पश्चिम से निर्यातित मौत की लागत

दुखद स्थिति तो यह है कि एक ओर देश के बंदरगाहों पर विदेशी औद्योगिक कचरे को उतारा जा रहा है और दूसरी ओर खुलेआम यह कहा जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों को प्रदूषण निर्यात करने से अमेरिका को भारी लाभ होगा। इसका कारण यह बताया गया कि विषाक्त भोजन से हुई अमेरिकी मौत महंगी होती है और गरीब भारतीय की मौत सस्ती। विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार विलियम समर्स का यह कथन कि "हमें तीसरी दुनिया को प्रदूषण निर्यात करना चाहिए", क्रूरतम अमानवीय भौतिकवादी सभ्यता का आधुनिकतम स्वरूप है। उनका तर्क है कि यदि औद्योगिक देशों का विषाक्त कचरा तीसरी दुनिया के देशों को भेजा जाता है या उन देशों के समुद्र के किनारे फेंका जाता है तो इससे होने वाला पर्यावरण का प्रदूषण वैश्विक स्तर पर घातक नहीं होगा क्योंकि गरीब देशों में मौत की लागत सस्ती है। विषाक्त कचरे से ग्रसित मछली या समुद्री पदार्थ खाने से गरीब देशों के लोगों की मौत होती है तो उससे विश्व की अधिक हानि नहीं होगी। उनका निर्मम तर्क यह है कि उन्नत देशों के मानव संसाधन को बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनयापन पर गरीब देशों की अपेक्षा अधिक खर्च होता है। इसलिए उन्नत देशों के लोगों की मौत महंगी होगी।

यह है पूंजीवादी सभ्यता का निर्मम तर्क जो करीब दो सौ वर्ष पूर्व पूंजीवादी सभ्यता के उत्पाद के रूप में अवतरित हुआ। प्रारंभ में व्यापार शोषण का माध्यम बना, बाद में क्रमशः निवेश, कर्ज और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण ने विकासशील देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। हैरत की बात यह है कि विकासशील देशों में कुछ ही दशकों पूर्व शुरू हुआ औद्योगीकरण ऐसी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के तहत विकसित हुआ जिसमें अमेरिका, जर्मनी या ब्रिटेन ही विषाक्त कचरे का निस्तारण तैयार करते रहे। ये देश ही यह तय कर सकते हैं कि कोस्टारिका में मछलियों का शिकार कैसे किया जाए। श्रीलंका में वनों के विकास की नीति क्या हो। भारत में चमड़े के उत्पादन या कालीन में श्रम शोषित उत्पाद का निर्यात बंद हो। लेकिन कोस्टारिका यह तय नहीं कर सकता कि विकसित देश और बहुराष्ट्रीय निगम कृषि और पर्यावरण संरक्षण के लिए उसकी फसलों का दाम ठीक रखें। मलेशिया यह नहीं कह सकता कि जर्मनी अपने खतरनाक औद्योगिक अवशेषों का निर्यात बंद कर दे।

दुर्भाग्य से विकासशील देशों के पर्यावरण संगठन जंगल बचाने या विकसित देशों के कचरे आयात करने से रोकने के अभियान को मजबूत बनाने के लिए न तो विश्व व्यापार संगठन पर दबाव डालते हैं और न ही इनमें निहित असमानता, अन्याय और खतरनाक आर्थिक-राजनीतिक कुचक्रों के विरुद्ध आवाज उठाते हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि विकसित देशों के पर्यावरण संगठन अपनी सरकारों पर दबाव डालते हैं कि वे पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए कोस्टारिका, भारत या बांग्लादेश से अमुक-अमुक चीजों का आयात बंद कर दें। लेकिन वे इन देशों की गरीबी, उनके पिछड़ेपन और पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार अपने देश के आर्थिक और व्यापारिक नीतियों में परिवर्तन के मामले में मुंह बंद रखते हैं। हैरत की बात है कि दुनिया भर में धुएं से उत्पन्न होने वाले खतरों पर विचार हो रहा है, वहीं दूसरी ओर भूमंडलीकरण और आर्थिक विकास की ऐसी योजनाएं बन रही हैं जिससे भविष्य में धुआं और बढ़ेगा। अमेरिका तथा अन्य अमीर देशों ने प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को तीसरी दुनिया के देशों में स्थानांतरित करने की मुहिम शुरू कर दी है। प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए तीव्र विकास के नाम पर अमीर देशों से गरीब देशों की ओर प्रदूषण का निर्यात किया जा रहा है। विकासशील देश इस भ्रम में हैं कि उनके यहां नई प्रौद्योगिकी आ रही है और उनका आर्थिक विकास हो रहा है लेकिन इन देशों में जिस तरह प्रदूषण की समस्या के साथ-साथ बेरोजगारी और विषमता भी बढ़ती जा रही है, उसको देखते हुए विकासशील देशों को विकास का ऐसा रास्ता खोजना पड़ेगा जिससे उनका इस परिवर्तन से नुकसान न हो और रोजगार के अवसर भी न घटें।

