पूर्वोत्तर राज्यों में पेयजल

21 Jun 2015
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प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी का सपना है कि भारत के दूसरे राज्यों की तरह ही पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में शुद्ध एवं समुचित पेयजल उपलब्ध हो सके। इसके लिए सरकार की ओर से लगातार प्रयास किया जा रहा है। पहले से चल रही तमाम परियोजनाओं को गति देने के साथ पेयजल से जुड़ी कई नई परियोजनाओं को भी मंजूरी दी गई है।

पिछले दिनों पूर्वोत्तर में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात राज्य का उदाहरण दिया। कहा कि जब गुजरात एवं राजस्थान में शुद्ध एवं भरपूर पेयजल की व्यवस्था हो सकती है तो पूर्वोत्तर के राज्यों में क्यों नहीं? उन्होंने लोगों को भरोसा दिया कि पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों को भी सरकार शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध है। निश्चित रूप से जिस तरह से सरकार की ओर से पूर्वोत्तर राज्यों के विकास पर गौर किया जा रहा है उससे यह कहना गलत नहीं होगा कि पूर्वोत्तर में भी आधारभूत सुविधाओं का भरपूर विकास होगा। जहाँ तक पानी का सवाल है तो पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी है। नदी, झरनों की वजह से पानी तो है, लेकिन शुद्ध पेयजल की कमी है। दूसरी तरफ बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण एवं जनसंख्या विस्फोट का भी असर परम्परागत जल स्रोतों पर पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में पुराने परम्परागत जलस्रोतों का पानी पीने योग्य नहीं रहा है। ऐसे में बाँधों के बीच डैम बनाया जाता है और इन डैम में एकत्र पानी को रिसाइकिल कर पीने योग्य बनाकर आपूर्ति की जाती है। लेकिन बदलते परिवेश में डैम में जलभराव को लेकर संकट खड़ा हो रहा है।

यदि हम राज्यवार स्थिति देखें तो चेरापूँजी में सबसे अधिक बारिश होती है। लेकिन यहाँ भी पेयजल की समस्या है। इस समस्या को दूर करने के लिए विदेशी मदद ली जा रही है। हर वर्ष जून से नवम्बर के दौरान 12 हजार मिलीमीटर बारिश होती है लेकिन अब यहाँ भी बारिश में कमी आई है। इसलिए सरकार इजरायल के विशेषज्ञों से मदद की अपेक्षा कर रही है जो रेगिस्तान में अपने देशवासियों को पेयजल मुहैया करा रहे हैं। यहाँ पेयजल की समस्या दूर करने के लिए चरणबद्ध तरीके से काम करने की योजना बनाई गई है जिसमें बारिश के पानी का संचय, वितरण प्रणाली, आजीविका, वनीकरण तथा कृषि क्षेत्र का स्थानीय लोगों की मदद से एक साथ विकास किया जाएगा।

पूर्वोत्तर प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर है। यहाँ पानी के स्रोत भी हैं, लेकिन ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी होने की वजह से यहाँ रहने वाले लोगों को पानी के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। हालाँकि पिछले कुछ समय से पूर्वोत्तर में विकास की गति तेज हो गई है। केन्द्र सरकार के विजन 2020 के तहत शहर के साथ ही ग्रामीण इलाकों में भी आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। बिजली परियोजनओं के साथ ही पेयजल परियोजनाओं का भी विकास किया जा रहा है। केन्द्रीय संसाधन पूल योजना (एनएलसीपीआर) के संचालित होने के बाद पूर्वोत्तर में हर स्तर पर बदलाव दिखने लगा है। विश्व बैंक सहित विभिन्न विदेशी संस्थाएँ भी पूर्वोत्तर के विकास में सहयोग कर रही हैं। एनएलसीपीआर योजना के तहत 2013-14 के दौरान पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 635.36 करोड़ रूपये की अनुमोदित 50 नई ढाँचागत परियोजनाएँ मंजूर की गई। इसके अलावा 518.99 करोड़ रूपये परियोजना को लागू करने के लिए दिए गए। इस अवधि में राज्य सरकार ने कुल 537.96 करोड़ राशि की 60 परियोजनाएँ पूर्ण करवाई। वहीं पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मन्त्रालय ने चालू वित्तीय वर्ष 2014-15 में 7 मई परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है। करीब 87.88 करोड़ रुपये की लागत की इन परियोजनाओं को केन्द्रीय पूल के संसाधनों (एनएलसीपीआर) के तहत मंजूरी मिली है।

