पटना का बाढ़ सम्मेलन

रचनात्मक नीति का पहला काम होगा कि ऐसी सारी रुकावटें हटा दी जाय और उसके बाद सरकार वह रास्ते अख्तियार कर सकती है जिससे नदी के प्राकृतिक प्रवाह से लोगों को लाभ पहुंचे न कि प्राकृतिक प्रवाह को रोक करके लोगों को नुकसान पहुंचाया जाये। मेरा बिहार की वित्त व्यवस्था से कोई ताल्लुक नहीं है लेकिन मेरा यह निश्चित मत है कि एक अकेली नदी को नियंत्रित करने के लिए जो 10 करोड़ रुपया लगेगा वह कहां से आयेगा और वह भी तब जब कि इस निवेश का नतीजा किसी को नहीं मालूम।

उड़ीसा समिति का उद्देश्य यद्यपि उड़ीसा की बाढ़ पर अपना मत व्यक्त करना तथा भविष्य के लिए सिफारिशें करना था परन्तु इससे उस समय के व्यावहारिक चिन्तन तथा समस्या के प्रति सम्बद्ध और भुक्त-भोगियों की सजगता का अंदाजा लगता है। इस समय तक पानी के प्राकृतिक प्रवाह और उसके रास्ते में आई रुकावटों के प्रभाव को साफ तरीके से समझा जा चुका था और उसके निदान के लिए भावी कार्यक्रम की रूपरेखा भी तय की जा चुकी थी। जंगलों की कटाई तथा भू-क्षरण के कारण बाढ़ या सूखे पर जंगलों का प्रभाव भी तब तक स्पष्ट होने लगा था। इन्हीं खयालों के पुख्ता करने की एक पहल बिहार में 1937 में पटना के सम्मेलन की शक्ल में हुई। नदी पर बने तटबन्धों के बारे में बिहार के तत्कालीन गवर्नर हैलेट ने सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में कहा कि, “...यह समस्या चीन में भी है और यही समस्या अमेरिका में, खासकर मिसीसिपी घाटी में भी है जहाँ भारी खर्च और दुनियाँ में सबसे अच्छी विशेषज्ञ तकनीकी क्षमता के बावजूद नदियों को नियंत्रित करने के लिए बनाये गये तटबंध, जिन्हें स्थानीय लोग लेवी कहते हैं, सफल नहीं हो पाये हैं। मैं इससे ज्यादा जोर देकर अपनी बात नहीं कह पाऊँगा।”

डॉ. राजेंद्र प्रसाद, यद्यपि वह स्वयं इस सम्मेलन में नहीं आ पाये थे और केवल उनका संदेश पढ़ा गया था, का मानना था कि, “नदियों की धाराओं को स्थिर रखने के लिए तटबंध या बांधों के अलावा कुछ खास-खास इलाकों के बचाव के लिए बहुत से व्यक्तिगत, अर्द्ध-सरकारी या सरकारी बांध बनाए गए हैं। फिर हमारे पास सबसे बड़े बाँध वह हैं जिनका निर्माण रेलवे ने किया है जो कि पूरे प्रान्त में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक प्रान्त की पूरी लम्बाई-चौड़ाई में फैले हुये हैं। हमारे पास जिला परिषदों तथा स्थानीय निकायों की बेशुमार सड़कें हैं जो कि प्रान्त के विभिन्न इलाकों के बीच बाँधों का काम कर रही हैं। जब प्राइवेट बाँधों को उन इलाकों में बाढ़ का कारण माना जाता है तो हम लोगों को रेलवे तथा जिला परिषद की सड़कों की शक्ल में बने इन बाँधों को हरगिज नहीं भूलना चाहिये। मैंने देखा है कि रेल लाइन के एक तरफ कई-कई फुट पानी खड़ा रहता है जबकि दूसरी तरफ पानी का अता-पता तक नहीं होता ...कोई आश्चर्य नहीं है कि हर साल इन बाँधों में दरार पड़ती है पर ताज्जुब तब होता है कि जैसे ही बाढ़ खत्म होती है इन दरारों को पाट दिया जाता है और शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जबकि इन दरारों की जगह पानी को जल्दी बहा देने के लिए कलवर्ट या पुल बने हों ...इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाढ़ के लिए बाँध जिम्मेवार है और उनका काम तमाम कर देना चाहिये तब जिन बाँधों पर सबसे पहले नजर पड़नी चाहिये वह रेलवे तथा जिला परिषदों के बाँध हैं। यह सुझाव बहुत ही मायूसी पैदा करने वाला होगा पर मेरा विश्वास है कि परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए कोई न कोई दूसरा तकनीकी समाधान जरूर निकाल लिया जायगा।”

