पुल तो है लेकिन समस्या वही है

बनमा प्राइमरी स्कूल, सहरसा के पूर्व अध्यापक और बेलहा पंचायत, प्रखंड मानसी, जिला खगड़िया के वर्तमान मुखिया ठाकुर पासवान बताते हैं, ‘‘...अगर कहीं बागमती का दायां तटबंध टूटा तो सारा पानी हमारे ही इलाके से होकर गुजरने वाला है। 1987 के बाद से इस तटबंध के टूटने की घटनाओं में तेजी आयी है। नदी की पेंदी का लेवेल ऊपर उठने से तबाही भी बढ़ी है और बाढ़ का पानी भी ज्यादा समय तक टिकता है। यह बात अब हम लोग समझने लगे हैं और नवम्बर से ही तटबंध की मरम्मत और रख-रखाव के लिए लिखा-पढ़ी शुरू करते हैं- कभी प्रखंड में, कभी कलक्टर के यहाँ तो कभी वाटरवेज में, मगर सरकार जागती है जुलाई-अगस्त के महीने में जब पानी हमें चारों ओर से घेर लेता है। उस समय सारा काम आपातकालीन व्यवस्था के अधीन चलता है जिसमें लूट-पाट की काफी गुंजाइश रहती है और किसी की जवाबदेही कुछ नहीं बनती। मेरी उमर 71 वर्ष है। बचपन की बात याद है कि बाढ़ का पानी कभी गांव में नहीं आता था। खेती समय से खूब होती थी। खर्च कम था, स्थितियाँ खाने पीने के लिहाज से आज से बेहतर थीं। खेती चौपट होने से बेरोजगारी बढ़ी है और उसकी वजह से पलायन बढ़ा है। रोजगार गारंटी में कुछ काम मिल जाता है मगर उसकी मजदूरी का भुगतान 15 दिन बाद पोस्ट ऑफिस के जरिये होता है मगर मजदूर को तो रोज का रोज पैसा चाहिये। यह भुगतान सरकारी तंत्र को रोज-ब-रोज गांव में करना चाहिये। हमारे जवान बस दशहरा, होली, दीवाली में ही घर रहते हैं, बाकी समय तो उन्हें बाहर ही रहना पड़ता है। पुनर्वास के लिए जिस जमीन का अधिग्रहण किया गया वह निचली जमीन थी, जल-जमाव वाली थी। वहां लोग कैसे जाते? फिर घर बनाने का पैसा तो किसी को भी नहीं मिला। इस पुल के निर्माण से बागमती की तो हत्या हो ही गयी मगर उसके साथ-साथ बागमती के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र के रहने वालों की भी एक तरह से हत्या ही हो गयी। पश्चिम वाले क्षेत्र का पानी नहीं निकलता है और पूर्वी क्षेत्र भीषण कटाव का सामना करता है। यह पुल ऊपर और नीचे दोनों तरफ मार करता है। रही बागमती तटबंध की बात जिसकी वजह से हमारी इतनी तबाही हुई तो उसका एक फायदा जरूर है कि जब बरसात के मौसम में पूरा इलाका डूबने लगता है तो शरण लेने के लिए यही तटबंध काम भी आता है। जिसका गाँव घर कट गया उनमें से बहुत लोग अब स्थायी तौर पर इस बांध पर ही रहने लगे हैं।’’

ठाकुर पासवान एक और सुझाव देते हैं कि हमें कौन सी नदी किस नदी में जाकर मिलती है उसकी परिभाषा के बारे में भी सोचना चाहिये। यहाँ कोसी का लेवल ऊपर है और बागमती का नीचे और पानी अगर अपना तल खुद ढूंढ़ता है तो कोसी आकर बागमती में मिलती है न कि बागमती जाकर कोसी में मिलती है। यह छोटी सी बात अगर इंजीनियरों की समझ में आयी होती तो इस पुल की डिज़ाइन दूसरे तरीके से बनती और तब शायद इतना नुकसान भी नहीं होता।