इसी तरह केन्द्र सरकार की ओर से पेयजल मिशन के अन्तर्गत वित्तवार पेयजल सुविधाओं के विकास के लिए आर्थिक मदद उपलब्ध करायी जाती रही है। वित्त वर्ष 2009-10 में जहाँ असम को 20 करोड़ रूपये की सहायता राशि जारी की गयी थी। वहीं मेघालय को 10 करोड़ रूपये, मणिपुर को 7.77 करोड़ रूपये, त्रिपुरा को 16 करोड़ रूपये, सिक्किम को 9.80 करोड़ रूपये औ मिजोरम को 4.95 करोड़ रूपये की सहायतता राशि जारी की गई है। इससे पहले बोडोलैंड क्षेत्र परिषद के तहत 2312 लाख की लागत से कोकराझार जलापूर्ति स्कीम शुरू की गई। इस योजना के जरिए लोगों को उनके घरों तक पानी पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है। इसी तरह 327.63 लाख की लागत से सुबंरकाटा जलापूर्ति स्कीम शुरू की गई। पेजयल आपूर्ति की दिशा में वर्ष 2007 में महत्वपूर्ण कार्य हुआ। इस साल 246.63 लाख रूपये की लागत से भेरगाँव पाइप जलापूर्ति स्कीम, 533.70 लाख की लागत से उदालगुड़ी पाइप जलापूर्ति स्कीम एवं 864.39 लाख रूपये की लागत से उत्तरपारा पाइप लाइन जलापूर्ति स्कीम शुरू की गई। अब ये परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। इनके पूरा होने के बाद उन इलाकों में पेयजल पहुँच सका, जहाँ के लोगों को पानी के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी।

पूर्वोत्तर भारत का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यहाँ अपार खनिज तत्वों के साथ ही वन सम्पदा है। इसके बाद भी पूर्वोत्तर में पेयजल सहित कई अन्य तरह की समस्याएँ बनी हुई हैं। भौगोलिक परिस्थितियों एवं मौसम अनकूल न होने की वजह से अभी तक आधारभूत ढाँचा विकसित नहीं हो पाया है। पर्वतीय प्रधानता एवं भौगोलिक संरचना की वजह से अभी तक तमाम इलाकों में पेयजल के लिए लोगों को दिक्कतों को सामना करना पड़ता है। पूर्वोत्तर के अन्तरर्गत आने वाले अरूणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा राज्य में सड़क एवं रेल का अभाव है। यहाँ रहने वाले लोगों को शुद्ध पेयजल बमुश्किल से प्राप्त होता है। यह भी सच्चाई है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के सभी राज्य विशेष श्रेणी के हैं जिनकी विकास योजनाओं के लिए 90 प्रतिशत अनुदान और 10 प्रतिशत ऋण के आधार पर केन्द्रीय सहायता दी जाती है। इसके अलावा विशेष श्रेणी के राज्यों को गैर-योजना खर्च के लिए केन्द्रीय सहायता का 20 प्रतिशत इस्तेमाल करने की इजाजत है। इसके बाद भी पूर्वोत्तर की विकास यात्रा की स्थिति देखें तो पानी का संकट है। हालाँकि ब्रह्मपुत्र नदी से नहर के जरिए जलमार्ग से सम्बन्धित कई परियोजनाओं पर विचार चल रहा है। बराक नदी पर भी कुछ प्रोजेक्ट प्रस्तावित हैं। इन परियोजनाओं के पूर्ण होने के बाद न सिर्फ जलमार्ग की सुविधा बेहतर होगी बल्कि शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में भी अहम कार्य होगा।