बहस को आगे बढ़ाते हुये बिहार के तत्कालीन चीफ इंजीनियर कैप्टन जी. एफ. हॉल ने कहा कि, “जैसे-जैसे बाढ़ों के बारे में मेरी जानकारी बढ़ती गई मुझे बाँधों की उपयोगिता पर शक होने लगा और धीरे-धीरे मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि बाढ़ नियंत्रण न केवल गैर-वाजिब है बल्कि तटबंध इन बड़ी बाढ़ों का मूल कारण हैं। मैं मानता हूँ कि अब ज्यादातर लोग इस बात से सहमत हैं कि कम गहराई की फैली हुई बाढ़ों की उत्तर बिहार को जरूरत है न कि उनसे बचाव की, यद्यपि अखबारों में आये दिन इस आशय के लेख छपा करते हैं कि सरकार बाढ़ों से बचाव के लिए जरूरी कदम उठाये।”

कैप्टन हॉल ने अपने समापन प्रस्ताव में आगे कहा था कि स्थानीय अधिकारियों तथा समाचार पत्रों के माध्यम से एक जबर्दस्त शैक्षणिक प्रचार की जरूरत है जिससे जनता की मानसिकता को तटबंध विरोधी बनाया जा सके जबकि सरकार का काम होगा कि इस नीति के क्रियान्वयन में व्यावहारिक पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित करे। “यदि तटबंध बनते रहे अथवा यथास्थिति ही बनी रहे तब भी, मैं विश्वास करता हूं कि, हम भविष्य के लिए भयंकर विपत्तियों का संग्रह कर रहे हैं यद्यपि इस विनाश की पराकाष्ठा देखने के लिए हम स्वयं यहाँ नहीं होंगे। अमरीकियों ने नदियों को उनकी पूरी लम्बाई में नियंत्रित किया है और उनके पास असीमित साधन हैं। अब कोसी का उद्गम नेपाल में है और बिहार के पास नदी नियंत्रण के लिए असीमित साधन तो हैं नहीं। व्यावहारिक इन्जीनियरिंग और उपलब्ध साधनों का अटूट सम्बन्ध है, इसका मतलब यह नहीं है कि सबसे सस्ता समाधान ही सबसे अच्छा समाधान है। अक्सर इसके विपरीत ही होता है परन्तु इसका मतलब यह जरूर है कि हैसियत से बाहर जाकर किसी तकनीकी योजना को हाथ में लेना उचित नहीं है।”

जब यह सम्मेलन चल रहा था तभी चीन की ह्नाँग हो नदी के तटबन्धों में गंभीर दरारें पड़ने के कारण हजारों लोग मारे गये। समाचार पत्रों में छपी रिपोर्ट खुद कैप्टन हॉल ने सभा में पढ़कर सुनाई थी।

इसी सम्मेलन में बिहार के तत्कालीन लोक-निर्माण और सिंचाई सचिव जीमूत बाहन सेन ने कोसी पर नेपाल में हाई-डैम बनाने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने कोसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के दुःख दर्द के बारे में बताते हुये कहा था कि वहाँ लोग नदी के किनारे 368 किलोमीटर लम्बे तटबंध को बनाने में अपना सहयोग देने की इच्छा रखते हैं मगर तटबंध कोसी समस्या का समाधान नहीं है। “...कोसी को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है कि नदी जैसे ही पहाड़ों से मैदानों में उतरने को होती है, उसे बांध दिया जाय। मगर इस काम में दो बड़ी बाधायें हैं, एक तो यह स्थान नेपाल में है और दूसरा इस पर बेहिसाब पैसा खर्च होगा।”