अलौली प्रखंड में बालू में डूबते गाँवों की एक अजीब सी मिसाल है आनंदपुर मारन पंचायत का आनंदपुर परास गाँव। जुलाई के दूसरे सप्ताह से यहाँ बाढ़ का प्रकोप बढ़ता है। जुलाई से लेकर अक्टूबर तक एक जैसा ही माहौल रहता है यहाँ। उसके बाद पानी उतरता है मगर नाले फिर भी सक्रिय रहते हैं और आने-जाने के लिए नाव के बिना काम तब भी नहीं चलता। सरकार कभी नाव की व्यवस्था कर देती है कभी नहीं भी करती है। 2009 में नाव की कोई व्यवस्था नहीं हुई थी। अगर कहीं हुई भी होगी तो वह नाव कागज की ही रही होगी। प्राइवेट नावें हैं जिसकी मदद से 5 रुपया, 10 रुपया देकर लोग हाट-बाजार कर लिया करते हैं। जुलाई से सितम्बर तक यहाँ जीवन बड़ा कष्टमय रहता है जिसमें तटबंध के अंदर रहने या बाहर रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। 1987 में जो बाढ़ आयी थी उसमें यहाँ की तमाम जमीन बंजर हो गयी और उस पर सात-सात, आठ-आठ फुट बालू एक साल में पड़ गया। अब जो बाढ़ आती है वह अगर ज्यादा हुई तो इस ऊँची जमीन पर भी चढ़ जाती है, कम हुई तो नीचे रह जाती है। 10-12 साल के बाद जब यह बालू सड़ने लगता है तो इस जमीन पर थोड़ी बहुत रब्बी की फसल होने लगी है। यहाँ से 4-5 किलोमीटर उत्तर में फुहिया है जिसके बारे में हमने पहले चर्चा की है। यहाँ 1987 में कोसी से एक धार फूट कर इस नदी में मिल गयी थी। इस धार का नाम बहवा बाहा है। जब यह बागमती में मिल गयी तो बागमती की तरफ प्रवाह ज्यादा हो गया। इस बढ़े प्रवाह ने फुहिया के नीचे के सभी गाँवों को प्रभावित किया है और इस निचले इलाके में बाढ़ तथा कटाव की स्थिति तभी से गंभीर हुई है। गाँव के लोग कहते हैं कि इस बाहा का मुंह अगर बंद कर दिया जाए तो उनकी हालत पहले जैसी हो जायेगी और उन्हें कुछ आराम हो जायेगा मगर यह काम करेगा कौन? इन लोगों को कौन पूछता है और कौन आता है यहाँ? समस्तीपुर के बाढ़ नियंत्रण मुख्यालय में गाँव से परिचित एक इंजीनियर की कुछ समय के लिए नियुक्ति हो गयी थी जिनके प्रयास से यहाँ कुछ कटाव निरोधक काम हुए हैं।

अपने पुराने घर के फर्श पर खड़े और लिंटेल लेवेल पर हाथ रखे हुए श्रीकांत आजादअपने पुराने घर के फर्श पर खड़े और लिंटेल लेवेल पर हाथ रखे हुए श्रीकांत आजादआनंदपुर परास के श्रीकान्त आजाद बताते हैं, ‘‘...हमारा जन्म तो इसी गाँव में हुआ मगर हमारे पूर्वज कभी बिशनपुर में रहते थे, वहाँ से वे लोग अलौली आये और करीब 80 वर्ष पहले वे इस गाँव में आये। उस समय बताते हैं कि यह नदी यहाँ नहीं थी, केवल एक सोता था। धीरे-धीरे यह नदी बन गयी। यह तटबंध सरकार की योजना थी और हम लोगों की तरफ से इसकी कोई मांग नहीं थी। 1960-62 के आस-पास इसका निर्माण हुआ होगा। तटबंध बन जाने के बाद तो अंदर और बाहर दोनों तरफ के लोग बर्बाद हुए, दोनों ही परेशान हैं। हमारे यहाँ मिर्च और अरहर खूब होती थी। तटबंध के बाहर भी इसका अच्छा उत्पादन होता था। अब हमारी जमीन ऊँची हो गयी और वहाँ खाल हो गया। तटबंध अगर कभी टूटा तो एक मंजिल ऊँचा पानी उधर निकले पर इसके सामने जो पड़ेगा वह तो बर्बाद ही होगा न? यहाँ से 5-7 किलोमीटर उत्तर में ही तटबंध टूटा करता है। खबर पहले मिल जाती है कि पानी आ रहा है तो लोग सावधान हो जाते हैं। हमारे यहाँ टूटेगा तो नीचे प्रलय ही होगी। ऊपर टूट कर नदी बाहर चली जाती है तो हमारे यहाँ पानी सूख जाता है।

यहाँ, जहाँ आप बैठे हैं इसके बीस फुट नीचे हमारे पुराने मकान का फर्श आपको मिलेगा। इतनी मिट्टी यहाँ पड़ी है। यह नया घर बनाने के लिए हम लोग ईंट निकालना चाहते थे, मगर पूरा खोद नहीं पाये। 5-6 फुट नीचे जाने पर बालू टूट कर गिर जाता था। यहाँ खेत वाले बर्बाद हो गए क्योंकि जिसके पास जमीन नहीं है वह तो कहीं भी चला जायेगा, नौकरी करेगा, कमायेगा, खायेगा और घर भी भेजेगा। नरेगा में मर्द-औरत सब की मजदूरी बराबर है और मजदूर बाजार भाव से 10 किलो गेहूँ खरीद लायेगा। किसान इतनी मजदूरी दे नहीं सकेगा। यहाँ तो सरकार की नीतियाँ खेती को बर्बाद करने के लिए हैं। हमारे यहाँ जीविका अभी भी पशुधन के सहारे चलती है।’’

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