अब बात करते हैं पेयजल संकट के कारणों की। दरअसल पेयजल प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। देश के अन्य हिस्सों की तरह ही पूर्वोत्तर के कई क्षेत्रों पर पानी की कमी तो है ही, जो पानी बचा है वह भी प्रदूषित है। इसका मूल कारण मिट्टी का कटाव व वनों की कटाई। वनों की कटाई की वजह से मिट्टी बहकर पानी में मिल रही है। पूर्वोत्तर के असम सहित कई राज्य हैं, जो अकसर बाढ़ की विभीषिका का सामना करते हैं। जीवनदायिनी ब्रह्मपुत्र में तेलशोधक कारखानों के गिरने की वजह से अकसर दक्कितें सामने आती हैं। कई बार तो प्रदूषण से मछलियों के मरने का सिलसिला शुरू हो जाता है। रिफाइनरी से हो रहे प्रदूषण का ब्रह्मपुत्र नदी में जल-जीवन पर गहरा असर पड़ता है। ऐसी स्थिति में इस इलाके के जलस्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। इन जलस्रोतों के प्रदूषित होने की कीमत वहाँ रहने वाले लोगों को उठानी पड़ती है। आँकड़ों पर गौर करें तो देशभर के वनों में पूर्वोत्तर के सात प्रदेशों में करीब 25.7 फीसदी वन पाए जाते हैं। इनमें से पूर्वोत्तर राज्यों के वन तेजी से नष्ट हो रहे हैं। वनों की कटाई ईंधन के लिए लकड़ी और कृषि भूमि के विस्तार के लिए हो रही है। यह प्रचलन औद्योगिक और मोटर वाहन प्रदूषण के साथ मिलकर वातावरण का तापमान बढ़ा देता है जिसकी वजह से वर्षण का स्वरूप बदल जाता है ऐसे में कभी बाढ़ तो कभी अकाल की आवृत्ति बढ़ती जा रही है।

वैसे भी जल संसाधन बहुल भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त पिछड़ा है। इसका मुख्य कारण जल संसाधन के अधिकतम दोहन एवं उचित प्रबन्धन का अभाव है। इस इलाके में अभी तक जल संसाधन के वह इन्तजाम नहीं हो पाए हैं, जिसकी जरूरत है। जल संसाधन की अनियन्त्रित अधिकता ने भूमि कटाव की कठिन समस्या पैदा की है जिसने बाढ़ को उग्रतम बना दिया है।

अन्तरिक्ष आधारित सूचना केन्द्र


पूर्वोत्तर के बारे में व्यापक जानकारी देने के उद्देश्य से अन्तरिक्ष आधारित सूचना केन्द्र का शुभारम्भ किया गया है। एसबीआईके-एनईआर का मुख्य उद्देश्य पूर्वोत्तर क्षेत्र के आठ राज्यों में से प्रत्येक के बारे में उपयुक्त जानकारी उपलब्ध कराना है। इसे एक ऐसे साफ्टवेयर से जोड़ा गया है, जिसके जरिए पूर्वोत्तर विकास राज्य मन्त्री, सचिव व अन्य अधिकारी विकास की पूरी स्थिति से अवगत हो सकेंगे। एनईएसएसी, पूर्वोत्तर अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र द्वारा विकसित एसबीआईके-एनईआर संस्करण के पहले चरण में जमीन के इस्तेमाल, आर्द्र भूमि, बंजर भूमि, भूमि निम्नीकरण, नक्शे, सड़कों के बारे में और अन्य बहुमूल्य जानकारी उपलब्ध होगी। इसमें आईआरएस - पी 6 उपग्रह के अत्याधुनिक वाइड फील्ड सेंसर की राज्यवार छवि भी है। एसबीआईके-एनईआार को मेघालय की पूर्वोत्तर जिला संसाधन योजना नाम के पोर्टल से जोड़ा गया है, जिसका उद्देश्य जिला प्रशासन के लाभ के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने के लिए अन्तरिक्ष टैक्नोलाॅजी की जानकारी प्रदान करना है।

विकास के लिए छह-स्तरीय रणनीति


ब्रह्मपुत्र नदी लगभग 724 किलोमीटर लम्बे मार्ग में प्रवाहित होकर दक्षिण की ओर मुड़कर बांग्लादेश के मैदानी इलाकों में चली जाती है। इसी तरह बरक नदी घाटी दक्षिण-पूर्व दिशा में विस्तृत निम्न भूमि के क्षेत्र की संरचना करती है, जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण है। इस इलाके में घनी आबादी है। इस राज्य की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि है। चावल इस राज्य की मुख्य खाद्य फसल है। राज्य में लगभग 39.44 लाख हेक्टेयर भूमि कुल खेती योग्य भूमि है। इसमें से करीब 27.01 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही खेती की जाती है।

विजन 2020 के लिए छह-स्तरीय रणनीति तैयार की गई है। इसी रणनीति के जरिए विजन 2020 का सपना साकार होगा। इसमें प्रमुख रूप से समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए जमीनी-स्तर की योजनाओं के जरिए स्वशासन तथा भागीदारी विकास को बढ़ाकर लोगों का सशक्तिकरण करना है। सरकार का मानना है कि इससे आधारभूत स्थितियों में बदलाव आएगा। इसी तरह कृषि तथा उससे समबन्धित गतिविधियों में उत्पादकता बढ़ाकर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विकास के अवसरों का सृजन सरकार की दूसरी रणनीति का हिस्सा है। पूर्वोत्तर में अभी कृषि आधारित रोजगार को बढ़ावा देने के लिए व्यापक काम नहीं हुआ है। इसके पीछे भी मूल कारण पानी की समस्या है। इसलिए सरकार चाहती है कि कृषि को रोजगारपरक बनाए जाने से हर वर्ग के लोगों को लाभ मिलेगा। तीसरे स्तर पर सरकार की ओर से कृषि प्रसंस्करण का विकास करना है। पूर्वोत्तर में तमाम ऐसे कृषि उत्पाद हैं, जो दूसरे स्थानों पर नहीं मिलतेे हैं। इनका प्रसंस्करण करने से उन्हें दूसरे राज्यों में आपूर्ति करने में सहूलियत होगी। साथ ही किसानों को ज्यादा से ज्यादा आमदनी हो सकेगी। इसी तरह चौथी रणनीति है पनबिजली उत्पादन। इसके लिए सरकार ने काफी व्यापक योजना बनाई है। भौगोलिक दृष्टि से पूर्वोत्तर में पनबिजली केन्द्रों की स्थापना करना लाभकारी रहेगा। इससे जहाँ राज्यों को भरपूर बिजली उपलब्ध कराई जा सकेगी वहीं इन पनबिजली केन्द्रों से उत्पादित बिजली को दूसरे राज्यों को भी दिया जा सकेगा। इससे बिजली को दूसरे राज्यों को भी दिया जा सकेगा। इससे बिजली का उपभोग करने वाले राज्य पूर्वोत्तर के राज्यों को अपने उत्पाद सस्ती दर पर उपलब्ध करा सकेंगे।

पनबिजली के जरिए पूर्वोत्तर में विकास को नया आयाम मिलेगा। यही वजह है कि इस मुद्दे पर प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत भी गम्भीरता दिखाई गई हैं और पीपी के तहत भी पनबिजली केन्द्रों की स्थापना का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है। विजन 2020 की पाँचवी रणनीति है लोगों के कौशल तथा दक्षता को बढ़ाना। इस दिशा में बहुत ही व्यापक स्तर पर काम किया जा रहा है। जब पूर्वोत्तर के लोग दक्ष होंगे तो उन्हें जीविकोपार्जन के लिए किसी तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। वे अपने हुनर के दम पर स्वावलम्बी बन सकेंगे। छठी और अन्तिम रणनीति का हिस्सा है सरकारी एवं बाहरी संस्थानों के भीतर क्षमता का निर्माण करना। इससे भी पूर्वोत्तर के राज्यों को काफी लाभ मिलेगा। पूर्वोत्तर परिषद ने पूर्वोत्तर विजन 2020 को तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है, जिसके अन्तर्गत लक्ष्य, इनकी रूपरेखा, चुनौतियों की पहचान और विभिन्न क्षेत्रों में शान्ति, समृद्धि और विकास के लिए क्रियान्वयन रण्नीति बनाई गई है। इससे पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए एकीकृति विकास की रूपरेखा बनाने में मदद मिली है। अपनी शुरूआत से पूर्वोत्तर परिषद ने क्षेत्र में 9800 किमी सड़क, 77 पुल और 12 अन्तरराज्जीय बस टर्मिनल, ट्रक टर्मिनल को स्वीकृत और पूर्ण किया है। वर्ष 2012-13 के दौरान पूर्वोत्तर परिषद ने 5 और हवाई अड्डों के विकास योजनाओं को स्वीकृत किया है। इसके अतिरिक्त तेजू और लेंगपुई हवाई अड्डों के विकास को भी परिषद ने स्वीकृति दी है।

पूर्वोत्तर के राज्यों की स्थिति


नागालैंड
राज्य में कोई भी सिंचाई परियोजना नहीं है। छोटी सिंचाई परियोजनाओं से मुख्य रूप से पहाड़ी झरनों की धारा मोड़ी जाती है। जो घाटी में धान की खेती में सिंचाई के काम आती है। इन्हीं झरनों के जरिए यहाँ के रहने वालों को भी पेयजल उपलब्ध कराया जाता है। पहाड़ी इलाका होने की वजह से यहाँ दूसरे राज्यों की तरह हैण्डपम्प आदि की व्यवस्था नहीं है। यही वजह है कि यहाँ पेयजल की बहुत समस्या रहती है। पीने के पानी की व्यवस्था सरकार करती है। यहाँ के लोग बरसात में छत से टपकने वाले पानी को एकत्र करके रखते हैं। अब भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के तहत सौर ऊर्जा से चलने वाली जलशोधन इकाईयाँ लगाई जा रही है। कोहिमा जिले के पानी के लिए तरसते तीन गाँवों मेरिइमा, तसिइसेमा और कीजूमेतोमा में यह इकाइयाँ लगाई गई हैं। मुम्बई की एक कम्पनी द्वारा लगाई गई इकाई हर घंटे में 1200 लीटर पानी फिल्टर करने में सक्षम है। सरकार की कोशिश है कि इन इकाइयों का विस्तार किया जाए।

मणिपुर
मणिपुर की राजधानी इम्फाल है। करीब 22,347 वर्ग किमी. क्षेत्र वाले मणिपुर में खेती को बढ़ावा देने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। यहाँ सिंचाई के साधनों का विस्तार करने के साथ ही कृषि फार्मों का आधुनिकीकरण भी किया जा रहा है। सिंचाई के लिए लोकटक झील प्रमुख है। लोकटक झील के ऊपर स्थानीय लोगों की निर्भरता के कारण इसे मणिपुर की जीवन-रेखा भी कहा जाता है। यहाँ अब तक लोकटक लिफ्ट सिंचाई परियोजना के साथ ही कोफुम बाँध, सेकमाइ बौराज, इम्फाल बैराज, सिंगड़ा बहुउद्देश्यीय योजना, खूगा बहुउद्दश्यीय परियोजना, थोबल बहुउद्देश्यीय परियोजना और दोलईथबी बाँध बहुउद्दश्यीय परियोजना है। इनसे सिंचाई के साथ ही पेयजल भी उपलब्ध कराया जा रहा है। सिंगड़ा बाँध से राज्य जन स्वास्थ्य इंजीनियरिंग विभाग को 4 एमजीडी कच्चे पानी की आपूर्ति होती है। वर्ष 2007 से खुगा बहुउद्देश्यीय परियोजना से राज्य को 5 एमजीडी कच्चे पानी की आपूर्ति हो रही है।

सिक्किम
सिक्किम भी पर्वतीय राज्य है। यह राज्य पश्चिम में नेपाल, उत्तर और पूर्व में चीनी तिब्बत क्षेत्र और दक्षिण-पूर्व में भूटान से घिरा हुआ है। भारत का पश्चिम बंगाल राज्य इसके दक्षिण में है। यह 1975 में भारत गणराज्य में शामिल हुआ। प्राकृतिक तौर पर सौंदर्य से भरपूर इस राज्य में भी पानी की समुचित व्यवस्था नहीं है। यहाँ बहने वाली तीस्ता नदी को सिक्किम की जीवन-रेखा कहा जाता है। करीब एक लाख हेक्टेयर कृषि भूमि वाले इस राज्य की 64 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहाँ बिजली की कुल क्षमता 36 मेगावाॅट है। यह 123 एमवीए की ट्रांसफाॅरमेशन क्षमता के साथ पनबिजली पर आधारित है। राज्य की कुल विद्युत लगभग 8,000 मेगावाॅट है। तीस्ता घाटी परियोजना पूर्वी जिले की नदी के बहाव पर है और इसकी क्षमता 510 मेगावाॅट है।

