याद आ जाता है और पृथक राज्य की माँग करने लगते हैं, इनमें अपने घोषित उद्देश्य के प्रति निष्ठा व समर्पण की अपेक्षा अपने स्वार्थों की चेतना अधिक शक्तिशाली रही है।

ऐसा भी नहीं है कि पूरी ईमानदारी से पृथक राज्य की स्थापना चाहने वाले नेता न हों, आवश्यकता इस बात की है कि ये दूसरी पाँत के नेता तथाकथित प्रतिष्ठित नेताओं को पीछे ठेल कर नेतृत्व अपने हाथों में ले लें तथा आन्दोलन को व्यापक जन चेतना से जोड़ें, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पृथक राज्य में क्षेत्र की समस्याओं के समाधान की सम्भावनाओं को देखते हुए देर-सबेर इसे पूरा व सक्रिय जन समर्थन प्राप्त हो जाये, कमी सिर्फ ईमानदार, समर्पित व कर्मठ नेतृत्त्व की है,

पर्वतीय राज्य की स्थापना की इच्छा पर्वतीय जनों की विकास की आकांक्षा का प्रतिबिम्ब है, पृथकता की भावना का नहीं।

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