दुखद स्थिति तो यह है कि एक ओर देश के बंदरगाहों पर विदेशी विषाक्त रसायन और औद्योगिक कचरे को उतारा जा रहा है और दूसरी ओर खुलेआम यह कहा जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों को प्रदूषण निर्यात करने से अमेरिका को भारी लाभ होगा। इसका कारण यह बताया गया कि विषाक्त भोजन से हुई अमेरिकी मौत महंगी होती है और भारत की मौत सस्ती। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद भी सरकार ऐसा कोई कारगर कदम नहीं उठा पाई जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि उन्नत देशों का विषाक्त कचरा भारत में प्रवेश न कर सके। सोडे की राख या एसिड की बैट्री और अन्य विषैले रसायन भारतीय बंदरगाहों पर नए प्रकार के व्यावसायिक व्यवहार फैला रहे हैं। अभी तक सोना, मादक पदार्थों और हथियारों आदि की ही तस्करी होती थी लेकिन अब प्रदूषित कचरे की भी होने लगी है क्योंकि हमारे यहां विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित उच्चतम शुल्क दर से भी ऐसे आयातित कचरे की सीमा शुल्क नीचे बनी हुई है। पिछले दिनों विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव डाला गया कि उन्नत देशों द्वारा पुनः निर्मित वस्तुओं या अवशेषों को भारत में प्रवेश करने की सुविधा दी जाए।

ज्ञातव्य है कि देश में हरित क्रांति की सफलताओं से पूर्व जब अमेरिका से गेहूं आयात किया गया था तो उस गेहूं के साथ अमेरिका से आए एक पौधे के बीज पार्थिनियम (गाजर घास) का खामियाजा देश आज तक भुगत रहा है। पी.एल. ४८० के अंतर्गत आयातित गेहूं के साथ इस घास को पहली बार १९६१ में पुणे मे देखा गया था। लेकिन जानवरों तक के खाने लायक नहीं समझे जाने वाली यह वनस्पति देश के अनेक प्रांतों में लहलहाती देखी जा सकती है। इससे तरह-तरह की बीमारियां होती हैं। जल में मुक्त रूप से बहने वाली वनस्पति सालवेनिया (जलकुंभी) दक्षिणी अमेरिकी देशों से निकलकर भारत समेत अन्य देशों में फैल गई है। यह वनस्पति ऐसी फैली कि नदी, परिवहन, मत्स्य पालन, सिंचाई इत्यादि के लिए बनाए गए जल मार्ग अवरुद्ध हो गए। पीने के पानी के स्रोतों पर बुरा असर पड़ा और तरह - तरह की बीमारियों को बढ़ावा मिला। तीन वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया से आयातित गेहूं का जो हश्र हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। आयातित गेहूं के परीक्षण के बाद पता चला कि इसमें ऐसे खरपतवार हैं, जिनके भारतीय परिवेश में बढ़ने और बने रहने के बारे में वैज्ञानिकों के पास किसी प्रकार की जानकारी नहीं थी। इनमें भारत में प्रतिबंधित खरपतवार भी थे। सरकार ने निर्णय लिया इस गेहूं को उन क्षेत्रों में वितरित किया जाए जो पारंपरिक रूप से गेहूं के उत्पादक क्षेत्र नहीं हैं ताकि बीज के रूप में इसका प्रयोग किए जाने की संभावना नहीं रहे। लेकिन आज तक यह आशंका बनी हुई है कि तमाम सावधानियों के बावजूद यह बीज उन क्षेत्रों में भी पहुंच गया जहां इसके खरपतवार नई बीमारियों को जन्म दे रहे हैं।

असल में विलियम समर्स की मौत की लागत का नया अंकेक्षण होगा, तब मनुष्य और प्रकृति के अटूट संवाद को पुनः स्थापित किया जाएगा। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

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