अरूणाचल प्रदेश
अरूणाचल प्रदेश के लोगों का भी मुख्य आधार कृषि है यहाँ झूम खेती का चलन है। प्रदेश में 87,500 हेक्टेयर से अधिक भूमि सिंचित क्षेत्र है। राज्य की विद्युत क्षमता लगभग 30,735 मेगावाॅट है। राज्य के 3,649 गाँवों में से लगभग 2,600 गाँवों का विद्युतीकरण कर दिया गया है। पेयजल के लिए लिफ्ट कैनालों से जलापूर्ति की जाती है।

असम
असम अन्य उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यों से घिरा हुआ है। यहाँ पर कपिली नदी और ब्रह्मपुत्र नदी भी बहती है। ब्रह्मपुत्र नदी लगभग 724 किलोमीटर लम्बे मार्ग में प्रवाहित होकर दक्षिण की ओर मुड़कर बांग्लादेश के मैदानी इलाकों में चली जाती है। इसी तरह बरक नदी घाटी दक्षिण-पूर्व दिशा में विस्तृत निम्न भूमि के क्षेत्र की संरचना करती है, जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण है। इस इलाके में घनी आबादी है। इस राज्य की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि है। चावल इस राज्य की मुख्य खाद्य फसल है। राज्य में लगभग 39.44 लाख हेक्टेयर भूमि कुल खेती योग्य भूमि है। इसमें से करीब 27.01 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही खेती की जाती है। असम में तमाम लोग खेती करते हैं। सब्जी, फल के साथ ही चाय बागान में तमाम लोग लगे होते हैं।

मिजोरम
करीब 21081 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले राज्य मिजोरम की राजधानी आईजोल है। फरवरी, 1987 को यह भारत का 23वां राज्य बना। प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर मिजोरम में लगभग 80 प्रतिशत लोग कृषि कार्यों में लगे हुए है। यहाँ सीढ़ीदार खेती और झूम खेती होती है। करीब 6.30 लाख हेक्टेयर भूमि में बागवानी होती है। यहाँ का भूतल सिंचाई क्षेत्र लगभग 70,000 हेक्टेयर है। इसमें से 45,000 हेक्टेयर बहाव क्षेत्र में है और 25,000 हेक्टेयर 70 पक्की लघु सिंचाई परियोजनाओं और छह लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं के पूरा होने से प्राप्त किया जाता है। इन लिफ्ट परियोजनाओं के जरिए शोधित जल यहाँ के वाशिंदों को भी उपलब्ध कराया जाता है।

त्रिपुरा
त्रिपुरा का क्षेत्रफल सिर्फ 10,486 वर्ग किमी. है। यह गोवा तथा सिक्किम के बाद भारत का तीसरा सबसे छोटा राज्य है। यहाँ की राजधानी अगरतला है। त्रिपुरा की अर्थव्यवस्था प्राथमिक रूप से कृषि एवं वन पर आधारित है। यहाँ लिफ्ट सिंचाई के साथ ही गहरे नलकूप भी हैं। लोक निर्माण विभाग (जल संसाधन) द्वारा 1411 डाइवर्जन स्कीम, 166 गहरे नलकूप स्कीमें चल रही हैं। इसके अलावा नहर प्रणाली भी है। इससे इस राज्य में पेयजल की ज्यादा किल्लत नहीं होती है।

मेघालय
पूरब के स्काॅटलैंड मेघालय की स्थापना दो अप्रैल 1970 को हुई। इसे पूर्ण राज्य का दर्जा 21 जनवरी, 1972 को मिला। कृषि प्रधान राज्य में बागवानी खूब होती है। जड़ी-बूटी की खेती भी होती है। पूर्वोत्तर का स्काॅटलैंड कहे जाने वाला मेघालय स्थित चेरापूँजी अपनी भारी बारिश की वजह से ही गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज था। लेकिन अब यह इलाका जलवायु परिवर्तन की चपेट में है। चेरापूँजी अब खुद अपनी प्यास बुझाने में भी नाकाम है। यहाँ बारिश साल-दर-साल कम होती जा रही है। करीब पाँच साल पहले 1100 एमएम बारिश होती थी वहीं अब पाँच सौ एमएम ही बारिश हो रही है। स्थिति यह है कि स्थानीय लोगों को अब पीने का पानी खरीदना पड़ता है।

(लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार हैं।), ईमेल-sangeetayadav.shivam@gmail.com

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