इस सम्मेलन में जहाँ एक ओर तटबन्धों के खिलाफ आम सहमति थी वहीं कुछ लोगों ने तटबन्धों के पक्ष में पुरजोर आवाज उठा कर अपना विरोध दर्ज किया। ऐसे लोगों की अगुआई निरापद मुखर्जी कर रहे थे। उनका मानना था कि, “...विशेषज्ञ चाहते हैं कि सरकार उनका समर्थन करे और लोगों को तटबंध विरोधी बनाया जाय और प्रकृति को अपना काम करने दिया जाय। यह एक पिटी हुई मानसिकता है लेकिन सरकार को लोगों की मदद करनी चाहिये और विशेषज्ञों को सारे रास्ते तलाश करने चाहिये। अगर हमारे विशेषज्ञ प्रकृति के सामने नहीं ठहर सकते तो फिर बाहर से विशेषज्ञ बुलाये जायें। मुमकिन है, समय के साथ हमारे विशेषज्ञों की राय बदल जाये।”

कैप्टन हॉल ने जीमूत बाहन सेन और निरापद मुखर्जी के प्रस्तावों के जवाब में कहा कि, “...कोसी के ऊपरी क्षेत्र पर नेपाल का नियंत्रण है और बिहार सरकार के पास नदी को नियंत्रित करने के लिए असीमित साधन नहीं हैं। यह भी प्रस्ताव किया गया है कि हमें नेपाल का सहयोग प्राप्त करना चाहिये। यह बहुत जरूरी भी है लेकिन मुझे ऐसे किसी सहयोग की उम्मीद नहीं है। उन्हें इस सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था पर उन्होंने कोई भी प्रतिनिधि भेजने से इन्कार कर दिया। मेरा नेपाल सरकार के साथ नदी नियंत्रण और सीमा विवाद के मुद्दों पर कुछ वास्ता पड़ा है और मैं इसके अलावा कोई राय कायम नहीं कर सकता कि वह बिहार के फायदे के लिए अपने आपको कोई तकलीफ देंगे।”

निरापद मुखर्जी के प्रश्न का उत्तर देते हुये कैप्टन हॉल ने कहा कि, “...ऐसा कहा गया है कि बाँध विरोध की नीति हारी हुई मानसिकता और गैर-रचनात्मकता की नीति है। अगर बात यहीं समाप्त हो जाती तो इन आरोपों में जरूर कुछ दम है परन्तु जहाँ तक इस सम्मेलन में हुये विचार विमर्श से मेरा ताल्लुक है, मैं एक बात, और सिर्फ एक ही बात, को स्थापित करना चाहता हूँ कि सरकार यदि कोई बाढ़ नीति बनाती है तो यह माना जाये कि बाँध पानी के मुक्त प्रवाह में बाधा डालते हैं और बाढ़ों की तीव्रता को घटाने के बजाय बढ़ाते हैं। यह बात स्वीकार कर लिए जाने के बाद रचनात्मक नीति का पहला काम होगा कि ऐसी सारी रुकावटें हटा दी जाय और उसके बाद सरकार वह रास्ते अख्तियार कर सकती है जिससे नदी के प्राकृतिक प्रवाह से लोगों को लाभ पहुंचे न कि प्राकृतिक प्रवाह को रोक करके लोगों को नुकसान पहुंचाया जाये। मेरा बिहार की वित्त व्यवस्था से कोई ताल्लुक नहीं है लेकिन मेरा यह निश्चित मत है कि एक अकेली नदी को नियंत्रित करने के लिए जो 10 करोड़ रुपया लगेगा वह कहां से आयेगा और वह भी तब जब कि इस निवेश का नतीजा किसी को नहीं मालूम।’’

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading